कथाकार चित्रा मुद्गल |
डॉ लता अग्रवाल की वरिष्ठ—कथाकार श्रीमती चित्रा
मुद्गल जी से बातचीत [वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल ने आठवें-नौवें दशक में काफी लघुकथाएँ लिखीं जो कथा-पत्रिका 'सारिका' आदि में स्थान पाती रहीं। उनकी लघुकथाओं का संग्रह 'बयान' सन् 2003 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। एक सफल
उपन्यासकार के रूप में विख्यात होने के बावजूद चित्रा जी के विचार में 'लघुकथा' महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कथा-विधा है। पिछले दिनों भोपाल निवासी डॉ॰ लता अग्रवाल ने उनसे लघुकथा से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर बात की थी, जो योगराज प्रभाकर जी के संपादन में इसी माह छपकर आई अर्द्धवार्षिक लघुकथा-पत्रिका 'लघुकथा कलश' में प्रकाशित हुई है। उस पूरी बातचीत को हम साभार यहाँ शेअर कर रहे हैं।—बलराम अग्रवाल]
डॉ लता अग्रवाल - कहा जाता है सुंदर स्त्री से गुफ्तगू करने का नाम ग़जल है। इसी तर्ज पर आप लघुकथा के लिए एक पंक्ति में क्या कहेंगी ?
दायें से —श्रीमती चित्रा मुद्गल, श्रीमती लता अग्रवाल, श्रीमती ममता कालिया |
चित्रा मुद्गल जी – ‘किसी भी व्यक्ति के मन का अंतर्द्वंद है : लघुकथा|’ लघुकथा वो बैचेनी है, वो पीड़ा है जो दूसरों को यंत्रणा में देखकर उभरती है |
अगर वो उस पीड़ा को व्यक्त करने के लिए शब्दों के गली-गलियारों को नाप सकता है तो
वो बहुत कम शब्दों में लिखी जाने वाले लघुकथा को, उसकी दृष्टि को इतना विस्तार दे सकता
है कि उसे पढ़ते हुए किसी भी पाठक को यह महसूस हो कि लेखक ने तो उसके अंतर्मन के
दर्द के कई-कई मीलों के सफर को तय कर लिया है |
डॉ लता अग्रवाल – आपने
अपने उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रत्येक विराम चिन्ह पर जोर दिया;
इसी से एक प्रश्न ज़ेहन में आया—लघुकथा बहुत संक्षिप्त में कहने की विधा है। तो क्या इसके सम्प्रेषण में विराम-चिन्हों की कोई भूमिका है ?
चित्रा मुद्गल जी – निश्चित| जब हमें अपनी दृष्टि को शब्दबद्ध करना है, उसके आयामों को भी उसके अंदर समाहित करना है अथवा समाहित करने की चेष्टा
करना है तो विराम चिह्न आवश्यक है ताकि वह लघुकथा की बह-आयामिता को समेट सकें, उसे
व्याख्यायित कर सकें, कठौती में गंगा की तरह |
डॉ लता अग्रवाल – कहानी
और उपन्यास में रचनाकार अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाता है; किन्तु कहते हैं—लघुकथा में
कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं होता। आपकी
इस सम्बन्ध में क्या राय है ?
चित्रा मुद्गल जी – ऐसा नहीं है। कल्पना के बिना यथार्थ को
आप रख नहीं सकते | जो सत्य आप देख रहे हैं, जब उसे लिखेंगे तब आप उस स्थान को, उस
दृश्य को छोड़ चुके होंगे; साथ ही, जो घट गया है उससे जो एक दृश्य, एक तड़प, एक सम्वेदना
आप में उपजती है, उसे लेकर आप उस घटना को मानवीय कल्पना के साथ ही न रचेंगे | तब
हमें नहीं पता वह पात्र कहाँ का है? हम
लिखते हैं उसके नाम को, उसके स्थान को... उसके परिवेश को रचते हैं; वह हमारी कल्पना ही
तो है| हम उस सम्भावना, उस द्वन्द को कल्पना के बल ही रचते हैं जिसे हम नहीं
जानते | कल्पना यथार्थ के बगैर एक कदम नहीं चल सकती |
डॉ लता अग्रवाल – लघुकथा
में तथ्य और कथ्य के तादात्म्य को आप किस तरह परिभाषित करेंगी ?
