एन उन्नी की लघुकथाएँ आम आदमी के
लहू में बहते विद्रोह की जिस शिद्दत से पहचान करती हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य
कथाकारों में कुछ के पात्र विद्रोह का नारा लगाते हैं तो कुछ के विद्रोह करते भी
हैं: लेकिन एन उन्नी वह विरले कथाकार हैं
जो पात्रों के भीतर के विद्रोह को पहचानकर पाठक को बताते हैं कि व्यवस्था और
परम्परा के पाटों के बीच यह जो दबा-कुचला विवश-सा आदमी दिखता है, इसे जिस दिन भी
अपने साथ हो रहे छल की असलियत का पता चल गया—इसका विद्रोह बाहर आ जाएगा। ‘गेंहूँ’
में तो इस तथ्य को वे खुलकर कहते भी हैं—“गेंहू क्यों नहीं मिल रहा है--यह मैंने
नहीं पूछा; क्योंकि मुझे यकीन है कि जिस दिन वह जान जाएगा, नालों में नदी की ओर
बहने वाला पानी नहीं खून होगा।” उनकी लघुकथा ‘औकात’ के कथ्य को तो विभिन्न लघुकथाओं में अलग-अलग शीर्षक तले
तरह से प्रस्तुत किया देख चुका हूँ।
भाई प्रदीप कांत के शब्दों में--'मूलत: मलयाली भाषी एन उन्नी हमारे समय के एक महत्वपूर्ण लघुकथाकार हैं। वे समान रूप से मलयालम और हिन्दी में लिखते रहे। कई बार तो उनकी भाषा मूल हिन्दी भाषी लेखकों के लिए चुनौती की तरह उपस्थित हो जाती है। उन्नी की लघुकथाएँ हिन्दी के हाल के बहुत से तथाकथित लघुकथाकारों के लिये चुनौती है।'
आज (16 जुलाई, 2015) सुबह उनकी बेटी ने फोन पर बताया--"अंकल, पापा जी अपना अंतिम उपन्यास भी पूरा कर गए हैं। हम बहुत जल्द उसे प्रकाशित कराएँगे और अच्छी तरह से उसका लोकार्पण समारोह भी करेंगे।"
आज (16 जुलाई, 2015) सुबह उनकी बेटी ने फोन पर बताया--"अंकल, पापा जी अपना अंतिम उपन्यास भी पूरा कर गए हैं। हम बहुत जल्द उसे प्रकाशित कराएँगे और अच्छी तरह से उसका लोकार्पण समारोह भी करेंगे।"
औकात
कबाड़ की माँग बढ़ रही है। कबाड़
की कीमत बढ़ रही है। कबाड़ से नए-नए सामान बनाकर मंडी पहुँच रहे हैं। कुल मिलाकर
कबाड़ की इज्जत बढ़ गयी है।
इस ज्ञान
के साथ घर का अतिसूक्ष्म निरीक्षण किया तो पाया कि कमरे कबाड़ों से भरे पड़े हैं।
एक-साथ नहीं दे सकते क्योंकि कालोनी में एक ही कबाड़ी आता है। कबाड़ ले जाने के लिए
उसके पास एक ही ठेला है। मैंने कबाड़ को इकट्ठा किया। भाव करके किश्तों में कई बार
ठेला भर दिया। कबाड़ी की खुशी देखते ही बनती थी। आखिर में जब घर खाली हुआ और मुझे खाने को दौड़ा तो कबाड़ की अंतिम किश्त के
रूप में मैं स्वयं ठेला-गाड़ी पर आसीन हो गया। मज़ाक समझकर कबाड़ी हँस दिया और कहने
लगा, ‘कबाड़ की कीमत आप जानते ही हैं और अपनी भी। आप कृपया उतर जाइए।’
मैं उतर
गया और वह चला गया। उस निर्दयी कबाड़ी की चाल मैं चुपचाप देखता रहा। सोचता रहा कि—आखिर
मेरी औकात क्या है।
गेहूँ
बाँध के उद्घाटन के लिए अब
सिर्फ तीन दिन ही बाकी हैं। रात-दिन काम चल रहा है। मजदूरों को ऊँची आवाज में
डाँटता-फटकारता ठेकेदार इधर से उधर एक बॉल की तरह लुढ़क रहा है। हमेशा स्कॉच की
बदबू फैलाने वाला आदमी।
स्वागत समारोह
के लिए आवश्यक वस्तुओं की तालिका में सिर्फ शराब की कई किस्मों के नाम देखकर लगा
कि उद्घाटन मंत्री शराब की दुकान खोलने जा रहे हैं। फिर, कई तरह के मांसाहारी
व्यंजन का भी इंतजाम है।
उन्माद से भरे उस वातावरण में
अशुभ-सी सिर्फ एक ही बात है। एक बच्चे का रोना। कांक्रीटिंग हो रहे ट्रेंच से बाहर
बैठकर न जाने कब-से वह रो रहा है।
मना कर सकूँ
उससे पहले ही गुस्से में ट्रेंच के बाहर
आए पिता ने बच्चे को बेरहमी से पीटा, और सफाई के रूप में कहा, ‘उसको भूख लग रही
है। साला हरामी। राशन की दुकान में गेंहूँ नहीं आया, उसको एक हजार बार समझा चुका
हूँ।’
गेंहू
क्यों नहीं मिल रहा है यह मैंने नहीं पूछा; क्योंकि मुझे यकीन है कि जिस दिन वह
जान जाएगा, नालों में नदी की ओर बहने वाला पानी नहीं खून होगा।
