मैंने कहा—"यह तो और भी अच्छा है। कर दीजिए शुरुआत। बन जाइए इतिहास-पुरुष।"
लेकिन
वैसा जज्बा दिखाना उनकी फितरत में नहीं था। अपमानित-सा ही करने वाली मुस्कान चिपकाए,
निस्पृह-से बैठे रहे बस। मैं उस मुस्कान को अधिक समय तक झेल नहीं
पाया। उठकर चला आया था।
हाल ही में 'समकालीन भारतीय साहित्य' का मई-जून 2020 अंक देखने में आया है। इस अंक में कई ऐसी बातें हैं जो विगत अंकों की कुछ जड़ताओं को तोड़कर कुछ नया जोड़ती प्रतीत होती हैं। प्रतीक के तौर पर उनमें से एक, योगराज प्रभाकर की रचना 'तापमान' यहाँ उद्धृत है :
तापमान / योगराज प्रभाकर
"पैंतीस साल की नौकरी के बाद भी न कोई क़द्र है न कोई इज्ज़त! ये भी साली कोई ज़िंदगी है? इससे अच्छा तो मौत ही आ जाए, सारा टंटा ही ख़त्म होI" अपना स्कूटर दीवार से साथ लगाकर बाबूजी बड़बड़ाते हुए घर में दाख़िल हुएI
दरअसल आज का दिन ही मनहूस था उनके लिएI सुबह घर से काम पर जाने के लिए निकले तो तो रास्ते में स्कूटर ख़राब हो गया। कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो करीब तीन मील तक बमुश्किल स्कूटर को घसीटते हुए कारख़ाने पहुँचेl जाते ही उस नए अफ़सर ने बिना कुछ सुने उन्हें देर से आने पर न केवल डाँटा बल्कि नौकरी से निकाल देने की धमकी भी दी थीI दोपहर को पता चला कि तीर्थयात्रा पर जाने के लिए उनकी छुट्टी मंज़ूर नहीं हुईI यही नहीं, छोटे बेटे के दाखिले के लिए जो ऋण की अर्ज़ी दी थी, वह भी अस्वीकार कर दी गई थीl उनका खाना भी आज डिब्बे से बाहर नहीं निकला, और भोजनावकाश के समय वे बीड़ी पर बीड़ी फूँकते रहेl
"बाबूजी, पानीI" बाबूजी को देखते ही उनकी पुत्रवधू पानी का गिलास उनके सामने रखते हुई बोलीI
"नहीं बहू, मुझे नहीं चाहिए। ले जाओ उठाकरl" उनकी त्यौरियाँ और गहरी हो रही थींI
"इतने परेशान क्यों हो, तबीयत तो ठीक है न? क्या हुआ है तुम्हें ?" उनकी पत्नी भी कमरे में आ पहुँचीI
"कुछ नहीं हुआ मुझे, बस तुम लोग जाओ यहाँ सेI" बाबूजी ने उन्हें उँगली के इशारे से बाहर का रास्ते दिखाते हुए कहाI
"बाऊ जी, वो आपके लोन का क्या हुआ?" स्थिति से अनभिज्ञ छोटे बेटे ने कमरे में प्रवेश करते ही पूछाI
उत्तर में बाबूजी ने उसे बुरी तरह घूर कर देखा, उनका यह रूप देखकर सब ने वहाँ से जाना ही उचित समझाI बीड़ी सुलगाकर वे फिर बड़बड़ाने लगे—
"ये ज़िंदगी है कि साला नरक?… "
कमरे की दीवारों का ज़र्द पीला रंग धीरे धीरे उनके चेहरे पर उतर रहा थाI और वे एकटक उन्हें घूरे जा रहे थे। उदासी का सन्नाटा पूरे कमरे में फैल चुका था। तभी नन्ही-नन्ही पायलों की छनछन से कमरा गूँजने लगाI
"दादू, दादू जी!!"
इन शब्दों से उनकी तन्द्रा टूटी। तीन साल की पोती अचानक उनकी टाँगों से आ लिपटी और त्यौरियाँ ढीली पड़ने लगींI
"अले..
