‘जनगाथा’ के इस अंक में प्रस्तुत हैं कथाकार श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाएँ। इनकी लघुकथाओं में व्यक्त आम आदमी के संत्रास, पीड़ा, व्यथा पाठक को उस बिंदु पर छूते हैं जहाँ किसी जमाने में ‘कहानी’ छुआ करती थी। इन्हें पढ़कर पाठक न तो तिलमिला पाता है और न ही हँस या मुस्करा पाता है। वह इनमें व्यक्त उद्वेलनकारी स्थितियों पर सोचने को विवश होता है। इनकी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये चमत्कारपूर्ण शब्दों की भूलभुलैया में पाठक को न घुमाते रखकर कथा को सीधे-सीधे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि उसी में से संवेदना का कोई गहरा सूत्र पाठक तक पहुँच जाता है। समाज के निरीह, त्यक्त और लगभग विस्मृत पात्रों की स्थिति पर ये न तो आँसू बहाते हैं और न उसे सुधारने के लिए निरा नारा ही हवा में उछालते हैं। यह सारा काम ये पाठक पर ही छोड़ देते हैं। वस्तुत: यही समकालीन लघुकथा का हेतु भी है और यही शक्ति भी।
--बलराम अग्रवाल
लगभग बारह वर्ष का एक लड़का आँख बचा कर खाना खा रही बारात में शामिल हो गया। उसने तरह-तरह के पकवानों से प्लेट भर ली और खाने के लिए एक तरफ खड़ा हो गया।
उसका हाथ तेजी से चल रहा था और मुँह भी। अपने मैले वस्त्रों एवं टूटी हुई चप्पलों के कारण वह शीघ्र ही प्रबंधकों की निगाह में आ गया।
“चल भाग साले, बाप का माल है क्या?” देखने वाले ने उसको जोरदार झिड़की दी। इस झिड़की का उसपर कोई असर नहीं हुआ। बस उसके मुँह और हाथ ने और तेजी पकड़ ली।
एक ने उसके हाथ से प्लेट छीनने की कोशिश करते हुए थप्पड़ मारा। छीना-झपटी में प्लेट नीचे गिर पड़ी। भोजन उठाने के लिए वह नीचे झुका तो पीछे से किसी ने जोर की ठोकर मारी। उसका चेहरा दर्द की लकीरों से भर गया। इससे पहले कि एक और ठोकर लगती, वह भाग कर पंडाल से बाहर हो गया।
“आज तो मजा आ गया! रोटी बहुत स्वाद है। कितना ही कुछ है। जा तू भी आँख बचा कर घुस जा।” बाहर पहुँच कर उसने अपने छोटे भाई से कहा।
उत्सव
सेना और प्रशासन की दो दिनों की जद्दोजेहद अंतत: सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फंसे नंगे बालक प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे।
दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रानिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा खिंडने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा हो गया। टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे थे। अपना साजोसामान समेट कर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के गाँव का एक युवक आया और बोला, “हमारे गाँव में भी ऐसा ही…”
युवक की बात पूरी होने से पहले ही संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, “क्या तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?”
“नहीं।”
युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा फिर से बुझ गया, “तो फिर क्या?”
“हमारे गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है,” युवक ने बताया।
“तो फिर मैं क्या करूँ?” झुँझलाया संवाददाता बोला।
“आप महकमे पर जोर डालेंगे तो वे गड्ढा बंद कर देंगे। नहीं तो उसमें कभी
भी कोई बच्चा गिर सकता है।”
संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, “ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवैल में गिरे मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें इनाम दिलवा दूँगा।”
साझा दर्द
वृद्धाश्रम में गए पत्रकार ने वहाँ बरामदे में बैठी एक बुजुर्ग औरत से पूछा, “माँ जी, आपके कितने बेटे हैं?”
