संदीप तोमर |
अशोक भाटिया एक ऐसे रचनाकार हैं जो विधा के लिए नए मापदण्ड स्थापित करते हैं, साथ ही अपने लिए भी एक ऐसा स्पेस बनाते हैं जहाँ उनके आलावा किसी की उपस्थिति सम्भव नहीं है। उनकी लघुकथाओं में सामान्य से सामान्य घटना के विशिष्टीकरण को देखा जा सकता है। वे समाज की विसंगतियों को अपनी लेखनी का अंग बनाते हैं और हर घटना का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए उसे उसके अभीष्ट तक ले जाते हैं, तब वह घटना सामान्य न होकर समस्त मानव समाज की विशेष घटना हो जाती है। उनकी रचनाओ में कहानी का सा स्वाद है तो संवाद का तड़का भी है। उनकी रचनाओं की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि कोई भी घटना सामान्य नहीं होती। उनके भावप्रधान लेखन को नकारता नहीं जा सकता, और यही अशोक का सबसे सबल पक्ष है।
अशोक भाटिया आठवें दशक के उन सशक्त लघुकथा लेखकों में हैं जिन्होंने आधुनिक लघुकथा लेखन की नीव रखी है, १९७७ की युगमार्ग में भी वे नजर आते हैं तो २०१९ की मुख्यधारा की पत्रिकाओं में भी उनकी उपस्थिति दर्ज होती है। पाँच दशको के सतत लेखन के इस सफ़र में ये बात स्पष्ट होती है कि अशोक का लेखन हिन्दी लघुकथा साहित्य में एक अहम स्थान रखता है।
संग्रह क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा की बात करें तो पाठकगण पुस्तक का शीर्षक देख जिज्ञासावश कह सकते हैं कि ये क्या शीर्षक है लेकिन रचना-दर-रचना अशोक की रचनात्मक यात्रा में सहभागी होते हुए सभी परतें खुलना शुरू होती हैं और क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा के साथ पाठक आनंद उठाते हुए रोमांचित होना शुरू करते हैं। “मृतक”, ‘”रहस्य”, “तीसरा चित्र”, “रो-मांस”, “आक्सीजन” कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं, जहाँ पाठक अधिक संजीदा हो रचना को पढना शुरू करता है और रचना के अंत तक आते-आते उसके चेहरे के भाव बदलने लगते हैं। यहाँ अशोक हमें चौंकाते जरुर हैं लेकिन ये चौंकाना लघुकथा को अंत में झटका देना, या पंचलाइन (मुँह पर तमाचा) जैसा न होकर एकदम सहज है। संग्रह की अधिकांश रचनाएँ एक संतुष्टिदायक अंत तक पाठक को ले जाती हैं। उनके लेखन की कला है कि पाठक रचना के अंत का पूर्वानुमान नहीं लगा पाता। शीर्षक चयन में भी वे बहुत अधिक कलाकारी नहीं करते वरन आसपास बिखरे पड़े शब्दों, शब्दचित्रों, किस्सों-कहानियों को ही शीर्षक के रूप में प्रयुक्त कर लेते हैं जो रचना में अपनी उपयोगिता को स्वयं सिद्ध करता है। मज़बूरी, व्यथा-कथा, श्राद्ध, शेर और बकरी, समय की जंजीरें, वह आवाज, देश, जकडन ऐसे ही कुछ शीर्षक हैं। “जकडन” शीर्षक के अंतर्गत पाँच लघुकथाएं हैं, 1. शोपिंग मॉल की संस्कृति से रेहड़ी पर सब्जी बेचने वाले पर पड़ने वाले प्रभाव की चिंता है, २. शोपिंग मॉल से हबड़-तबड में सामान खरीदने से बजट पर मार की व्यथा-कथा है, ३. बैंक के लोन से हमेशा कर्जदार रहने वाली नयी पीढ़ी की मानसिकता का वर्णन है. ४. नयी पीढ़ी की मानसिकता को दर्शाती लगभग हर मध्यम परिवार की व्यथा-कथा है, ५. पुनः मकान खरीदने के लिए कर्जदार हुए दंपत्ति की व्यथा को कहती रचना है, यहाँ अंत की एक पंक्ति उद्धरण स्वरूप देने की जरूरत होगी-“अगर दिक्कत हुई तो ब्याज भरने के लिए और लोन ले लेंगे। उधार मिले तो घी पीना भी मुनासिब होता है। इन पाँचों रचनाओं में एक अदृश्य हाथ मध्यमवर्गीय परिवारों को अपनी जकडन में लेता प्रतीत होता है।
