Monday, 17 October 2011

‘सरस्वती सुमन’ व ‘सादर इंडिया’ के लघुकथा विशेषांक, लघुकथा संग्रह ‘परिवर्तन’ तथा संकलन ‘विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ’

पत्रिका:सरस्वती सुमन(लघुकथा विशेषांक, सितम्बर 2011), संपादक:कुँवर विक्रमादित्य सिंह, अतिथि संपादक:कृष्ण कुमार यादव, पत्राचार कार्यालय : सारस्वतम्, 1-छिब्बर मार्ग(आर्यनगर), देहरादून-248001(उत्तराखंड)  अंक पर मूल्य अंकित नहीं है।

सरस्वती सुमन के प्रस्तुत लघुकथा विशेषांक में अतिथि संपादक की कलम से… लिखा गया है कि—‘इस अंक हेतु कुल 482 लोगों ने लघुकथाएँ/लेख भिजवाए, पर सभी को शामिल करना हमारे लिए संभव भी न था। इस स्नेह और विश्वास के लिए उन सभी का आभार अवश्य व्यक्त करना चाहूँगा। फिलहाल, 126 लघुकथाओं और 10 सारगर्भित लेखों को समेटे इस अंक में स्थापित एवं नवोदित लघुकथाकारों दोनों को समान रूप से स्थान दिया गया है, आखिर आज के नवोदित ही तो कल के स्थापित होंगे।
तथ्य यह है कि अंक में 126 लघुकथाएँ नहीं, लघुकथाकार(न कि लघु-कथाकार) सम्मिलित हैं और लघुकथाओं की कुल संख्या है276। जब संपादकीय के प्रूफ का यह हाल है तो अंदर की सामग्री के प्रूफ का हाल बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
रचनाकारों को उनके नामों के अनुरूप अकारादि क्रम में स्थान दिया गया है। रचना की स्तरीयता और रचनाकार की वरिष्टतादोनों के दम्भ से बचने का संपादक के पास यह सरलतम अस्त्र है।
रचनाओं और रचनाकारों की गणनात्मक प्रस्तुति के कारण ही नहीं बृहद आकार और ध्यानाकर्षक वज़न के कारण भी इस अंक को लघुकथा महाविशेषांक की संज्ञा दी जा सकती है।
विशेषांक के आवरण पर कलासिद्ध संदीप राशिनकर की कृति का उपयोग किया है। क्या ही अच्छा होता कि उनसे पर्यावरण की बजाय लघुकथा की थीम पर ही चित्र बनवाया जाता।


प्रस्तुत है सरस्वती सुमन के लघुकथा विशेषांक से श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथा कैदी
माँ, सुना तुमनेसुदर्शन अंकल की बेटी नीरजा मजिस्ट्रेट बन गई है। सतीश ने बताया तो माँ आश्चर्यचकित रह गई।
सच! हमारी पुष्पा के साथ पढ़ती थी। पढ़ने में पुष्पा से कमजोर थी। कहकर माँ ने उच्छवास छोड़ा और बोली,लेकिन हमारी यह लड़की कुछ न बन सकी। बस, बी॰ ए॰ कर घर बैठ गई।
इस नालायक ने क्या बनना था। सतीश ने पुष्पा को घूरते हुए कहा।
सतीश का यह कटाक्ष सुन पास बैठी पुष्पा से चुप न रहा गया,तब तो मैं किसी सहेली के घर जाकर पढ़ने को कहती थी तो आपकी इज्ज़त को खतरा हो जाता था। कॉलिज से दो मिनट लेट हो जाती थी तो सब मुझे मारने को दौड़ते थे, जैसे मुझसे कोई बड़ा गुनाह हो गया हो।…नीरजा देर-सबेर बस-गाड़ी में चढ़कर दूसरे शहर पढ़ने जाती रही है।…चारदीवारी में बंद रहकर कैदी ही बना जा सकता है, मैजिस्ट्रेट नहीं…और मुझे नालायक बताने वाला, इसे तो सब सहूलियतें थीं…यह तो बी॰ ए॰ भी न कर सका…।
अब माँ-बेटा दोनों खामोश थे।
कथाकार संपर्क : पोस्ट बॉक्स 44, समीप दशमेश पब्लिक स्कूल, कोटकपूरा-151204/
मो॰ 09988156868

