[डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक हमारे
समय के महत्वपूर्ण समालोचक रहे हैं। हिन्दी लघुकथा पर उनकी दृष्टि अन्य आलोचकों की
तुलना में कहीं अधिक सधी और सटीक रही है। नवें दशक में उन्होंने कुछ विचारोत्तेजक
लेख लघुकथा साहित्य को प्रदान किए जो हमेशा ही उपयोगी रहेंगे। दिनांक 7-12-2017
की सुबह लगभग 79 साल 10 माह की उम्र में उनके निधन से हुई साहित्यिक क्षति अपूरणीय है। हमारे
विशेष अनुरोध पर उनके समग्र व्यक्तित्व को याद करते इस संस्मरण को उपलब्ध कराया है
वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार भाई श्याम बिहारी श्यामल ने। आभार सहित प्रस्तुत है उसकी
पहली किस्त--बलराम अग्रवाल]
(स्व॰) डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक |
बिहार से अलग हुए झारखंड में गढ़वा और लातेहार के
जिला बन जाने के बाद 'प' से पलाश, 'ल'
से लाह और 'म' से महुआ
वाली पलामू की प्राकृतिक त्रि-उत्पादाधारित पुरानी लोकप्रिय
परिभाषा अब कितनी सार्थक रह गई है, यह अन्य लोगों के लिए
चिंता-चिंतन या विश्लेषण-मनन की बात होगी, हमारे मन-मस्तिष्क
में तो इस धरती की वह मूल पहचान आज भी कायम है जो प्राय: दो रूपों में अक्षुण्ण
है।
पहली तो वह कोयल नदी, जो प्रवाह रहने पर ऐसे
कूकती हुई बहती है जैसे बिंधे मन व रुंधे कंठ से वन प्रांतर की कोई जल-पार्वती
अपने अछोर जीवन-संघर्ष का अरुण-करुण महाकाव्य आलाप रही हो ! अद्भुत नदी, जो निर्जल हो जाने पर भी कभी निर्प्रवाह नहीं होती। सूख जाने पर कहीं स्वर्णाभ
तो कहीं रजताभ विस्तार के रूप में गजब चमचमाने लगती है। कुछ यों जैसे उसकी कौंधें
हवा पर प्रवाहित हो रहीं फेनिल राग-ध्वनियां हों। …और
दूसरी पहचान, डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक; सतत अध्ययन-मनन व अपरिमित
ज्ञान से रंजित जिनके बुलंद-बिंदास बोल सदा जैसे कानों के सामने ही लहराते रहते
हों। जैसे गजब के अध्येता व रचनाकार वैसे ही अनोखे वक्ता-बोल्ता। जिनके मुख से
जब आख्यान-व्याख्यान या भाषण-संभाषण फूटने लगें तो धरती से लेकर आकाश तक शब्द-संवेदना
की जैसे उर्ध्व सलिला ही प्रवाहित होने लग जाएं। अफसोस की बात यह कि उन्हें वह
बड़ा फलक न मिल सका जिसके वह हकदार रहे। यह हिन्दी साहित्य संसार का अपना
दुर्भाग्य है कि वह अपनी ही एक प्रतिभा की ऐसी शख्सियत से पूरी तरह वाकिफ नहीं।
व्रजकिशोर पाठक को पहली बार देखने का
संदर्भ स्मरण में सुस्पष्ट तो नहीं लेकिन उनकी प्रथम निकटता का आज भी कायम
धड़कता अहसास यह बताने को काफी है कि मिलने के पहले से उन्हें काफी जान चुका था।
वह निश्चित रूप से सन् उन्नीस सौ अस्सी या उससे एकाध साल पीछे का ही साल रहा
होगा। आज के मेदिनीनगर और तब के डाल्टनगंज का वही कूकती कोयल नदी वाला तट और वहीं
स्थित अपने गिरिवर हाई स्कूल का नाति हरित प्रांगण। वह वस्तुत: स्कूल के
वार्षिकोत्सव जैसा ही कोई आयोजन रहा।
श्याम बिहारी श्यामल |
स्वप्नलोक की आभा महसूस होने और उस
घोर पिछड़े इलाके में तब प्राय: घनघोर दुर्लभ रही बिजली के बल्ब-झालरों से सजा, ऊंचे पेड़ों के साए
में बना मंच। ऊपर विराजमान लोगों के बीच उनके निकट होने, उनकी
उठी निगाहों को आसपास महसूसते हुए काँपते पाँवों से माइक स्टैंड तक पहुँचने,
अधपके किशोर स्वर में कुछ तुतले किंतु स्वरचित काव्यांश बाँचने