“मज़बूरी” रचना एक मनोवैज्ञानिक रचना है, जहाँ पति-पत्नी दोनों की नौकरी करने की विवशता के बीच छोटी बच्ची के बचपन बिखरने की चिंता को केंद्र-बिंदु के रूप में लेखक ने रखा अवश्य है लेकिन सांकेतिक रूप में मध्यमवर्ग की तमाम चिन्ताओ का चित्र प्रमुखता से खींचा है।
“चौथा चित्र” भी एक मनोवैज्ञानिक रचना है, जहाँ पिता, पुत्र और माँ, तीनो अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे के सामने अलग-अलग चित्र प्रस्तुत करते हैं।
बतौर वीरेंद्र वीर मेहता-“कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम लिखने के लिये क्या विषय चुनते हैं? चिरपरिचित या नवीनतम। ......... फ़र्क़ पड़ता हैं कि हम उसे 'ट्रीट' कैसे करते हैं, उसके कथ्य को कैसे पाठक के सामने रखते हैं? कैसे उसका प्रारम्भ करतें हैं और कैसे चरम सीमा की ओर ले जाते हुए उसका, मन को झकझोर देनें वाला अंत करते हैं...........?” ऊक्त कथन के प्रकाश में अशोक भाटिया की “तीसरा चित्र” को देखा जा सकता है। उक्त रचना में वृद्ध पिता के बीमार पड़ने पर उसके पुत्र द्वारा अलग-अलग तीन चित्रों को बनाकर लाने के माध्यम से रचना को बुना गया है। पिता-पुत्र के बीच साधारण वार्तालाप के बीच, तीन अलग-अलग चित्रों के साथ चलते हुये पाठक के मन में जबर्दस्त कौतुहल पैदा करती हुई ये रचना अंत में एक ऐसा प्रश्न छोड़ जाती हैं कि पाठक उसकी टीस को मन में अनुभव करता रहता हैं। यह प्रश्न हर देश-काल और परिस्थिति में भी समाज के सामने स्वयं प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा है। 'गरीब तबके' की बारी आते-आते योजनाओं के 'रंग' खत्म हो जाने की स्थिति को दर्शाना ही रचना का अभीष्ट है।
“माँ कहती है कि सर्दियों में फटे कपड़े सूटर के नीचे छिप जाते हैं।”- व्यथा-कथा नामक लघुकथा का समापन वाक्य है। यहाँ लेखक बिना किसी बाजीगरी के एक छात्र से यह संवाद बुलवाकर गरीबी की महीन व्याख्या करता है। सहज ही अशोक भाटिया १९९६ के समय को पन्नो पर चित्रित कर देते हैं। “कपो की कहानी” में समानता की बात करने वाले पात्र की सीवरेज पाइप खोलने वाले जमादार के लिए चाय बनाते समय कपों के चयन तक आते-आते मानसिकता में बदलाव की सामन्ती सोच को दर्शाया गया है। “सामने” भी मजदूर के दर्द को बयाँ करती कालजयी रचना है, यहाँ लेखक कभी न खत्म होने वाली समस्या को उठाता है, लेखक ने कहने का प्रयास किया है कि मजदूर के हिस्से आज भी काम न मिलने की लाचारी है, जिससे वह बार-बार खुद को लाचार महसूस करता है, बच्ची के भूखे पेट सोने की चिंता में मजदूर के साथ-साथ लेखक भी घुलता