दोस्तो, 'लघुकथा साहित्य' पर आज से एक नयी शृंखला शुरू…
'लघुकथा कलश-4' रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से कुछ चुनी हुई रचना-प्रक्रियाएँ। इनका चुनाव मेरा है और इन्हें उपलब्ध करा रहे हैं भाई योगराज प्रभाकर। अनुरोध है कि शनै: शनै: आने वाली इन रचना-प्रक्रियाओं को समय निकालकर धैर्य के साथ इन्हें पढ़ें और इन पर अपने विचार, सहमति-असहमति अवश्य रखें। ये सभी रचना-प्रक्रियाएँ आपको सीखने की कला से सम्पन्न करेंगी।
एक बात और… ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।
तो शृंखला की पहली प्रस्तुति के रूप में पेश है, पृष्ठ 161-163 से मुम्बई निवासी श्री मनन कुमार सिंह की रचना प्रक्रिया उनकी लघुकथा 'लकीरें' के सन्दर्भ में। पहले लघुकथा 'लकीरें'
मनन कुमार सिंह |
“क्या कर रहे हो?”
“समाधान ढूँढ़़़ रहा हूँ।”
“कैसा समाधान?”
“तेरे नहीं बिखरने का।”
“यह नियति है। हम टूटकर धरती पर आते हैं। जितना हो सके, उजाला फैलाते हैं।”
“मैं वही रोशनी ढूँढ़़़ रहा हूँ, जो भटके
हुए को रास्ता दिखाए।”
“शाबाश! देखो,
मैं वह ज्योति-पुंज हूँ। भूले को राह
दिखाता हूँ, ख़ुद को मिटाकर, औरों को
नहीं।”
“मैं भी ख़ुद को अपने शब्दों में मिटा रहा हूँ। रोशनी होगी क्या? ”
“अवश्य होगी मेरे अदबकार, अवश्य होगी। मन-मस्तिष्क के
मेल का खेल जारी रखो।”
“ज़रूर। मैं समाधान मिलने तक इस हेतु अपने शब्द-बीज बोता रहूँगा मेरे
भाई!”
“आमीन!” टूटा तारा बोला और अनंत में विलीन हो गया।
•••••
और अब 'लकीरें' से जुड़ी प्रक्रिया बकलम मनन कुमार सिंह…
मैंने महसूस किया है कि स्वतः लिखने, चाहे वह किसी पूर्व नियामित विषय पर हो या लेखन के प्रवाह में विषय ख़ुद प्रकट हो जाए, और किसी सुझाए हुए विषय पर लिखने में कुछ अंतर होता है। कभी-कभी कुछ स्फुरित होने लगता है जिसे मैंने हमेशा ही समेटने का प्रयास किया है। और अब तक चाहे जितनी ग़ज़लें हों, कविताएँ हों, सभी उस अव्यक्त से व्यक्त (रूप में ) स्फुरण ही हैं मेरे लिए। ऐसा इसलिए है कि जाने कैसे मैं लिख लेता हूँ, पता नहीं चलता। यदि गुस्ताख़ी माफ़ हो, तो इतना भी कहने का साहस रखता हूँ कि कभी कोई (अपनी) रचना सामने पड़ी है, तो मुझे ख़ुद ही आश्चर्य हुआ है कि आखिर कैसे मैं इसे अंजाम दे सका हूँ। इसका मतलब यह कभी नहीं है कि वह कथित रचना बहुत उम्दा किस्म की है या हो सकती है। बस मुझे लगा कि यह रचना मुझसे कैसे संभव हुई? कभी-कभी तो मैं आशंकित भी हुआ कि यह कहीं किसी अन्य लेखक/शायर की विरासत तो नहीं। पर छानबीन के उपरांत भरोसा ट्ठायम रहा कि यह मात्र मेरी आशंका थी, कुछ अन्यथा नहीं। हाँ, इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि वह या वैसी अन्य रचनाएँ स्वतः स्फूर्त श्रेणी की हैं। पहले से विषय तय होने पर भी कुछ अच्छा लिख लेता हूँ कभी-कभी, ऐसा मुझे लगता है। कभी सुधीजनों की टिप्पणी मार्गदर्शन करती है या आश्वस्ति प्रदान करती है। अब बात आती है इस लघुकथा की। ओपन बुक्स ऑनलाइन पर लघुकथा गोष्ठी में ‘समाधान’ विषय पर मैं लघुकथा लिखना चाहता था। अपनी पढ़ाई और डिग्री वाली चिकित्सा-पद्धति जिसे ‘बैच फलावर चिकित्सा पद्धति’ कहा जाता है, के संदर्भों और उससे प्राप्त या संभावित स्वस्थ्य-समाधान के बारे में मैं इस मंच पर एकाधिक लघुकथाएँ पोस्ट कर चुका था। उन्हें दुहरा तो नहीं सकता था। तब चिंतन के तन्तु नर-नारी के परस्पर संबंधों से संचालित इस गतिमान सृष्टि की समस्याओं और संभावनाओं की ओर इंगित करने लगे। रोशनी का प्रादुर्भाव, फिर घटाटोप अँधेरा आदि स्थितियाँ दृश्य-पटल पर स्पष्ट होने लगीं कि किस तरह