और लौटते हुए अपने नत मस्तक पर उनके कुछ आशीर्वचनी शब्द बरसने का स्मरण आज भी
है। वही मुख्य अतिथि रहे। उन्होंने अपनी मूल विशिष्टता के अनुरुप ही खूब मुखर
व्याख्यान दिया था।
शब्द या कथ्य-संदर्भ आदि तो अब ध्यान
में नहीं, लेकिन यह पक्का स्मरण है कि उनके ठनकते बोलों ने जैसे वहाँ के मौजूद
एक-एक चेतन-अचेतन या व्यक्ति-अव्यक्ति को संपूर्ण सचेतन-ससंज्ञ्य बना दिया था।
कुछ यों जैसे सृष्टिकार के हाथ भी जिन हवा-झोंके, पेड़-पत्ते, ईंट-दीवारें
व धूल-ढेलों को पंच-ज्ञानेंद्रिय-सज्जित न कर सके थे, उन्हें
वाणी के एक जादूगर ने शब्दमय-ध्वनिमय और संवेदनापूरित कर जैसे संपूर्ण भावमग्न
कर डाला हो।
साढ़े तीन दशक के अंतराल के बाद आज आकलन
करते हुए यह महसूस कर रहा हूँ कि बाद में बढ़ी निकटता व कुल कोई दशक भर की प्रत्यक्ष
संपर्क-अवधि के दौरान उनसे जब-जब जहाँ कहीं भी मिलना हुआ हर संदर्श में सबसे पहले
वही गिरिवर-प्रांगण वाली कहकहाती छवि सर्वप्रथम खिंचती और हर संसर्ग-संदर्भ को
हमेशा-हमेशा सींचती रही।
जीएलए कॉलेज के दिनों में स्वाभाविक
रूप से डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक और तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ जगदीश्वर
प्रसाद से लेकर डॉ॰ चंद्रेश्वर कर्ण तक से कक्षाओं में सामना होता रहा लेकिन
तीनों से बतौर रचनाकार सहज संपर्क बाद में विकसित हो सका। दूसरे की तुलना में शेष
दो से अधिक और प्रथम अर्थात् व्रजकिशोर पाठक से तो सर्वाधिक। एक दौर ऐसा भी आया जब
जिले में पटना या रांची के अखबारों के संवाददाता वाला कार्य करने के दौरान घोर
समयाभाव के बावजूद उनसे प्रतिदिन मिलने का क्रम चलता रहा।
दिन भर की लाख भाग-दौड़ के बावजूद
डालटनगंज के बाजार-क्षेत्र में अखबारी साथियों के बीच से शाम होते अचानक गायब हो
जाना और वहीं से पाँव-पैदल छहमुहान-बस स्टैंड-कचहरी होते चर्च के सामने से गुजर
रेललाइन पार करके रेड़मा और अंतत: ढाई-तीन किलोमीटर की दूरी के बाद चरकी भट्ठा के
पास उनके घर। अक्सर उनके घर के बाहर छोटे-से कैंपस के भीतर ही बैठकी जमती।
कभी-कभी मेरे साथ हृदयानंद मिश्र या रामाशीष पांडेय जैसे तब के युवा नेताओं में से
भी कोई न कोई खिंचा पहुँच जाता।
साहित्य या समाज के अप्रचलित
विषय-संदर्भों पर लंबी खिंचती चर्चा साथ गए व्यक्ति को कभी-कभी बहुत भारी भी
पड़ने लगती लेकिन डाक्टर साहब की रोचक शैली एकबारगी उसे भाग खड़े होने से भी बचाए
चलती। नीचे इधर-उधर अनियोजित घास। अंधेरे में इससे उत्साह के साथ निकलते और टूटते
मच्छरों से भरसक बचने के लिए काठ की चौड़ी कुर्सी पर दोनों पाँव ऊपर ही समेटकर
बैठना-बतियाना होता।
कुछ तो खबरिया पेशे का आवारा सूखापन और
कुछ हमारी आदतन गाफिली ऐसी कि हम पर अक्सर फांकाकशी धूल-गर्द की तरह उड़ती-झझराती
रहती। इसका अहसास श्रीमती पाठक को शायद अच्छी तरह था। डाक्टर साहब तो जिस विषय
पर शुरू हो जाते उसे भारतीय फलक से उठाकर देखते ही देखते विश्व साहित्य के आकाश
तक उड़ा ले जाते। ऐसे समय उनके अध्ययन-विश्लेषण बल का विस्मयकारी अहसास होता।
हम आदिकवि वाल्मीकि की करुणा से महाकवि गोस्वामी तुलसीदास, कालिदास, केशव, भारतेंदु, प्रेमचंद,
प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध,अज्ञेय और उधर टीएस इलियट, वर्ड्सवर्थ से लेकर एजरा
पाउंड व शेक्सपीयर या टाल्सटाय तक जैसे रचनाकारों के रचना-कौशल या सृजन-संदर्भों