ले.. ले... ले! मेली गुगली-मुगली! मेली म्याऊँ बिल्ली! कहाँ चली गई थी तू?
दादू जी कब छे तुझे ढूँढ लए थेI" नन्ही
पोती को उठाते हुए वे पंछी की तरह चहक उठे
थे। पोती ने भी अपना सिर उनके कंधे पर रख दियाI अब उनके
चेहरे के पीलेपन पर पोती की फ़्रॉक का गुलाबी रंग चढ़ना शुरू हो चुका थाI स्नेह से उसका माथा चूमते हुए उन्होंने पुत्रवधू को आवाज़ दी,
"एक कप गर्मा-गर्म चाय तो पिला दे बहू…ऽ…I"
मोबाइल योगराज प्रभाकर : 98725 68228
बेहतरीन लघुकथा।असफलताओं के दौर में ऐसी उद्विग्न मनः स्थिति में एक बच्ची ही घायल मन को बहला सकती है।बहुत ही स्वाभाविक चित्रण।योगराज प्रभाकर जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDelete–जेठ की दोपहरी में वर्षा की बूँद सा अचूक शीर्षक
ReplyDelete–कर्मचारी वर्ग का सटीक चित्रण
साधुवाद
अपने पापा को देखती हूँ ऐसे ही अपने पोते पोतियों के साथ अपने तनाव अपनी परेशानियों को दूर फेंकते हुए।कहते हैं मूल से सूद प्यारा होता है और यही है इस लघुकथा में भी।
ReplyDeleteबहुत प्यारी लघुकथा है।
आप दोनों को हार्दिक बधाई। वाकई लघुकथा लाज़वाब है। शायद पहले पढ़ी है। बेहतरीन संदेश छुपा है इस लघुकथा में । आप दोनों ही इसे महसूस कर चुके है। ऐसी परिस्थिति से रूबरू हो चुके हैं। एक कारण यह भी इसे इतना पसंद करने के लिए। जिन क्षणों का वर्णन है, वे सचमुच अद्भुत पल होते हैं।सादर।
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी।
ReplyDeleteयोगराज sir की ये लघुकथा जितनी बार पढ़ी जाए,अंत मे उतनी बार ही चेहरे पर मुस्कान ले आती है। बेहतरीन
ReplyDeleteयोगराज जी को बधाई।
ReplyDeleteबलराम भाई निश्चित ही नया कुछ करने पर आमादा हैं। मैंने उनके जैसा निरकुंठ संपादक आज तक नहीं देखा। इतनी बड़ी पत्रिका के संपादक होकर जिस सहजता से लेखकों से बात करते हैं वह सुखद अहसास से भर देता है। परसों फिर उनका फोन आया और लगभग एक घंटा तक बतियाते रहे। उनके संपादन में आये समकालीन भारतीय साहित्य के ताजा अंक की सम्पूर्ण सूची पर बात की और भविष्य की योजनाओं पर विस्तार से चर्चा की। वह एक घंटा न जाने कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। उन्होंने भाई रूपसिंह चंदेल का रिकॉर्ड तोड़ दिया जो अपनी बातचीत में चालीस मिनट तो लेते ही हैं। ऐसे मित्रों से बात करके अच्छा लगता है, विशेषकर इस कोरोना जनित कैद के दिनों में।
बहुत सुंदर लघुकथा !पोते-पोतियों के प्रति प्यार और लगाब ही कुछ ऐसा होता है। उसमें नहाते ही बनता है।
ReplyDeleteBahut pyari si laghukatha hai . Baccho ki ek smile hi sari tensions door krne k liye kafi hai. Is covid mi bhi kids hi hain jo positivity de rahe hain . Thank you sir for sharing it .
ReplyDeleteशानदार रचना है।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteयोगराज भाई की एक बेहतरीन लघुकथा । भाई बलराम जी का कुशल संपादक । बधाई "समकालीन भारतीय साहित्य " के नये अंक के लिए ।
ReplyDelete