चित्रा मुद्गल जी – तथ्य में कथ्य तो रहेगा, मगर कथ्य में तथ्य
रचनाशीलता को अलग सरोकारों से लेजाकर जोड़ेगा | तथ्य ही कथ्य नहीं है, वैसे कथ्य ही तथ्य नहीं
है | दोनों की अपनी स्वतंत्र सत्ता है, दोनों ही अभिव्यक्ति के लिए बराबर की भूमिका
का निर्वाह करते हैं |
डॉ लता अग्रवाल –
साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है, यह भी कहा जाता है कि दर्पण कभी झूठ नहीं
बोलता | फिर किसी कथ्य को सकारात्मक मोड़ देना क्या उस दर्पण पर आवरण डाल देने जैसा
नहीं?
चित्रा मुद्गल जी – तुम्हारे इस प्रश्न
को मैं दो भागों में विभाजित करती हूँ | प्रथम – रचनाकार व्यवस्था के जिस
प्रभाव से गुजर रहा है, उसका अनुभव; चाहे वह समाज को लेकर हो या व्यक्तिगत को यानी निज को; उसका उद्वेलन जब रचनाकार को लेखन हेतु बेचैन करता है, तो वह कभी यह नहीं सोचता कि
उसे दुखांत लिखना है या सुखांत | लेखन नहीं चुनता कि मुझे सुखांत होना है या
दुखांत | यदि वह रचनाकार है तो मान्यता की चादर ओढ़कर उसके अनुशासन में कभी बंधकर
नहीं लिखेगा |
द्वितीय - दर्पण की बात; जो
समाज में घट रहा है वह साहित्य में भी घट रहा है, लेखक का दायित्व है कि उसके आगे
जाकर सृजन करे, उसे समाज से जोड़े|
सम्भावना तलाश करे, अपवाद ही सही, अगर वह सत्य है तो बयाँ किया जा सकता है क्योंकि कथा तो वहाँ भी बनती है| डॉ लता अग्रवाल –
लघुकथा में आप संवेदना को कितना आवश्यक मानती हैं ?
चित्रा मुद्गल जी – सम्वेदना के बिना लघुकथा अपने सम्प्रेषण को पूरी तरह से
नहीं जी सकती | मानवीय मनोविज्ञान के आधार पर रचनाकार एक बेहतर समाज की कल्पना
करता है और बेहतर समाज सम्वेदना के बिना
असम्भव है |
डॉ लता अग्रवाल –
वर्तमान में लघुकथा के क्षेत्र में स्त्री लघुकथाकार और स्त्री लेखन पर आपके विचार
जानना चाहूँगी ?
चित्रा मुद्गल जी – यद्यपि दोनों अलग-अलग प्रश्न हैं किन्तु इस
सम्बन्ध में मेरा एक ही उत्तर पर्याप्त होगा। आज मुझे एहसास हो रहा है कि
स्त्रियाँ अपनी गृहस्थी की जद्दोजहद में लगी होकर भी अपनी सृजनात्मकता की तड़प
लघुकथा विधा को सौंप रही हैं| इतनी बड़ी मात्रा में स्त्रियों का एक साथ इस परिमाण
में आना मैं मानती हूँ बहुत-बहुत शुभ संकेत हैं |
डॉ लता अग्रवाल – लघुकथा
में क्या नये पिलर खड़े किये जाने की आवश्यकता आप महसूस करती हैं ?