के किसी न किसी आयाम से प्राय: प्रतिदिन अवगत-चमत्कृत होते चलते।
डॉ॰ पाठक अक्सर अपने गुरुदेव डॉ॰
रामखेलावन पांडेय की किसी न किसी रूप में चर्चा लगभग रोज करते। कभी उनके 'हिंदी साहित्य के नया
इतिहास' को लेकर, रामचंद्र शुक्ल से लेकर आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी तक के साथ उनकी इतिहास-दृष्टि के भेद का संदर्भ तो कभी हिन्दी के
विभिन्न बड़े समकक्षीय रचनाकारों के साथ उनके मतभेद-विवाद के संदर्भ। गजब दक्षता
के साथ वह बात को बात से जोड़ते चले जाते। उनसे कुछ ही घंटों का बतियाना दर्जनों
ग्रंथों के बहुविध संदर्भ से जोड़ देता। उनके लंबे अध्ययन-मंथन का दुर्लभ अर्क
सहज ही जिह्वा तक आ पहुँचने का तृप्ति-सुख।
हाथ आए विषय को वह लगातार ईख की तरह
ऐसा पेरते चले जाते और घंटों अथक मथते-फेंटते रह जाते कि पूरा वातावरण मीठी तरलता
से छलछलाता रह जाता लेकिन गले के नीचे तृप्ति तभी उतरती जब भाप छोड़ते भरे हुए प्लेट
हाथ आते। आलू के पतले-लंबे पीले तताए टुकड़े, चूड़े के ललाए कुरकुरे दाने और हरी
मिर्च के साथ उसके गल जाने तक खूब भुने प्याज के करियाये लरजे सोंधाई छोड़ते
क्षीण हिस्से। इन सबसे उठता सोंधाई से भरा आह्लाद जगाता स्वाद। मात्रा कभी
कामचलाऊ नहीं, हमेशा भरपूर। इसके साथ ही लगे हाथ स्टील के
परिपक्व गिलास में पौन ऊंचाई तक ऊपर पहुँची-झाँकती गाढ़े दूध की ललौहीं चाय। उनकी
चर्चा को मुक्तिबोध के 'अंधेरे में' से
निकलकर चूड़े की सोंधाई व चाय की सांद्रता के शास्त्र में प्रविष्ट होने में पल
भर की भी देर नहीं लगती। गजब यह कि हल्के से हल्के लगने वाले विषय के संदर्भ को
संतृप्त करने के लिए वह कभी 'गोदान' से
दृष्टांत खींच लाते तो कभी 'नदी के द्वीप' या 'शेखर एक जीवनी से'।
सबसे खास होता निशा काल में बैठकी की
समाप्ति का रूप। साथ में किसी और के आए होने पर तो नहीं लेकिन जिस दिन मैं उनके
यहाँ अकेला पहुँचा रहता उस दिन गजब हो जाता। लाख मना करने और श्रीमती पाठक के
टोकने के बावजूद डाक्टर साहब कमीज डालकर मुझे विदा करने साथ निकल लेते। शाम से ही
शुरू चर्चा अविराम अपने नए-नए अध्याय बदलती रहती। उनका बाेलना, बोलते चला जाना और
मेरा पूछना व सवाल उठाते रहना अबाध। इसी के समानांतर चरकी भट्ठा से निकलकर हमदोनों
का कभी छोटे तो कभी बड़े डगों के साथ रेलवे क्रॉसिंग की ओर बढ़ना भी जारी। डेढ़-दो
किलोमीटर चलकर जब हम रेल लाइन को लांघ आरा मिल के पास पहुँचते तो डॉक्टर साहब
मुझे विदा कहकर लौटने लगते।
इसके बाद मैं उन्हें विदा करने को
कहकर उनके साथ हो लेता। चर्चा चलती रहती और मैं एक किलोमीटर चलकर उन्हें रेड़मा
चौराहे पर छोड़कर लौट पड़ता। तब तक जारी चर्चा के खत्म न होने का हवाला देकर डॉक्टर
साहब फिर मुझे रेल लाइन तक छोड़ने लौट चलते। इसके बाद भी अक्सर फिर मैं पीछे
मुड़कर उनके साथ। कहाँ कुर्सी से उठते हुए बैठकी की समाप्ति की घोषणा का समय रात के
दस या ग्यारह बजे का और कहाँ परस्पर एक-दूसरे को छोड़ने के पथ-परिक्रमा के क्रम
में घड़ी की सुइयाँ डेढ़-दो को छूती हुई भोर की ओर इशारा करने लग जातीं। बड़ी
मुश्किल से बिलगाव होता। दूसरे दिन की बैठकी की शुरुआत में ही बीती रात का विलंब न
दोहराने का संकल्प लिया जाता लेकिन यह शायद ही कभी एक बार भी पूरा हो सका हो।
वह पढ़ाकू ऐसे कि साहित्य ही क्यों
इतिहास-भूगोल, बाग-बगवानी, प्रदूषण-पर्यावरण से लेकर