है। अशोक की ये भी एक विशेषता है कि वे सार्वत्रिक और कालजयी समस्याओं को आम पाठक और चिन्तक वर्ग की समस्या के समान प्रस्तुत करते हैं। “बन्दर” और “जीवन-अजीवन” भी गरीबी पर तंज करती रचनाएँ हैं। “बन्दर” में मकान की मरम्मत, माँ का इलाज, बच्चों को ठीकठाक स्कूल में पढ़ाने की मध्यमवर्गीय चिंता है, अशोक की नजर में मध्यमवर्गीय परिवार नवगरीब की श्रेणी में हैं, यह चिंता उनकी अन्य कई रचनाओं में भी उभरती है। “जीवन-अजीवन” का कहन लेखक को अन्य रचनाकारों से अलग करता है। ...उसके माँ-बाप ने उस पर ध्यान जरुर दिया था, लेकिन भुखमरी में वे उसे ढंग से पाल-पोस नहीं सके थे ।...., .....हाँ, एक दिन वह मरा जरुर था, हालाकि वह तो जन्म से ही मर रहा था।
अशोक भाटिया ने समय, समय की दस्तक, गरीबी, लाचारी, को बहुत करीब से, बहुत बारीकी से विश्लेषित-विवेचित किया है। यह बात लेखक को अधिक संवेदनशील बनाती है, वे संवेदनाओं के लेखक हैं।
“गेट सम्राट” एक मध्यमवर्गीय इन्सान के दिमाग में पडोसी से बड़ा दिखने के मनोवैज्ञानिक विकार की रचना है, एक ऐसे इन्सान का चित्रण अशोक करते हैं जो ‘हम किसी से कम नहीं’ की तर्ज पर एक बिना आयोजन की प्रतियोगिता का शिकार हो जाता है।---“कुछ करना पड़ेगा इलाज, हमें क्या बोडू समझ रखा है?”....छुटभैया कहीं का....जलमल की चाल में आज असाधारण चुस्ती आ गयी थी.... ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जो रचना के पात्र के चरित्र का पूरा ब्योरा प्रस्तुत करते हैं। रचना का अंत भी बड़ी नाटकीयता से किया गया है-...गेट के नट-बोल्ट उतारकर उसके दोनों पल्ले स्कूटर पर फिट किये, फिर दोनों पल्लों को अपनी पीठ से सटाया, गेट के रंग अपने चेहरे पर चिपकाए, गेट के भाले अपने दिमाग में ठोके, फिर स्कूटर स्टार्ट कर विजयश्री के लिए निकल पड़ा। रचनाकार बिना किसी उपक्रम के पात्र की फितरत को बड़ी आसानी से पाठको के सम्मुख रखता है।
“किसान आज” शीर्षक से पुस्तक में एक साथ चार लघुकथाएं हैं, “रिपोर्ट” में किसान के हालात का वर्णन है जो प्राकृतिक और भौतिक मार के चलते आत्महत्या करने को विवश होता है, मानो मैथिली शरण गुप्त यूँ लिखना चाहते हो-“ अबला किसान हाय तेरी यही कहानी... किस्मत में मौत और आँखों में पानी।“ “खबर” शीर्षक रचना में फैशन प्रतियोगिता कवर करने वाली मिडिया पर कटाक्ष है.... जब प्रतियोगिता-स्थल से कुछ किलोमीटर दूर इस साल के पाँच सौवें किसान ने कर्ज तले दबकर फाँसी लगा ली थी, आज सुबह वह पेड़ पर लटका मिला लेकिन किसी खबरिया चैनल ने उसकी खबर कवर नहीं की.... । “उससे पहले” में किसान फसल के पकने पर कितने सपने देखता है, क्या-क्या योजनायें बनाता हैं, रचनाकार उसे शब्दों से बयां करता है।...कई बार सोचता हूँ, हम दिन-रात मेहनत करते हैं। क्या कभी अपने दरवज्जे पर पुराना ही सही, एक ट्रेक्टर खड़ा करने के लायक हो पाएंगे।.... ‘तुझे क्या लगता है? इस बार फसल कुछ ठीक-ठाक दे जाएगी?’.... रचना का अंत किसान के सपनों पर कुठाराघात के रूप में हुआ है....नीलगायों का झुण्ड उसके खेत में घुस आया।...यही इस रचनाकार की विशेषता है कि वह सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कह जाते हैं। “कीड़े” भी किसान की त्रासदी की एक अन्य रचना है।