व्यक्ति इस धरती पर आने के बाद अपने मन-मस्तिष्क का संतुलन खोने लगा होगा। जो अपना नहीं है, उसे वह अपना समझकर लड़ने-झगड़ने लगा होगा। अपनी समृद्धि और अपने साम्राज्य (दायरा) को विस्तृत करने के लिए उसने औरों को ग़ुलाम बनाना शुरू किया होगा और ख़ुद अपनी प्रवृत्तियों का ग़ुलाम बनकर रह गया होगा। उसने इतने पैर पसार लिए होंगे कि अब सिकोड़े भी नहीं जा रहे और लड़ाई, मारकाट जारी है। टूटता तारा अदबकार को हौसला देता है कि त्याग और बलिदान से ही सृजन होता है। वह अपने नव-सृजन के महती कार्य में अविरल जुटा रहे। उसे सफलता मिलेगी। खोई हुई रोशनी पुनः अवतरित होगी। अदबकार अपने शब्द-बीज यानी अपनी प्रतिबद्धता को लोक-कल्याण और नवसृजन को समर्पित करते रहने का बीड़ा उठा लेता है।
अब रही बात रचना के स्फुरण की या इसके नामकरण यानी शीर्षक के चयन की, तो इसकी बाबत इतना ही कह सकता हूँ कि शीर्षक तो पूर्व निर्धारित था। उसी पर केंद्रित होकर शब्दों को संजोना था। हाँ, कोई अन्य शीर्षक भी हो सकता था, जो इस रचना और इसके शीर्षक के भाव को प्रकट करता। परंतु यहाँ पहले से सुझाए गए शीर्षक को उसके भौतिक रूप में अंगीकार कर लिया गया।
अब रचना की प्रक्रिया पर आते हैं। भाव-संयोजन हो चुका था। मसलन आज जो मारामारी, छीनाझपटी की स्थिति बनी है, यही रचना के मूल में होनी थी। इस अवांछित परिणाम का निदान चाहिए था, जिसकी तलाश थी। क्या करना चाहिए जिससे आज जो उद्विग्नता, परमुखापेक्षिता या यूँ कहें कि परवशता की प्रबलता है, उससे निजात मिल सके। आदमी अपने कर्म की ओर उन्मुख हो। वह किसी की दी गई खैरात को हराम समझने लायट्ठ बन सके। मुझे कुछ चाहिए, तो मैं उसका अर्जन करने की जुगत में लगूँगा, ऐसा वह सोचना शुरू करे और करे भी। मु०त में मिली वस्तु उसे निकम्मा ही बना सकती है, और कुछ नहीं। ऐसी प्रवृति के हामीदारों को उभारना, उन्हें अभिव्यक्ति का मौट्ठा देना इस रचना के मूल तत्त्व होने थे।
अभिव्यक्ति पात्रों के माध्यम से होती है। तो खोज प्रारम्भ हुई कि कौन-कौन इस लघुकथा में निहित भावों के संवहनकर्ता होंगे। कथा के तथ्य और कथ्य को उसे जीने वाले पात्र सीधे तौर पर उद्बोधित करें या अलग से एक या एकाधिक पात्र/चरित्र हों, जो लघुकथा के मुख्य पात्रों का परिचय देते चलें या उनके बारे में पाठकों को बताएँ। जैसे कभी कभी कथाओं में पढ़ा- सुना जाता है कि -मैं वक़्त हूँ। चलते रहना मेरी नियति है। यहाँ वक़्त ही कथा का पात्र है। वह अपने बारे में कहते हुए पूरी कथा, यहाँ लघुकथा कह डालता है। उसी के जैसे कोई अन्य पात्र भी हो सकते हैं; जैसे हवा, पानी वगैरह। यहाँ परस्पर कथोपकथन में वही शरीक होते हैं। कथा के भाव को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते हैं। पात्रों के चित्रकार होते हैं। उनके चरित्रगत गुणों को उभारते हैं। कथा के लक्ष्य की तरफ़ इंगित करते हैं। कभी-कभी मुख्य पात्र भी परस्पर कथोपकथन के माध्यम से कथा कह डालते हैं। इस तरह बहुत सारे विकल्प खुले थे। कभी मेरा मन होता था कि लघुकथा के जो मूल पात्र हों, वे ही कथा को आगे बढ़ाएँ। कभी ट्टवाहिश होती थी कि कथा में दो तरह के पात्र हों, जैसा कि ऊपर कहा गया है। फिर मन होता था कि लघुकथा को वार्तालाप शैली में लिखूँ। मस्तिष्क कहता था कि कथात्मक शैली कारगर होगी। भर महीने ऊहापोह की स्थिति क़ायम रही। मैंने भी समय और मनःस्थिति के निर्णय पर लघुकथा की रचना को छोड़ दिया था। हाँ, दिमाग़ में हमेशा ही यह बात क़यम रही कि उक्त शीर्षक पर एक लघुकथा होनी ही चाहिए जिसे ओपन बुक्स ऑनलाइन पर पोस्ट करना है। अंततोगत्वा, एक दिन मेरे आफ़िस जाने के क्रम में मुंबई लोकल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में इस लघुकथा का प्रादुर्भाव होना शुरू हुआ। बाईस मिनटों की यात्रा ख़त्म होते-होते यह लघुकथा मोबाइल के नोटबुक में दर्ज हो गई थी।