साइंस-अर्थशास्त्र आदि तक किसी विषय-संदर्भ की कोई पोथी शाम को पकड़ा आइए और
दूसरे दिन सुन लीजिए पृष्ठांक संदर्भ के साथ उसकी संपूर्ण सप्रसंग व्याख्या।
सुनने वाला अरुचिकर-अनपेक्षित विषय होने के नाते कभी शुरू में भले कुछ कसमस करता
हुआ भी लग जाए लेकिन कुछ ही देर में उस पर उनकी सरस वाणी के जादू का चल जाना व
रस-रंग में डूबकर उसका डोलता दिखना भी तय। कविता और उपन्यास से लेकर आलोचना तक
में उनकी दुर्लभ लेखन-प्रतिभा की एक से एक बानगी।
इमर्जेंसी के दौर की उनकी कविता 'लंगड़े कुत्ते का भाषण'
गजब की रचना है जिसमें विकलांग कर दी गई चेतना का प्रतीक बनकर पेश
लंगड़ा कुत्ता देश की तत्कालीन परिस्थितियों को रेखांकित करता हुआ कहता है कि
देश में सारे पुल्लिंग शब्द स्त्रीलिंग हो गए हैं! पी.एच.डी. के लिए साठ के दशक
में तैयार उनका शोधग्रंथ 'भारतेंदु की गद्य-भाषा' न केवल आज पेश हो रहे ज्यादातर डी.लिट. प्रबंधों पर भारी है बल्कि हिन्दी
भाषा-साहित्य के जनक बाबू हरिश्चंद्र के मूल्यवान लेखन पर प्रारंभिक गंभीर व्याख्या-कार्य
के रूप में अत्यंत वरेण्य योगदान भी।
उन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की
शोध-पत्रिका में अनेक ऐसे रचनाकारों पर गंभीर पड़ताली आलोचना लिखी है जिन्हें
अचर्चा की धूल ने युगों-युगों से ढंक रखा था। इस क्रम में बाबू भोलाराम गहमरी पर
लिखा विशिष्ट शोध आलेख और कवि बोधिदास के भूले-बिसरे काव्यग्रंथ 'झूलना' पर किया गया उनका पड़ताली कार्य तो तत्काल स्मरण में कौंध रहा है। 'हिन्दी साहित्य के अचर्चित पृष्ठ' स्तंभ-नाम के
साथ छपे उनके ऐसे सारे लेखों को तत्काल संकलित किए जाने की आवश्यकता है लेकिन यह
सब कुछ खोजना और समुचित क्रम-संदर्भादि का निरुपण करते हुए प्रसंगों को
खोलते-जोड़ते हुए इंट्रो नोट या पाद टिप्पणियों के साथ प्रभावशाली ग्रंथ-प्रस्तुति
संभव बनाना साहित्य के ही किसी श्रमशील अनुरागी के योगदान से संभव है।
उन्होंने मगही में भी काफी कुछ लिखा
है। उनका उपन्यास 'गांजा बाबा' तब काफी चर्चे में रहा। यह अपनी भाषा और कहन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कृति
है किंतु हिन्दी की मूल रचना न होने के कारण स्वाभाविक रूप से बड़े फलक के
अपेक्षित विमर्श या स्वीकृति-लाभ से वंचित। उसी तरह मगही में ही उनकी 'मेयादी बोखार' रचना का भी मुझे स्मरण है जिसका जब
वह स्वयं वाचन करते तो एक-एक शब्द जैसे अग्नि-कणों की तरह दृश्यांश बिच्छुरित
करते चले जाते। 1988 में मेरे पलामू छूटने के बाद भी डाक्टर
साहब ने काफी कुछ काम किया है। इसी क्रम में पलामू के अमर शहीदों पर लिखी उनकी
कृति 'नीलांबर पीतांबर' खास है। आवश्यकता
इस बात की है कि उनके समूचे लेखन-कार्य को गंभीरतापूर्वक अनुक्रमित और संपादित कर
समग्र रचनावली-रूप में प्रकाशित कराया जाए।
समापन किस्त आगामी अंक में………
वाह ! डा. ब्रजकिशोर पाठक के सम्बन्ध में सुन्दर और रोचक जानकारी। यह दुखद है कि इतना विद्वान व्यक्ति इस प्रकार अननोटिस्ड संसार से विदा ले ले। मशहूर लेखक व उपन्यासकार प्रेमचन्द के साथ भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। साहित्य जगत अगर अब भी डा.पाठक को उनका वास्तविक स्थान दे दे, तो उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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