पत्रिका:सादर इंडिया(लघुकथा विशेषांक, अक्टूबर 2011), संपादक:सीमा शील, पत्राचार कार्यालय : प्लॉट नं॰ 44, सेक्टर 56, गुड़गाँव-122002(हरि॰) इस अंक का मूल्य:60 रु॰

सादर इंडिया के अट्ठावन पृष्ठीय लघुकथा विशेषांक में यद्यपि दो या चार फीचर लघुकथा से इतर भी हैं, तथापि अंक में लघुकथा-केन्द्रित दो साक्षात्कार (श्रीयुत विष्णु प्रभाकर तथा हरिशंकर परसाई), तीन लेख (डॉ॰ रामकुमार घोटड़, बलराम अग्रवाल तथा मुकेश शर्मा) एवं भारतीय (हिन्दी व हिन्दीतर भाषाओं की 61) व विदेशी (विभिन्न देशों की 19) लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इनके साथ ही बाबाजी का भोग(प्रेमचंद) तथा भूल सुधार(रवीन्द्रनाथ टैगोर) की कथा-रचनाएँ भी इस अंक को स्तरीयता प्रदान करती हैं।
हिन्दी की पत्रिकाओं के संपादक आम तौर पर सहयोग तो येन-केन-प्रकारेण पा लेते हैं लेकिन अपने रचनात्मक सहयोगियों के नाम गुप्त रखते हैं। इसके पीछे संपादन का सेहरा अकेले अपने सिर बाँध लेने का मोह होता है या कुछ और, मैं नहीं जानता। बहरहाल, सादर इंडिया के संपादक शील मधुर ने पारदर्शिता का मान रखते हुए अंक के संपादकीय में समस्त सहयोगियों के नाम नि:संकोच गिनाए हैं। इसे मैं संपादकीय बड़प्पन ही कहूँगा।
विशेषांक की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें लेखन से कब के हट चुके वरिष्ठ समझे जाने लघुकथाकारों की जबरन भर्ती से बचा गया है। नई कलम को स्थान देने का भरसक यत्न परिलक्षित है जोकि प्रशंसनीय है।

सादर इंडिया के लघुकथा विशेषांक से प्रस्तुत है डॉ॰ रामप्रकाश की लघुकथा गुरु-दक्षिणा

रामखेलावन गुरुजी को सेवानिवृत्त हुए बारह साल हो चुके हैं। पेंशन की सीमित आय से उनका गुजारा चलता है।
चालीस वर्षों के अध्यापकीय जीवन में उन्होंने तन-मन-धन से अपने शिष्यों को आगे बढ़ाने का यत्न किया। उनकी मेहनत रंग लाई। आज उनके शिष्य सभी क्षेत्रों में सफल जीवन जी रहे हैं। इन्हीं शिष्यों में डॉ॰ अमित भी हैं। एम॰ डी॰ की डिग्री लेने के बाद आज उनका नाम न केवल अपने शहर में बल्कि दूर-दराज क्षेत्रों में भी है। गुरुजी को अपने इस शिष्य पर गर्व है; वह इसलिए कि गरीबी में जीवन बिताकर उसने मेडिकल की पढ़ाई की। गुरुजी ने होनहार विद्यार्थी से कभी ट्यूशन के पैसे नहीं लिए।
रामखेलावन गुरुजी वृद्धावस्था में हृदय-रोग से ग्रसित हो गये। डॉ॰ अमित ने सलाह के साथ एक चिट्ठी भी हैदराबाद के डॉक्टर के नाम दी। हृदय रोग संस्थान में पहुँचने पर डॉक्टर ने बताया कि बाईपास सर्जरी में डेढ़ लाख का खर्च आएगा। गुरुजी ने कहा,डॉक्टर साहब, मैं एक शिक्षक रहा हूँ। मेरे पास पैसों की कमी है। डॉ॰ अमित मेरा प्रिय शिष्य है। वह मेरे हालात को अच्छी तरह जानता है। यदि पैसों में कुछ रियायत हो जाये तो आपकी कृपा होगी।
डॉक्टर ने कहा,गुरुजी, आप किस युग की बात कर रहे हैं? यह जो चिट्ठी आप दिखा रहे हैं, इसके बीस हजार तो मुझे डॉ॰ अमित को देने होंगे। आपको कन्शेसन कहाँ से दूँ?
गुरुजी छाती पकड़कर कुर्सी से लुढ़क गये।
कथाकार संपर्क : 10 ब ड्युप्लेक्स, वर्द्धमान सोसाइटी, राजपूत पुरा, अकोला-444001/
मो॰ 09422861524