चित्रा मुद्गल जी – नये पिलरों, नई भितियों, स्तम्भों की हमेशा से
ही आवश्यकता रही है और रहेगी, अन्यथा लघुकथा एक सीमा तक बढ़ने के बाद काल कवलित हो जाएगी| इसलिए निरंतर नई पीढ़ी
को सक्रिय होना चाहिए, उनका स्वागत होना चाहिए| बस उन्हें लघुकथा और चुटकुलों के
अंतर को गंभीरता से जानने की आवश्यकता है| वो पढ़ें, अपने वरिष्ठ साहित्यकारों के
लेखन से मार्गदर्शन लें, उन्हें अमृतलाल नागर, प्रभाकर श्रोत्रिय, राजेन्द्र यादव
आदि को पढ़ना चाहिए कि कैसे सामाजिक सरोकारों को उन्होंने लघु दायरे में समेटा है
ताकि वे चेतना सम्पन्न हो सकें | विधा की सशक्तता को समझते हुए उन्हें अपने दृश्य,
कल्पनाशीलता सृजनात्मकता के अनुसार उसे
रचना होगा |
डॉ लता अग्रवाल – लेखन
अन्तस् की प्रेरणा से उपजता है, आप इस बात से कितनी सहमति रखती हैं ?
चित्रा मुद्गल जी - तुम्हारे इस सवाल को लता, मैं इस तरह कहना चाहूँगी—जो लेखक है, वह अपने इर्द–गिर्द का कार्यक्षेत्र जहाँ लम्बा समय बीतता है—परिचित, अपरिचित चेहरों को अपने सामने उधड़ता हुआ देखता है तो उसे अचरज होता है ,
कितने चेहरे हैं जिन्हें पढकर वह चकित हो जाता है, यह मनोविज्ञान उसे उद्वेलित
करता है लिखने को। जिस यथार्थ से उसका सामना होता है वह उसकी चेतना को सन्निध करता है उसके खिलाफ लिखने के लिए| लेखक को प्रेरणा वो चीखें देती हैं, वह
मनोविज्ञान देता है, उसके अपने अनुभव के
माध्यम से उसके शब्द उसे पुकारते हैं जो उसे कलम उठाने को विवश कर देते हैं| और
आपने वो दुनिया नहीं देखी है उसमें रहने वाले लोगों को नहीं देखा है तो आपकी
अन्तस् प्रेरणा कुछ नहीं कर सकती | आपका लेखन भी पाठकों के दिलों को प्रभावित नहीं कर सकता | लेखन ऐसा हो
कि पाठक कहे कि आपने तो उसके दिल की बात कह दी |
डॉ लता अग्रवाल – शिल्प
लघुकथाकार का स्वतंत्र लोकतंत्र है अर्थात कथाकार अपने कहन के लिए कोई भी शैली,
कोई भी शिल्प चुन सकता है। क्या आप इसके लिए कोई नियम आवश्यक मानती हैं ?
चित्रा मुद्गल जी – नहीं; इसमें कोई नियम नहीं। आप किसी दृश्य से
छोटी-सी बात को बहुत गहराई से व्यक्त करना चाहते हैं तो वह आप किसी भी शिल्प में लिखें, बस आपके कहन में संवेदना, विषय का गाम्भीर्य, द्वंदात्मकता को संजीदगी के साथ
संप्रेषित करने की क्षमता होनी चाहिए, अन्यथा बात बनेगी नहीं। कहाँ किस बात की
कितनी जरूरत है वह शिल्प ही तय करेगा| शिल्प अपने आप कोई भी लघुकथा स्वयं तलाशती
है कि किस रूप में वह अपनी ढाल को, आवेगात्मकता को संप्रेषित करेगी | कथाकार को लगता है—वह किस शैली में अपनी बात
प्रभावित ढंग से कह सकता है। इसके लिए वह स्वतंत्र है |
डॉ लता अग्रवाल – ऐसे
कौन से विषय हैं जिन्हें आप समझती हैं कि वे लघुकथा से अछूते रह गये हैं या फिर उन
पर और काम करने की आवश्यकता है ?
