दोस्तो, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ के संपादन में वर्ष 2011 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है—‘भारत का हिन्दी लघुकथा संसार’। इसके बारे में ‘जनगाथा’ के जनवरी 2011 अंक में परिचयात्मक टिप्पणी लिखी जा चुकी है। इस पुस्तक के पृष्ठ 160 पर डॉ॰ रामकुमार घोटड़ का एक ब्यौरापरक लेख है—‘भारतीय हिन्दी लघुकथा साहित्य में शोध कार्य’। इसे मैं ‘ब्यौरा’ कह रहा हूँ क्योंकि इसमें दर्ज सूचनाओं के पीछे मुझे डॉ॰ घोटड़ की ‘हिन्दी लघुकथा के लिए कुछ करने की आकांक्षा’ तो नजर आती है, शोधवृत्ति नहीं। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में पी-एच॰ डी॰ की उपाधि हेतु नामांकित अथवा पी-एच॰ डी॰ उपाधि से सम्मानित ऐसे सभी विषयों को जिनमें ‘लघुकथा’ शब्द का प्रयोग हुआ है, सूचीबद्ध करके उन्होंने नि:संदेह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है, परंतु यह शोधपरक नहीं है।
मैं स्वयं पी-एच॰ डी॰ उपाधि हेतु शोधार्थी रहा हूँ। नामांकन से पूर्व मुझे भ्रम था कि मैं ‘शोध’ करूँगा लेकिन वह मैं कर नहीं पाया। मैंने भी ब्यौरे ही इकट्ठे किए और ‘शोध’ के नाम पर उन्हें विश्वविद्यालय में जमा करा दिया। नामांकन कराए बिना मैं शायद बेहतर कार्य कर सकता था। मेरे शोध-निदेशक ने, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय के लिपिकों ने, महाविद्यालय के प्रधानाचार्य ने, हिन्दी प्रवक्ताओं ने, यहाँ तक कि चपरासियों ने भी लगातार मुझे जिस दृष्टि से देखा, मैं यही महसूस करता रहा कि—आब गई, आदर गया, नैनन गया सनेह…। परंतु इस पत्र का विषय यह नहीं है, दूसरा है।