लघुकथा संकलन : विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ, संपादक : श्याम सुंदर अग्रवाल-डॉ॰ श्याम सुंदर दीप्ति, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली-110030, संस्करण:2011, मूल्य:260/-

लघुकथा संकलन विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ में कुल 71 कथाकार संकलित हैं। अनुक्रम के क्रमानुसार प्रथम 13 कथाकारों की चार-चार, क्रमांक 14 से 23 तक दस कथाकारों की तीन-तीन, क्रमांक 24 से 33 तक दस कथाकारों की दो-दो तथा शेष अड़तीस कथाकारों की एक-एक लघुकथा को स्थान मिला है। इस प्रकार संकलन में कुल 150 लघुकथाएँ हैं। हिन्दी में प्रकाशित पंजाबी का यह पाँचवाँ उल्लेखनीय संकलन है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यही है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की समूची उल्लेखनीय लघुकथाओं को एकत्र करके दूसरे दशक के पहले ही वर्ष में पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया गया है। यह संपादकद्वय की लघुकथा के प्रति समर्पण भावना और जागरूकता दोनों का ही जीता-जागता प्रमाण है।

विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ से एक लघुकथा भूकंप (डॉ॰) कर्मजीत सिंह नडाला की
बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी साथ ले जाने लगा।
कैसे हाथ-पाँव टेड़े-मेड़े कर चौक के कोने में बैठना है; आदमी देख कैसे ढीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए दया का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता, वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा,जा, अब तू खुद ही भीख माँगा कर।
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपए निकालकर पिता की ओर बढ़ाए,ले बापू, मेरी पहली कमाई…
हें! कंजर!! पहले दिन ही सौ रुपए!!! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमाकर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गये?
बस, ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।
अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?
नहीं, बिल्कुल नहीं।
अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ-आने, रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं…तुझ पर किस देवता की मेहर हो गयी?
बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश होकर पैसे दे देते हैं।
तू कौन-से नए ढंग की बात करता है कंजर? पहेलियाँ न बुझा। पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँगकर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है? पलभर की आँखों की शर्म है…हमारे पुरखे भी यही-कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है…हमारा तो यही रोज़गार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा…
बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैंने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज-मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करके आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपए दिए। सरदार कह रहा था, रोज़ आ जाया कर, सौ रुपए मिल जाया करेंगे…
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब-कुछ उलट-पलट दिया था।
कथाकार संपर्क : सरदार गुरुबख्श सिंह मैमोरियल अस्पताल, अड्डा नडाला, गाँव व डाकघर : नडाला, जिला:कपूरथला-144624/मो॰ 09815186532

लघुकथा संग्रह : परिवर्तन, कथाकार : माला वर्मा, प्रकाशक : अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, लघुकथा नगर, महेन्दू, पटना-800006(बिहार), संस्करण:2000, मूल्य:60/-