चित्रा मुद्गल जी - इधर मैं एक बात बहुत गहराई से महसूस कर रही हूँ,
कि स्त्री–पुरुष सम्बन्ध, भ्रष्टाचार,
शोषण, दमन, जनसाधारण के बुनियादी हक़ की पैरवी में बहुत लघुकथाएँ लिखी गई हैं |
इसमें संदेह नहीं कि लघुकथा ने विस्तृत फलक को अपने में समेटा है | मुझे लगता है कि जो
परिवर्तन समाज, राष्ट्र और वैश्विक स्तर
पर हो रहे हैं, साथ ही जो देश और समाज को
प्रभावित कर रहे हैं, जो भूमण्डली करण हो
रहा है, इसके चलते उपभोक्तावाद
गहरे अपनी जड़ों में स्थान पा रहा है | मेरा आशय है—हमारे
जो परम्परागत मूल्य रहे हैं, परम्परागत संवेदना रही है, रिश्तों की संवेदना रही है
उसमें व्यक्तिवादिता प्रवेश कर गई है | वो सम्बन्ध सतही हो गये हैं | जिन माता-पिता ने अपनी जीवन-पूंजी खोकर बच्चों के जीवन को संजोया, उन्हीं बच्चों के जीवन में
माता-पिता के लिए कोई कोना सुरक्षित नहीं |
यह मानसिक शोषण है, मनोवैज्ञानिक शोषण है। मुझे लगता है कि इसे और अधिक वैश्विक
दबाव, गहराई के साथ प्रस्तुत करने की
आवश्यकता है | इस पर परिवक्व और चैतन्य दृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है| आज
जिन सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, सभ्यता और परम्परा के टूटने की कगार
पर जो हम खड़े हुए हैं, इस पर गहराई से सोचने की आवश्यकता है |
दूसरी चीज है - आर्मी, एयरफोर्स, सैनिक जीवन पर, उसने कहा था
या शैलैश मटियानी की कुछ कहानियां हैं जो
सैनिक जीवन को लेकर लिखी गईं हैं, मगर लघुकथा में अभी नहीं के बराबर काम हुआ है। आवश्यकता है उनके व्यक्तित्व और कृतित्व, उनकी पत्नी, परिवार, बच्चों के जीवन की
जटिलताओं को लेकर लघुकथा लिखी जानी चाहिए
| अपनी मुट्ठी में सूर्य को उतारने की क्षमता रखती है लघुकथा | मुझे लगता है हम इस बहाने समाज को उनके जीवन की
गहराई से जोड़ सकेंगे | ऐसे लघुकथाकार जो इस जीवन से परिचित हैं वे लिखें। कहीं न
कहीं लघुकथा के अनुभव विस्तार, उसकी सर्वंगीनता के लिए यह बहुत आवश्यक है |
डॉ लता अग्रवाल – लघुकथा
चरित्रांकन है या चित्रांकन अथवा दोनों ?
चित्रा मुद्गल जी – लघुकथा सब-कुछ है। कोई लघुकथा ऐसी हो सकती है जिसमें चरित्रांकन है, कोई ऐसी हो सकती है जो
चित्रांकन हो, या दोनों भी; इसे किसी परिधि में बंधकर मैं नहीं देखती | यह तो रचनाकार
की प्रयोगधर्मिता एवं रचनाशीलता पर निर्भर
है |
डॉ लता अग्रवाल – साहित्य
का एक प्रयोजन अर्थ प्राप्ति भी है। जिस तरह कविता, ग़जल के लिए व्यावसायिक मंच
हैं क्या लघुकथा को वह मुकाम हासिल हो पायेगा ?