अशोक राजनीति पर भी अच्छी पकड़ रखते हैं, “लोक और तंत्र”, “राम-राज्य”, ”रहस्य”, रचनाएँ उनकी राजनीतिक समझ से पाठक को परिचित कराती हैं।
एक बात महत्वपूर्ण है कि ये क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा की रचनाएँ समाज में हो रहे परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, राजनीति, भ्रष्टाचार इत्यादि का गहन प्रभाव छोडती है। अशोक हर रचना पर अलग तरह का प्रयोग करते हुए अपनी रचनाधर्मिता को पन्नो पर उकेर देते हैं। लम्बे समय तक अध्यापन का अनुभव उनकी लेखनी को पैनेपन के साथ उभारता है। वे विविध प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं। “क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा अशोक भाटिया की संवेदनाओं का विस्तार है जो विभिन्न कथानकों, कथा-बिम्बों के माध्यम से उभरा है। उनके पास विविधताओं का भण्डार है। वे इन विविधताओं को मात्र शब्द नहीं देते वरन पाठक को विषय से जोड़ने का उपक्रम भी करते हैं।
”लगा हुआ स्कूल” लघुकथा स्कूली हालात का जायजा लेते हुए वहाँ व्याप्त बिमारियों को उजागर करती है। प्रतीत होता है मानो रचनाकार ने श्रीलाल शुक्ल के “रागदरबारी” उपन्यास की पूरी कथा को एक लघुकथा में समाहित कर दिया। व्यंग्य किस प्रकार लघुकथा विधा में अपना प्रभाव दिखाता है, इस रचना में उसे भी देखा जा सकता है। रचना का अंत बहुत ही साधारण से दिखने वाले वाक्य से होता है... स्कूल फिर पहले की तरह चलने लगा, जो आज तक वैसा ही चल रहा है। इस एक वाक्य के माध्यम से लेखक ने शिक्षा-संस्थानों में जस की तस बनी रहने वाली स्थिति के अपने शैक्षणिक अनुभव को लिख दिया है।
“बेटी बड़ी हो गयी है” भी एकदम अलग तरह की रचना है। यहाँ लड़कियों के भाव-प्रधान मन को केंद-बिंदु बनाया गया है। चाकलेट के माध्यम से लड़की को लडको की अपेक्षा अधिक संवेदनशील, संस्कारी और जिम्मेदारी का अहसास होने वाले प्राणी के रूप में दर्शाया गया है। अशोक की एक विशेषता यह भी है वे मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं लिखते हैं, बल्कि लेखन की जिम्मेदारी को भी बखूबी समझते हैं और उसका निर्वाह भी करते हैं। “बेटी बड़ी हो गयी है” शीर्षक ही इस रचना की खूबसूरती है। ...उसके भीतर संतोष और अफ़सोस आपस में टकरा रहे थे,.... कोई बात नहीं मैं फिर ले लूंगी ...... । लघुकथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है। “युग-मार्ग” में दूध चुराने के अपराध के पीछे का मनोविज्ञान है, जो एक संवाद से बखूबी उभरता है...”