माला वर्मा का लघुकथा संग्रह परिवर्तन यद्यपि सन् 2000 में प्रकाशित हो चुका था, लेकिन समीक्षा हेतु अब प्राप्त हुआ है। पुस्तक के फ्लैप पर दर्ज परिचय के अनुसारलेखिका की यह पहली पुस्तक है तथापि उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रही हैं। एक कविता एकता का संकल्प कविता संकलन में भी स्थान पा चुकी है। परंतु पुस्तक के साथ संलग्न पत्र के द्वारा उन्होंने सूचित किया है कि इसके अतिरिक्त उनका एक कविता संग्रह सूरज की चाह, तीन कहानी संग्रह बसेसर की लाठी, नीड़ तथा म्यूनिसिपैलिटी का भैंसा एवं पाँच यात्रा संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। पुस्तक की भूमिका डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा ने लिखी है। शीर्षक दिया है—‘छोटी-छोटी कथाओं की संभावनापूर्ण कथाकार:माला वर्माछोटी-छोटी कथाओं की… क्यों? लघुकथाओं की… क्यों नहीं? क्या इसलिए कि वह लघुकथाओं की संभावना से फिलहाल दूर नजर आती हैं? दो शब्द के अन्तर्गत माला वर्मा ने लिखा है—‘…इस उद्देश्य को पाने में छोटी-छोटी लघुकथाएँ ज्यादा कारगर साबित होंगी। छोटी-छोटी ही क्यों? (सिर्फ) लघुकथाएँ क्यों नहीं? उन्होंने आगे लिखा है—‘इनमें छिपा संदेश अगर किसी का मन परिवर्तन (सही शब्द-प्रयोगपरिवर्तित) करे या कुछ सोचने को मज़बूर करे, तो मैं अपने इस प्रयास को सार्थक समझूँगी।
रचनात्मक साहित्य की समकालीन भूमिका संदेश देने या मन-परिवर्तित करने की नहीं है। यह काम आजकल बापुओं ने सँभाला हुआ है।
संग्रह में कुल 60 लघुकथाएँ हैं जिनमें से अधिकतर के कथानक की व्याख्या भूमिकाकार ने कर दी है। उन्होंने लिखा है कि लेखिका की भाषा सहज, सरल और स्वाभाविक है। दरअसल, यह बड़ा कॉमन वाक्य है। वास्तविकता यह है कि (यह बात इस संग्रह की कुछ लघुकथाओं के बारे में है) लेखिका के पास लघुकथा की भाषा तो है (देखें—‘सेवा, तर्क, हादसा आदि) उसको अपनाए रखने का धैर्य और सावधानी नहीं है। यही कारण है कि संग्रह की अधिकतर रचनाएँ कहानी के फॉर्म में लिखी नजर आती हैं। संग्रह का प्रकाशन लघुकथा नगर से होने के बावजूद लघुकथाओं की भाषा अगर उनकी अपनी न हो तो अफसोस होना स्वाभाविक है। संग्रह में प्रूफ की गलतियाँ बार-बार स्वाद खराब करती हैं।
अंत में, इस विश्वास के साथ कि माला वर्मा लघुकथा में भाषा-संबंधी चुनौती पर पार पाकर शीघ्र ही दूसरा संग्रह हिन्दी साहित्य को देंगी, उन्हें बधाई।

प्रस्तुत है परिवर्तन से एक लघुकथा बहू हो तो ऐसी

अम्माजी, आप कहें तो दिन के खाने में गोभी-आलू की सब्जी, करेले का भरता, बैंगन-भाजा और पुदीने की चटनी बना लूँ? अरहर की दाल तो आपको पसंद है ही, गोभी-आलू न खाना चाहें तो कहें, अन्य सब्जी बना लूँगी…
अरे नहीं…नहीं बहू, तूने जो सोचा है, ठीक है। मेरा क्या, जो दोगी, वही खा लूँगी।
ऐसा नहीं हो सकता अम्माजी, आप इस घर की बुजुर्ग सदस्या हैं। आपकी आज्ञा से ही मुझे अपनी घर-गृहस्थी चलानी है।
बहू, तू तो साक्षात लक्ष्मी है। ईश्वर ऐसी बहू सबको दे।
मैं वहीं खड़ी सास-बहू का वार्तालाप सुन रही थी। मुझे अपनी सहेली पर सचमुच फख्र हो आया। इस आधुनिक परिवेश में कौन बहू अपने सास-ससुर का मन देखती है, खासकर खाने-पीने में किसी बुजुर्ग की इच्छा-अनिच्छा तो कुछ भी मायने नहीं रखती।
सहेली के मना मरने के बावजूद मैं उसके पीछे-पीछे रसोई घर में चली गईसहेली का हाथ ही बँटा दूँ।
पर यह क्या? रसोईघर के स्लैब पर पहले से ही वही सब सब्जियाँ कटी पड़ी थीं जो उसने कुछ देर पहले अपनी सास से पूछी थीं। मुझसे रहा न गया। पूछ बैठी,अच्छा, जब तूने सारी तैयारी एडवांस कर रखी थी, फिर झूठमूठ सास से पूछने का नाटक क्यों किया?
अरे, तू कुछ नहीं समझती। दरअसल, मेरी जो इच्छा होती है शत-प्रतिशत वही खाना बनाती हूँ। बुढ़िया से तो बस औपचारिकतावश पूछ लेती हूँ। वो भी खुश। पर हाँ, पूछने का तरीका मालूम होना चाहिए…
मैं अवाक उसका मुँह ताकती रह गई।
कथाकार संपर्क : हुकुमचंद जूट मिल, हाजीनगर, 24परगना(उत्तर), पश्चिम बंगाल/दूरभाष:03325887942

