॥ 1॥ आस्था
अपने चौर्य-कर्म से पहले
ईश्वर-आराधना उसके लिए जरूरी थी, ताकि भगवान की कृपा से वह अपने कार्य में सफलता
प्राप्त कर सके। सही मौका देखकर एक रात वह चारदीवारी फाँदकर मंदिर में जा घुसा और सोने
के फ्रेम में जड़ी भगवान की तस्वीर के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
हरिपाल त्यागी |
‘फ्रेम में सोने की मात्रा आधा किलोग्राम से कम तो नहीं होगी।’—उसने
अनुमान लगाया; और मन ही मन प्रार्थना की :
‘प्रभु, अपने पेशे की
मजबूरी के कारण फिलहाल मैं आपकी खास इज्जत नहीं कर पा रहा हूँ, इसके लिए मुझे क्षमा
करेंगे और मुझे मेरे कार्य में सफलता का वरदान भी देंगे। प्रभु, आप से क्या छुपा
है, आप तो अंतर्यामी हैं।’
चोर ने भगवान को अभय-मुद्रा में सीने पर हाथ उठाये देखा। इसके
बाद उसने तस्वीर को फ्रेम से अलग किया और सिर्फ फ्रेम को ही अपने काम की चीज समझा।
जब वह चलने को हुआ, तभी शंख-घंटे-घड़ियाल बजाते हुए भक्तों का दल मंदिर के द्वार पर
आ पहुँचा।
चोर ने घबराकर अपनी गरदन फ्रेम में डाल दी। पद्मासन लगाकर वह
वहीं एक स्तंभ से सटकर बैठ गया।
वह दिन था और आज का दिन है, चोर उसी स्थान पर डटा हुआ
मूर्तिमान है; लेकिन आस्थावान लोग हैं कि उसी की पूजा करते आ रहे हैं।
॥ 2 ॥ दामाद
वह एक चोर था, पर था बहुत
शातिर। कई दिनों से एक घर के आस-पास चक्कर लगा रहा था। असल में, मकान की खिड़की पर
एक लड़की पढ़ाई करती थी। उसे खिड़की से बाहर के दृश्य बहुत प्रिय थे। उन्हीं दृश्यों
में एक मानव-आकृति भी शामिल हो गयी जो उसी चोर की थी।
तुम कौन हो और यहाँ क्यों घूमते रहते हो/ लड़की ने पूछा।
चोर ने बिल्कुल झूठ नहीं बोला। उत्तर में एक पुराना फिल्मी गीत
गा दिया—
मैं चोर हूँ काम है चोरी, दुनिया में हूँ
बदनाम,
दिल को चुराने हूँ मैं आया, यही है मेरा
काम।
कुछ दिनों बाद ही चोर लड़की को उड़ा ले जाने में कामयाब हो गया।
यही नहीं, लड़की को आगे करके उसने उसके पिता से जरूरी सामान की माँग भी की। बेटी की
सुख-सुविधा को ध्यान में रखते हुए लड़की के माता-पिता ने आपस में सलाह करके चोर की
माँग स्वीकार कर ली। अब वह, इस घर का सम्मानित ‘दामाद’ जो था।
॥ 3 ॥ उसका ठिकाना
मंदिर वाली गली के नुक्कड़ पर
वह अचानक मुझसे टकरा गया। घुप्प अंधेरे की वजह से मैं उसे ठीक-से पहचान नहीं पाया;
लेकिन शायद उसने मुझे पहचान लिया था, वर्ना वह भागते-भागते ठिठकता क्यों?
“ओह, सॉरी!” उसने अपनी उखड़ी साँस को सम पर लाते हुए कहा, “मैं
मुसीबत में हूँ… वे मेरे पीछे पड़े हैं… मुझे छुपने के लिए जगह चाहिए, और आपा मेरी
रक्षा कर सकते हैं!”
“लेकिन आप हैं कौन? …और कौन हैं वे लोग, जो तुम्हारे पीछे पड़े
हैं?”
“यह समय सवाल-जवाब का नहीं है। जल्दी-से मुझे… !”
अँधेरे में भौतिक चक्षुओं के बजाय मैंने अंतर्दृष्टि से काम
लेना शुरू किया। तब उसकी एक झलक मिली—वह दीवाली के कैलेंडर से प्रकट हुआ किसी
पुराने राजसी घराने का मालूम होता था। मुझे उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा।
फिर भी, वह किसी तयशुदा चेहरे से मेल खाता नहीं लग रहा था। बदली हुई कल्पना की उपज
ही था।
फिलहाल वह
बदहवास और काफी घबराया हुआ था। लगा, कि आदत के अनुसार, उसने कुछ मुस्कराने की
कोशिश की है। लेकिन यह मेरा भ्रम भी हो सकता था। आखिर संकट की ऐसी घड़ी में कोई
मुस्करा कैसे सकता है!
मैं उसे
लेकर अपनी चित्रशाला की तरफ मुड़ा। मन में डर था, कि कहीं यह आतंकी न हो!… या फिर,
कैदखाने से फरार कोई संगीन मुजरिम भी हो सकता है… या… या…।
दिमाग ठीक-से
काम नहीं कर पा रहा था। मैं सोच नहीं पा रहा था कि क्या उचित है, क्या अनुचित?
दूर, गली में, धप्-धप् के साथ शोर-गुल बढ़ रहा था। वे उसी भगोड़े की खोज में
धमा-चौकड़ी मचा रहे थे।
आखिरकार,
दुनियाभर की नजरों से बचता-बचाता मैं उसे अपनी चित्रशाला तक ले आने में कामयाब हो
गया। अब वह नये कला-रूप में मेरे चित्रों में छुपा है।
और लोग हैं
कि गली-मुहल्लों के, मंदिरों-मस्जिदों के चक्कर काटते फिर रहे हैं!
मो 88600 78079
very beautiful stories
ReplyDelete