चित्रा मुद्गल जी - क्यों नहीं, बिलकुल हो सकता है | हमने कभी कोशिश
नहीं की| कवि सम्मेलन की तरह गाँव - गाँव, शहर–शहर लघुकथा सम्मेलन किये जायँ, उसकी
रिपोर्टिंग हो तो आप देखिये आयोजक इस ओर लालायित होंगे; कुछ स्पांसर भी मिल ही
जायेंगे जो लघुकथाकार के आने-जाने का भत्ता तो निकाल ही लेंगे |
हाल ही में इंदौर के कार्यक्रम में उद्घाटन सत्र में जब हम मंचासीन थे
सभी को १५ मिनिट दिए थे | किसी ने कहानी, किसी ने उपन्यास के अंश सुनाये | मेरे
समय मैंने उन्हें कहा—मैं १५ मिनिट नहीं, केवल ३ मिनिट लूंगी और मैंने अपनी लघुकथा
‘बयान’ सुनाई। सब स्तब्ध थे | कहने का तात्पर्य—हमें समझना होगा कि लघुकथा सामर्थ्य में
कहीं से कम नहीं, उसकी ताकत कहानी, कविता, उपन्यास अंश… किसी से कम साबित नहीं हुई
|
डॉ लता अग्रवाल – कभी कभी देखने
में आता है कि अच्छी, पकी लघुकथा उचित शीर्षक के अभाव में निष्प्रभावी हो जाती है |
इसके लिए लघुकथाकार क्या करे ? इस सम्बन्ध
में आपका मार्गदर्शन चाहूंगी |
चित्रा मुद्गल जी – लघुकथाकारों से मेरा कहना है कि अगर आप
लघुकथा रच सकते हो तो शीर्षक क्यों नहीं रच सकते | सोचिये—एक, दो, तीन बार… कोई न
कोई शीर्षक आप बना ही लेंगे जो उस लघुकथा को दृष्टि दे |
डॉ लता अग्रवाल – लघुकथा के भविष्य को लेकर कुछ संदेश
देना चाहेंगी ?
चित्रा मुद्गल जी – यही कि लघुकथा सहज हो सकती है मगर इसकी सृजन
प्रक्रिया बहुत गम्भीर है | लघुकथा का जमाना न कभी लदा था न कभी लदेगा | आज लघुकथा
अपने सीमितता से बाहर निकलकर आ रही है | शीघ्र ही यह विधा अपनी समृद्धता के साथ
परचम लहराएगी | साक्षात्कार कर्ता—डॉ लता अग्रवाल, 73, यश विला
भवानी धाम, फेस-1, नरेला शंकरी, भोपाल–462041 / मो – 9926481878
वो पढ़ें, अपने वरिष्ठ साहित्यकारों के लेखन से मार्गदर्शन लें, उन्हें अमृतलाल नागर, प्रभाकर श्रोत्रिय, राजेन्द्र यादव आदि को पढ़ना चाहिए कि कैसे सामाजिक सरोकारों को उन्होंने लघु दायरे में समेटा है ताकि वे चेतना सम्पन्न हो सकें | --------------
ReplyDeleteसभी प्रश्न सटीक चुनाव है और उत्तर हमें संचेतना देती है कि अब आगे के लिए हमारा संघर्ष कैसा होना चाहिए।
गोष्ठियों और सम्मेलनों के जरिए एक वातारण तैयार करना है कि लघुकथा मंच की सम्मानित विधा बनकर उभरे।
शानदार साक्षात्कार है यह।
लता जी द्वारा नए लघुकथाकारों के मन मे उमड़ते घुमड़ते प्रश्नों का सुंदर समावेश और आदरणीय चित्रा जी द्वारा उतना ही संतुष्टिपूर्ण उत्तर।लघुकथा के स्वर्णिम भविष्य को लेकर आशान्वित होना भी ऊर्जा से भर गया।सार्थक पोस्ट।
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