अब जहाँ तक ड्राफ्ट लिखने और उसे बदलने की बात है, तो ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं जिसका मैं यहाँ बखान कर सकूँ। हो सकता है यह मेरी तरफ़ से रचना-कर्म के क्रम में त्रुटि हो रही होगी, पर हक़ीक़त तो यही है, जिससे मैं मुकर नहीं सकता। हाँ, उस मंच पर इसके पोस्ट हो जाने पर एकाधिक वर्तनीजनित कमियाँ दृष्टिगोचर हुई थीं, जिन्हें गुणीजनों के द्वारा इंगित किए जाने के पश्चात ठीक किया गया था। ऐसा प्रायः मोबाइल में लिखने पर हो जाया करता है। और तब और ज़्यादा ऐसी भूलों की संभावना रहती है, जब मुंबई लोकल में सायन स्टेशन पर सवार हों, और बाईस मिनटों के उपरांत छत्रपति शिवाजी महाराज स्टेशन पर उतरने की तैयारी करनी हो। ऐसा इसलिए कहना मुनासिब है, क्योंकि इन ट्रेनों का प्रथम वर्ग हो या द्वितीय, सबकी हालत समान रहती है भीड़ के मामले में। हाँ, प्रथम श्रेणी में इतनी सहूलियत हुआ करती है कि उसमें तीन की सीट पर तीन ही लोग बैठते हैं। द्वितीय श्रेणी की तरह तीन की जगह चार-पाँच लोग नहीं बैठते। इसलिए प्रथम दर्जा पढ़ाई-लिखाई के लिए उपयुक्त लगता है।
अंततोगत्वा, मैं इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि प्रतीक के तौर पर लकीरें प्रयुक्त हुईं। लकीरें इस मायने में यहाँ प्रतीकात्मक लगीं कि उनका खींचा जाना बड़ा आसान है। यह उतना ही आसान है जितना अपने हिंदुस्तान में आबादी का बढ़ जाना। और आगे चलें तो अपने यहाँ या यूँ कहें कि पूरे भूमंडल पर ही आदमी अपनी-अपनी लकीरें खींचने को आमादा है। मेरी लकीर औरों से बड़ी हो, यह मुख्य मुद्दा हो चला है। लकीरें, मतलब हठधर्मिताः ऐसी हठ-परंपरा जिसके चलते एक व्यक्ति दूसरे की बात सुनना गवारा नहीं कर रहा। जो कह दिया, सो कह दिया। अब कोई फेर-बादल क्यों करूँ अपनी युक्ति या घोषणा में, यह धारणा बलवती हो चलाई है। प्रसंग पर आते हुए इतना ही कह सकता हूँ कि लकीरें (आदमी) रोशनी का रूप बनकर इस धाराधाम पर आविर्भूत हुआ, पर कालांतर में घुप-अँधेरे का मुहाफ़िज़ होता चला गया। उसे पता ही नहीं चला कि वह जिस राह पर चला जा रहा है, वह उसके लिए परवशता का मार्ग खोलती है, उसकी विवशता सुनिश्चित करती है। कुछ पाने के पहले कुछ देने की प्रवृति होनी चाहिए। इसीलिए अदबकार कहता है कि जैसे कोई तारा टूटते हुए भी प्रकाश बिखेरता है, वह भी अपने शब्दों के बीज बोकर उजाले का आह्वान करेगा, और कर भी रहा है। मसलन, वह अपने शब्दों का इस्तेमाल सोए लोगों को जगाने-झकझोरने में करेगा, जागे लोगों को सुलाने ले लिए नहीं।
सम्पर्क—मनन कुमार सिंह, भारतीय स्टेट बैंक, सेम जी, मेकर टॉवर, ‘ई’ विंग, 21 तल्ला, कफ परेड, मुम्बई-400005
—योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल—98725 68228
नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे डाक खर्च सहित 300₹ मात्र (इस अंक का मूल्य 450₹ है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।
नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे डाक खर्च सहित 300₹ मात्र (इस अंक का मूल्य 450₹ है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।
रचना और रचना प्रक्रिया को मान देने के लिए हार्दिक आभार श्रद्धेय बलराम जी।
ReplyDeleteरचना और प्रक्रिया को मान देने के लिए श्रद्धेय बलराम जी का आभार।
ReplyDelete