औरत बोली, “ न बेटा, न बेटी। मेरे तो कोई औलाद नहीं।”
पत्रकार बोला, “आपको बेटा न होने का गम तो होगा। बेटा होता तो आज आप इस वृद्धाश्रम में न होकर अपने घर में होती।”
बुजुर्ग औरत ने उत्तर में थोड़ी दूर बैठी एक अन्य वृद्धा की ओर इशारा करते हुए कहा, “वह बैठी मेरे से भी ज्यादा दुखी। उसके तीन बेटे हैं। उससे पूछ ले।”
पत्रकार उस दूसरी बुढ़िया की ओर जाने लगा तो पास ही बैठा एक वृद्ध बोल पड़ा, “बेटा, इस वृद्धाश्रम में हम जितने भी लोग हैं, उनमें से इस बहन को छोड़ कर बाकी सभी के दो से पाँच तक बेटे हैं। परंतु एक बात हम सब में साझी है…”
“वह क्या?” पत्रकार ने उत्सुकता से पूछा।
“वह यह कि हम में से किसी के भी बेटी नहीं है। बेटी होती तो शायद हम यहाँ नहीं होते।” वृद्ध ने दर्दभरी आवाज में कहा।
साझेदार
घर की मालकिन का कत्ल कर सारी नकदी व गहने साधव ने थैले में समेट लिए। वह जब मकान से बाहर निकला तो अकस्मात लोगों की निगाह में आ गया। ‘चोर-चोर’ का शोर मच गया तो हड़बड़ाहट में उससे चोरी का स्कूटर भी स्टार्ट नहीं हो पाया। लोगों से बचने के लिए वह पैदल ही भाग लिया।
पूरा दम लगाकर भागते साधव को लग रहा था कि पीछे दौड़ रहे लोग शीघ्र ही उसकी गरदन मरोड़ डालेंगे। अपने बचाव हेतु वह शीघ्रता से पुलिस-थाने में दाखिल दो गया।
साधव के पीछे लगी भारी भीड़ को देख थानेदार को लगा कि वह उसे नहीं बचा पायेगा। उसने उसे दूसरे रास्ते से बाहर निकाल दिया। जब साधव थाने से बाहर निकला तो उसके थैले का वज़न पहले से कम हो गया था।
लोगों को थानेदार की करतूत का पता लग गया। वे फिर से साधव के पीछे हो लिए।
साधव को अपनी जान फिर से संकट में घिरी लगी। प्राण बचाने हेतु वह पूरी शक्ति लगा दौड़ा और बड़े नेता की कोठी में प्रवेश कर गया।
जब तक लोग नेता की कोठी पर पहुँच कोई कारवाई करते, तब तक साधव को पिछले दरवाजे से कार द्वारा भगा दिया गया।
साधव जब घर पहुँचा तो उसके थैले में मात्र कुछ गहने ही बचे थे।
अनमोल ख़ज़ाना
अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुंदर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, “इसमें मेरा अनमोल ख़ज़ाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी।”
एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बंद करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैने डिबिया बाहर निकाली। मैने उसे हिला कर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्त्व के सोने अथवा चाँदी के कुछ सिक्के संभाल कर रखे हुए हैं।
मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को। जब सास मृत्युशय्या पर थी और हम उससे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं–‘ले बेटी ! तेरी माँ के पास तो बस यही है देने को।’
मैने थैली खोल कर पलटी तो पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे– तीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिला कर दस रुपये।
मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।
माँ का कमरा
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘मां, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बसंती गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है मां, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा मां को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “मां, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!”
