लघुकथा ही नहीं साहित्य की प्रत्येक विधा की प्रासंगिकता तब ही होगी
जब वह अपने समय के सवालों और चुनौतियों से मुठभेड़ करती हो. यद्यपि कुछ लघुकथाओं में अपने समय के सवालों और चुनौतियों पर लेखक मुठभेड़ करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं. लेकिन वे वर्त्तमान दौर के असवेदंशील और निष्ठुर समय पर चोट करने में नाकाफी है. सार्थक लेखन की तो यह अनिवार्यता ही होना चाहिए की वह अपने समय के सवालों, चुनौतियों के सन्दर्भों को साथ लेकर चले। व्यंग्यदृष्टि वाले लघुकथाकारों के लिए तो यह और भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
ब्रजेश कानूनगो |
दूसरी ओर जिन प्रयोजनों से लघुकथाएं इस समय बहुतायत से लिखी जा रही हैं उनके पीछे के कारणों में विधागत गंभीरता उतनी नहीं है जितनी कि उनके सहज प्रकाशन की संभावनाएं, कम से कम स्पेस में साहित्य की उपस्थिति का अखबारी गौरव.
संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ी संख्या में पत्र-पत्रिकाओं में इन दिनों लघुकथाओं को स्थान दिया जाने लगा है. लगभग हरेक लेखक चाहे वह किसी अन्य विधा में ही क्यों न लिखता रहा हो, इन दिनों कुछ लघुकथाएँ जरूर लिख रहा है। वर्तमान दौर में सामान्य पाठक लंबी रचनाओं की ओर कम आकर्षित होता है। जिन्दगी की तमाम समकालीन जद्दोजहद में अति व्यस्त पाठक प्रायः उपन्यास, कहानी आदि की बजाय छोटी कहानियों बल्कि लघुकथाओं को पढ़कर संतुष्ट होना चाहता है। इसी संक्षिप्तता की पाठकीय मांग के कारण पत्र पत्रिकाएं लघुकथाओं को पर्याप्त स्पेस उपलब्ध कराने लगी हैं। फिलर की तरह भी लघुकथाओं (?) का उपयोग होने से सम्पादकीय सुविधा के कारण लेखकों को भी छपने और प्रोत्साहित होने का अवसर मिलने लगा है। लघुकथाओं की बाढ़ में कितने सचमुच के जवाहरात बहाकर साहित्य के मैदान में चमकते हैं यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. अधिकांश में साहित्य विवेक बहुत कम नजर आता है। बहुत सी आज लिखी, कल समाप्त की श्रेणी की होती हैं। बहुत कम लघुकथाएं ऐसी हैं जिनमे विचारधारा, सरोकार और प्रतिबद्धता की झलक दिखाई देती हों। मेरा मानना है जिन लघुकथाओं में कि समय के सवालों और चुनौतियों पर कलम चलाई गई होती हैं वही साहित्य की स्थायी धरोहर बनती हैं, वरना अन्य का हाल भी अखबार या पत्रिका के अस्तित्व की तरह ही बहुत लघु ही होता है, जिन्हें कोई याद नहीं रख पाता। कई में अनेक तरह के दुहराव भी नजर आते हैं लेकिन इनमें से ही श्रेष्ठ लघुकथाएं निकलकर आने की संभावनाएं भी पैदा होती है.
जिस दौर में टेक्नोलॉजी का व्यापक विकास हो गया हो, स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया हो। तब लघुकथाओं में भी इनका नजर आना स्वाभाविक रूप से अपेक्षित है.
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद समाज में कई बदलाव हुए है। पाखण्ड,धूर्तताओं ,चालाकियां और सांस्कृतिक प्रदूषण के आगमन के साथ समाज का नैतिक अवमूल्यन हुआ है। बाजारवाद ने हरेक वस्तु को बिकाऊ, यहां तक कि देह, आत्मा और मूल्यों तक की बोलियां लग जाने को अभिशप्त किया है। परिवारों में रिश्तों की मधुरता और सम्मान के साथ छोटे-बड़ों के बीच का कोमल और संवेदन सूत्र टूटने लगा है। घर के बुजुर्ग हाशिये पर हैं।
दुनिया को जीत लेने की किसी शहंशाह की ख्वाहिश की तरह राजनीति के नायक-महानायक किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देते हैं। सत्ता सुख की खातिर अपने पितृ दलों को डूबते जहाज की तरह कभी भी त्याग देने में नेताओं, प्रतिनिधियों को कोई परहेज नहीं होता। असहमति किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। आश्वासन और विश्वास जुमलों की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। हिंदीभाषा और देवनागरी लिपि को नष्ट भ्रष्ट करने में उन्ही संस्थानों और अखबारों की मुख्य भूमिका दिखाई देती है जिन पर उनके संरक्षण की उम्मीद लगी रही हो।
नए समय के बहुत से नए सवाल हैं,जिन पर गंभीरता से लघुकथाएं ही नहीं अन्य विधाओं में भी रचनाएँ लिखी जाना चाहिए. इस मामले में अभी संतोष कर लेने की स्थिति नहीं कही जा सकती..लेकिन भरोसा जरूर किया जा सकता है कि ऐसा अवश्य होगा...वर्त्तमान परिदृश्य में लिखी जानेवाली लघुकथा की प्रासंगिकता और प्रयोजन के सन्दर्भ में यही बड़े तत्व अपना उत्तर तलाशते दिखाई देते हैं. जिनमें इनकी थोड़ी भी आश्वस्ति मिलती है विधा के स्तर पर वे लघुकथाएं निजी तौर पर मुझे संतुष्ट करती हैं।
बृजेश जी ने महत्वपूर्ण सवाल उठा कर एक आशा की ज्योति जलती देखी है, आमीन!
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