बच्चो के लिए ले जा रहे थे दूध”.... यह जो भाषा का कमाल है, जो संवाद का तरीका है, यह सिर्फ अशोक के पास ही है। ”बीसवी सदी की आखिरी शाम” के माध्यम से लेखक आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बावजूद एक सुटीड-बूटेड की मानसिक रूप से विपन्न होने की स्थिति को बताता है,... सेल्युलर फोन वाला वे आदमी इक्कीसवी सदी शुरू होने का जश्न मनाने वाली मण्डली के साथ शराब-कबाब-शबाब का स्वाद लेने की कल्पना में मस्त, सीट पर और फैलता जा रहा था और एक पैर पर खड़ी वह स्त्री कारखाने में रात की शिफ्ट में जाने की हिम्मत जुटा रही थी। यह एक वाक्य लिखकर लेखक समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाता है।
इसी तरह “जिन्दगी” में लेखक अपनी संवेदना की प्रकट करता है...” मुझे लगा कि जिन्दगी किसी मजदूर के हाथ सी कठोर और भूखे बच्चे के पेट सी खाली होती है। जिन्दगी माँ की आँखों सी सूनी, कपड़ो सी फटी-मैली, दिख रहे बदन सी नंगी और बेबस होती है, जिसे ठेले की तरह खींचा जाता है। ”रिश्ते” नौकरी की जिम्मेदारी से परिचित कराने की कथा है जिसके माध्यम से अशोक एक ड्राईवर के विश्वास की तरफ इशारा करते हैं जिसे आज बस के मुकाम पर पहुँचने के साथ सेवामुक्त होना है। ”दर्शन” लम्बे कालक्रम की रचना है, जिसे पढकर पाठक के मन में लघुकथा में “कालखंड” जैसी थोपी गयी अवधारणा और उपचार दोनों का जवाब निहित है।
“मृतक” संग्रह की पहली रचना है जिसमें बहुत कम शब्दों में व्यंग्य ऊँचाई पाता है। यह रचना इस एक मत के लिए भी पर्याप्त है कि ‘लघुकथा में शब्द-संख्या कोई मायने नहीं रखती वरन रचना अपना विस्तार स्वयं तय करती है।‘ कुल मिलाकर संग्रह के माध्यम से समाज में व्याप्त विभिन्न उपादानों, कृत्यों, विसंगतियों के विविध रूपों को पाठक के सामने रखा गया है। ये वो रूप हैं जिनसे हर पाठक रूबरू होता रहता है। इस लिहाज से अशोक अपने लेखकीय दायित्व का पूर्ण निर्वाह करते हैं।
भाषा-शैली की बात करें तो अशोक भाटिया की भाषा एकदम सामान्य है, जिसमें उनके विश्वविद्यालयी दायित्व का बोध भी होता है, यानि उनके शब्दों में एक शालीनता के दर्शन होते होते हैं। वे बड़े ही सहज अंदाज में अपनी बात कहते हैं। वे किसी विशेष शैली को नहीं अपनाते। अशोक के लेखन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब की भाषा का मिश्रण देखा जा सकता है। “आज तो कई दिन हो गए”, “कई औरतें तो लडकियों का ठप्पा लेकर आती हैं”, “औरत तो सिर्फ सांचा है” ये सब एकदम आम बोलचाल के प्रयोग हैं। “मुझ बुड्ढी-ठेरी से एक बार भी पूछा.....”, ठेठ मेरठी प्रयोग है हालाकि यह हरियाणा का भी अंदाज है जो कथा में अनायास आया है। “साब वो तो पिछले महीन्ने घर और गाए-भैंस गिणन की हुई थी, इबकै धर्म अर जात का पता करण गए हैं जी।“, “छुटभैया कहीं का”, “अभी रडक बाकि थी”, यहाँ भी इसी तरह का प्रयोग है। भाटिया जी कहीं-कहीं मुहावरों का भी प्रयोग करते हैं- “औरतों की गुलामी सांसों के बल पर कायम है।“, “दूध और बेटे देखते ही देखते हाथ से निकल जाते हैं।“, “उधार मिले तो घी पीना भी मुनासिब होता है।“ अशोक की भाषा की व्यंग्यात्मकता भी उनके लेखन को ऊँचाई तक ले जाती है। एक प्रयोग देखिये-....लेकिन महंगाई मुझसे भी तेज दौड़ने लगी है......... सच मानिये, ये भाव न बढ़ते तो घर को अब तक सोना बना देता....हालाकि वह तो जन्म से ही मर रहा था...., बहरहाल, कुल मिलाकर कहा जा सकता हैं कि अशोक भाटिया की “क्या क्यूँ कैसे@लघुकथा.... ऐसे, वैसे, कैसे-कैसे का जवाब तलाशती रचनाएँ देती है। हमें यह मानना होगा कि अशोक भाटिया हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध करने में प्रयत्नशील हैं।