समय
बचपन से ही
पापाजी अपने बच्चों को कहानी सुनाया करते थे। बच्चे चाव से सुनते थे। बाद में गर्व
से सुनने लगे थे। एक कहानीकार के रूप में पापाजी की सफलता में बच्चों का भी हाथ था—ऐसा
पापाजी धन्यवाद-स्वरूप महसूस करते थे।
अब बच्चे
बड़े होकर नौकरी-पेशा हो गये हैं। बड़े घर से रिश्ता जोड़ लिया है। जिन्दगी की बहुरंगी
चकाचौंध में डुबकी लगाने की लालसा पूरी कर रहे हैं। किन्हीं अनजान ऊँचाइयों को
छूने की ललक में हमेशा परेशान रहते हैं।
पापाजी अब
भी कहानी लिखते हैं। बच्चों को सुनाते हैं। उद्वेग से पूछते हैं—
कैसी है।
ठीक है।
सिर्फ ठीक।
अच्छी है।—कहकर
बच्चे पापाजी की तरफ देखते हैं। पापाजी का उदासीन चेहरा देखकर बच्चे तुनक जाते हैं
और असहिष्णुता से पूछते हैं:
अब जान
लोगे क्या।
आदर्श
महीने भर की
दुविधा के बाद आखिर मैंने अपने दोस्त से पूछ ही लिया, ‘प्रेम-विवाह के बारे में
तुम्हारी क्या राय है।’
एकदम
गम्भीर होकर उसने मुझे पल दो पल निहारा और एक दार्शनिक की मुद्रा में कहने लगा—‘मेरी
राय में तो प्रेम-बंधन ही सबसे महत्वपूर्ण है। प्रेम के पश्चात ही विवाह रचाना
चाहिए। जो लोग प्रेम से वंचित रह जाते हैं वे जिन्दगी की सबसे खूबसूरत एवं जादूभरी
अनोखी अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।’
इतना कहकर
एक गूढ़ मुस्कान लिए उसने आगे पूछा, ‘लड़की कौन है।’
मेरे दोस्त
को यकीन था कि हीरो मेरे सिवा कोई-और नहीं है। लेकिन मुझे लगा, मानो मेरे मन से एक
पहाड़ उतर गया हो। मैंने चैन की साँस ली और कहा, ‘सवाल पहले लड़के का होना चाहिए।
हमारा दोस्त मुकेश मुक्ता से शादी करना है। वे एक-दूसरे को न जाने कब-से चाहने लगे
हैं॰॰॰’
उसने मेरी
बात को पूरा नहीं होने दिया। वह गुस्से से काँपने लगा और गालियों की बौछार के
साथ-साथ चिल्लाया, ‘कहाँ है वह्। मैं उसकी जान ले लूँगा। …’
मुक्ता
उसकी बहन थी।
पितृत्व
हमेशा की तरह अत्याधिक मदिरापान की खुमारी में सोकर उठे पिता ने पुत्री से कहा, " अरी ओ! पेट जल रहा है, दो-एक रुपया तो निकाल; जरा चाय-पानी हो जाए।"
एक बेनाम किन्तु गहरी ईर्ष्या से पुत्री ने पूछा, "मेरे पास कहाँ है रुपैय्या…कल मुझे कुछ दिया था क्या?"
पिता को गुस्सा आया। वह जोर से चिल्लाया, "तेरे पास रुपया नहीं है तो फिर रातभर कुत्ता क्यों भौंका?"
हमेशा की तरह अत्याधिक मदिरापान की खुमारी में सोकर उठे पिता ने पुत्री से कहा, " अरी ओ! पेट जल रहा है, दो-एक रुपया तो निकाल; जरा चाय-पानी हो जाए।"
एक बेनाम किन्तु गहरी ईर्ष्या से पुत्री ने पूछा, "मेरे पास कहाँ है रुपैय्या…कल मुझे कुछ दिया था क्या?"
पिता को गुस्सा आया। वह जोर से चिल्लाया, "तेरे पास रुपया नहीं है तो फिर रातभर कुत्ता क्यों भौंका?"
एन उन्नी |
जन्म: 23-04-1943, मवेली करा, एल्लपी, केरल में
शिक्षा: एम ए (अंग्रेजी)
प्रकाशन: मलयालम में 40 कहानियाँ व दो उपन्यास और हिन्दी में 30 कहानियाँ व 60 लघुकथाएँ प्रकाशित-प्रसारित। लघुकथाएँ विभिन्न संकलनों में शामिल, लघुकथा संग्रह 'कबूतरों से भी खतरा है' (2010)।
सम्मान: हिन्दीतर भाषी हिन्दी कथाकार के रूप में मध्य प्रदेश सहित्य परिषद से पुरुस्कृत-सम्मानित।
पता: 91, नीर नगर, ब्लू वाटर पार्क, बिचौली मर्दाना रोड़, इन्दौर – 452016
मोबाइल: 98930 04848 दूरभाष : 0731-2847509
निधन : 14 जुलाई, 2015
आदरणीय एन उन्नी जी के निधन का समाचार सुनकर असीम दुख हुआ। उनकी मैंने अनेक लघुकथाएँ पढ़ीं हैं। जो बहुत प्रशंसनीय है। उनकी कुछ लघुकथाएँ मैंने अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट की थीं और इसके लिए फोन करके उनकी सहमति ली थी। अब तो यह बात एक याद बन कर रह गई है। उनको सादर नमन।
ReplyDeleteसुधा भार्गव