दोस्तो, वयोवृद्ध लेखक श्रीयुत् पूरन मुद्गल ने कृपापूर्वक 'दैनिक हिन्दी मिलाप' के जालंधर से प्रकाशित होने वाले उस संस्करण (बुधवार, दिनांक 24 जून, 1964) की फोटो-प्रति उपलब्ध कराई है जिसमें उनकी पहली लघुकथा 'कुल्हाड़ा और क्लर्क' प्रकाशित हुई थी। आप के अवलोकनार्थ फोटो-प्रति के साथ ही लघुकथा का पाठ अलग से भी प्रस्तुत है।----बलराम अग्रवाल
परिचय पूरन मुद्गल जी :
जन्म : 24 दिसम्बर 1931 को फाजिल्का (पंजाब) में
लघुकथा संग्रह 'निरंतर इतिहास' और 'पहला झूठ' सहित कुल 8 पुस्तकें प्रकाशित। पत्रिका 'अक्षर पैगाम' का सम्पादन। अनेक सम्मानों से अलंकृत।
देहावसान : 11 नवम्बर 2019 ।
निवास का पता : 309/5 ए, अग्रसेन कालोनी, सिरसा-125055 (हरियाणा)
मोबाइल : 09253100377
जिसके पास जो है उसमें संतोष नहीं...बहुत अच्छा सन्देश
ReplyDeleteयह ज़िंदगी के यथार्थत: त्रासद अनुभव की कथा है। क्लर्क को कुल्हाड़े (यानी श्रमिक) के कर्म से उपजी आवाज़ में संगीत का भास होना यह दर्शाता है कि बाबू वर्ग की अनुभूतियाँ तब तक शायद आज जितनी संवेदनहीन नहीं हुई थीं। दूसरी ओर श्रमिक वर्ग का कुछेक मूलभूत सुविधाएँ पाने का जो सपना तब था, वही आज भी है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि मज़दूर द्वार को थोड़ा खुला रहने देने का अनुरोध करता है, घर में कुछ देर बैठ जाने का नहीं; लेकिन उसके अनुरोध को अनसुना करके 'बाबू वर्ग' ने दरवाज़े को बंद कर दिया यानी उसकी ओर से मजदूर को होने वाली रसानुभूति पर रोक लग गई ! सुविधा पा चुके वर्ग का क्या यही चरित्र बाद के वर्षों में पनप नहीं गया है? यह संकेत भी देखिए कि यह वर्ग कुछ देर पहले मजदूर के सामने तो 'कुल्हाड़े का संगीत अच्छा' लगने की बात कर रहा था, कुछ देर बाद वही उसके लिए 'कुल्हाड़े की खटखट की आवाज' शब्दों का इस्तेमाल करता है। यही उसका चारित्रिक छद्म है।
ReplyDeleteव्यक्ति स्वयं के जीवन से संतुष्ट नहीं,संदेशात्मक सुंदर कथा।
ReplyDeleteलघुकथा बहुत ही सहज ढंग से लिखी गई है। ये हम नए लेखकों के लिए एक सीख योग्य है। लघुकथा में लेखक स्वयं होकर भी स्वयं कुछ नहीं कहता, मात्र एक पात्र की भूमिका ही निभाता है।