अशोक भाटिया ने पुस्तक रूप देते हुए इन कथाओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के वर्ष के साथ प्रस्तुत किया है, यही प्रयोग सुभाष नीरव ने भी अपनी पुस्तक “ बारिश और अन्य लघुकथाएँ” में किया। यह तरीका अशोक की रचना-यात्रा से परिचित भी कराता है। भाटिया जी किसी एक शैली का प्रयोग नहीं करते, कुछ रचनाएँ विवरणात्मक शैली में लिखी गयी हैं लेकिन अधिकांश में मिश्रित शैली (विवरणात्मक + संवाद शैली) का प्रयोग है। कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है। पुस्तकों में वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ मिलना आजकल आम बात है लेकिन प्रस्तुत संग्रह में यह बात भी अपवाद साबित हुई है। इक्का-दुक्का रचनाओ में मुझे लगा कि कहीं कहीं लेखक यथार्थ से कोसो दूर चला गया। उदहारण स्वरुप “बीच का आदमी”
(सारिका, १९८४) और “रंग” (सारिका, १९८६)), “बीच का आदमी” में प्रिंसिपल और शिक्षक नेता के बीच पीरियड लेने का कथानक चुना गया है, प्रिंसिपल अमूमन पीरियड नहीं लेते, और पहला पीरियड तो नहीं ही लेते, यहाँ प्रिंसिपल क्लर्क को फोन करके सूचना भिजवाता है, जबकि क्लर्क खुद जाकर सूचना नहीं देते, यह काम चपरासी के मार्फ़त करवाया जाता है। “रंग” में होली के दिन सब्जी लाने का जिक्र है, जो रचना को यथार्थ से कोसो दूर ले जाता है, होली के दिन सब्जी मंगाना और सब्जी बेचने वाला मिलना दोनों ही असंभावित घटनाएँ हैं, अपवाद स्वरूप भी शायद ही ऐसा मिले।
साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ भी विशेष है, विशेष इस मायने में कि यहाँ लेखक का स्वयं का चित्र चिंतामग्न मुद्रा में है, हालाकि ये कोई नया प्रयोग भी नहीं है। काश आवरण-संयोजक कुछ ऐसा करता कि आवरण पृष्ठ पुस्तक के पूरे कथ्य को न सही लेकिन कुछ प्रतिनिधि रचनाओं को अपने में समेटने का प्रयास करता। बहराल साहित्य जगत में लघुकथा लेखक अशोक भाटिया की इस पुस्तक का भरपूर स्वागत होगा इस आशा और शुभकामनाओं के साथ।
पुस्तक-“क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा”; रचनाकार- अशोक भाटिया
प्रकाशक: साहित्य उपक्रम, दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष: २०१८, पृष्ठ: ७२, मूल्य : ६० रूपये
समीक्षक : संदीप तोमर ; मोबाइल : +91 83778 75009
अशोक भाटिया जी के तीस वर्षों के लेखन में से चुनी गई 60 चुनींदा लघुकथाओं के इस संकलन की समीक्षा सहज ही बहुत ही सटीक और गंभीरता से की गई है। निःसन्देह संकलन पर की गई समीक्षा के लिये समीक्षक बधाई का पात्र है।
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