11 comments:

  1. चलिए कम से कम आप तो अपने काम को ईमानदारी से अंजाम दे रहे हैं। यह अच्‍छी बात है। इन संग्रहों पर आपकी खरी खरी पढ़कर अच्‍छा लगा।

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  2. भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु ने निम्न मेल भेजा है:
    HIMANSHU to me
    10:45 PM (5 minutes ago)
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति, सभी का लेखा जोखा ! हार्दिक बधाई ।
    काम्बोज

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  3. Balram ji , dher saaree samagree
    jutaa kar hum sab par aap sadaa upkaar karte hain . Aapke dwaraa
    laghu katha se sambandhit har tarah kee jankaree mil jaatee hai.
    Aapkaa hardik sadhuwad .

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  4. बलराम,

    तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो. इतनी सामग्री --विभिन्न पुस्तकों-पत्रिकाओं से---बधाई. काम ही बोलता है, पुरस्कार नहीं.

    सप्रेम,

    चन्देल

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  5. इला जी ने मेल द्वारा यह संदेश भेजा है--
    ILA PRASAD to me
    show details 4:51 PM (5 hours ago)
    बलराम जी, यह अंक तो पढ़ गई| इतनी सारी अच्छी-अच्छी लघुकथाएं थी|
    क्या कोई अंक, साईट ऐसा है जो यह बताता है कि लघुकथा के आवश्यक तत्व क्या हैं और मापदंड क्या है? हो तो मुझे भेजें|
    मुझे लघुकथा का व्याकरण जानना है |
    सादर
    इला

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  6. 'सरस्वती सुमन' का 'लघु-कथा' अंक मेरी निगाहों से गुजरा है, वाकई यह महाविशेषांक ही है. पर मात्र सम्पादकीय प्रूफ में किसी गलती के आधार पर पत्रिका में समाहित सामग्री पर प्रश्न-चिन्ह लगाने का औचित्य गले के नीचे नहीं उतरता.

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  7. प्रिय भाई रत्नेश कुमार मौर्य,
    टिप्पणी के लिए धन्यवाद। जनगाथा में 'सरस्वती सुमन' के अलावा भी सामग्री है। उस पर भी टिप्पणी करते तो अच्छा लगता। प्रश्नचिह्न 'सरस्वती सुमन' की सामग्री पर नहीं, अंत तक पसरी प्रूफ की गलतियों पर है, ध्यान से पढ़ें।

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  8. विशेषांकों व संकलनों पर टिप्पणियों के साथ लघुकथाएं अच्छी हैं. श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ.राम प्रकाश व डॉ. नडाला जी की लघुकथाएं प्रभावित करती हैं.

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  9. भाई बलराम अग्रवाल जी,

    'सरस्वती सुमन' पत्रिका से मैं रू-ब-रू हुआ था, अत: उस पर प्रतिक्रिया दी. जिस पत्रिका या पुस्तक को मैंने नहीं पढ़ा, मात्र किसी एक पोस्ट के आधार पर भला क्या टिप्पणी दे सकता हूँ. फ़िलहाल, सादर इण्डिया का 'लघु कथा' विशेषांक भी मेरे पास आ गया है. काफी श्रम किया है संपादक शील मधुर जी ने, पर फिर भी कई जगह प्रूफ की गलतियाँ हैं. मैं तो पेशे से ही अध्ययन-अध्यापन से जुड़ा हूँ और हिंदी में कम ही ऐसी पत्रिका मिलेगी जहाँ प्रूफ की गलतियाँ ना हों.

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  10. प्रिय रत्नेश जी
    आपकी यह टिप्पणी भी पिछली टिप्पणी की प्रति ही है। 'जनगाथा' के इस अंक में टिप्पणी के लिए जिस सामग्री की ओर मैंने संकेत किया था, आप उसे अभी भी नहीं समझ पाए। बहरहाल, यह बताने के लिए धन्यवाद कि 'हिंदी में कम ही ऐसी पत्रिका मिलेंगी जहाँ प्रूफ की गलतियाँ ना हों।' मैं इस सत्य से अब तक अपरिचित ही था।

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