“हां मां, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आंखों में आंसू आ गए।
वापसी
पत्नी के त्रियाहठ के आगे मेरी एक न चली। अपने खोये हुए सोने के झुमके के बारे में पूछने के लिए, उसने मुझे डेरे वाले बाबा के पास जाने को बाध्य कर दिया।
पत्नी का झुमका पिछले सप्ताह छोटे भाई की शादी के अवसर पर घर में ही कहीं खो गया था। बहुत तलाश करने पर भी वह नहीं मिला।
बाबा के डेरे जाते समय रास्ते में मेरी पत्नी बाबा जी की दिव्य-दृष्टि का बखान ही करती रही, “पड़ोस वाली पाशो का कंगन अपने मायके में खो गया था। बाबाजी ने झट बता दिया कि कंगन पाशो की भाभी के संदूक में पड़ा दीख रहा है। पाशो ने मायके जाकर भाभी का संदूक देखा तो कंगन वहीं से मिला। जानते हो पाशो का मायका बाबाजी के डेरे से दस मील दूर है।”
मैं कहना तो चाहता था कि ऐसी बातें बहुत बढ़ा-चढा कर की गईं होती हैं। परंतु मेरे कहने का पत्नी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, इसलिए मैं चुप ही रहा।
पत्नी फिर बोली, “…और अपने गब्दू की लड़की रेशमा। ससुराल जाते समय रास्ते में उसकी सोने की अंगूठी खो गई। बाबाजी ने आँखें मूँद कर देखा और बोल दिया– नहर के दूसरी ओर नीम के वृक्ष के नीचे घास में पड़ी है अंगूठी।…और अंगूठी वहीं से मिली।”
गाँव के बाहर निकलने के पश्चात बाबा के डेरे पहुँचते अधिक देर नहीं लगी। बाबा अपने कमरे में ही थे। हमने कमरे में प्रवेश किया तो सब सामान उलट-पुलट हुआ पाया। बाबा और उनका एक शागिर्द कुछ ढूँढने में व्यस्त थे।
हमें देख कर बाबा के शागिर्द ने कहा, “बाबा जी थोड़ा परेशान हैं, आप लोग शाम को आना।”
मैने पूछ लिया, “क्या बात हो गई?”
“बाबा जी की सोने की चेन वाली घड़ी नहीं मिल रही। सुबह से उसे ही ढूँढ रहे हैं।” शागिर्द ने सहज भाव से उत्तर दिया।
वापसी बहुत सुखद रही। पत्नी सारी राह एक शब्द भी नहीं बोली।
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श्याम सुंदर अग्रवाल : संक्षिप्त परिचय :
8 फरवरी 1950 को कोटकपूरा (पंजाब) में जन्मे श्याम सुन्दर अग्रवाल ने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की है। लेखन, संपादन और अनुवाद के माध्यम से वह हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। इनके द्वारा मौलिक रूप से लिखित, संपादित एवं अनूदित कृतियों का विवरण निम्न प्रकार है:-
मौलिक : ‘नंगे लोकां दा फिक्र’ तथा ‘मारूथल दे वासी’(लघुकथा संग्रह, पंजाबी में)
संपादित : 23 लघुकथा संकलन पंजाबी में तथा 2 संकलन हिंदी में।
अनुवाद : 4 लघुकथा संग्रह( हिंदी से पंजाबी भाषा में अनुवाद)
संपादन : पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका ‘मिन्नी’ (1988 से निरंतर)
संपर्क : बी-1/575, गली नं:5, प्रताप सिंह नगर, कोटकपूरा (पंजाब)-151204
दूरभाष: 01635222517,01635320615 मोबाइल:09888536437
श्याम सुंदर अग्रवाल की रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया।
ReplyDeleteबलराम,
ReplyDeleteश्यामसुन्दर अग्रवाल की लघुकथाएं बहुत उत्कृष्ट बन पड़ी हैं. एक साथ इतनी रचनाएं पढ़वाने के लिए आभार.
चन्देल
SHYAM SUNDER AGRAWAL KEE SABHEE
ReplyDeleteJEEWANT LAGHUKATHAAON KO PADH KAR
PATAA CHALTA HAI KI YE VIDHA ITNEE
LOKPRIY KYON HO RAHEE HAI.BAAT
SACHCHEE YE HAI--
LAGHU KATHAAYEN AAJ KEE
JON NAAVIK KEE TEER
DIKHNE MEIN CHHOTEE LAGEN
GHAANV KAREN GAMBEER
कहानियां पढ़कर मन आनंद आ गया,
ReplyDeleteश्याम सुन्दर अग्रवाल जी की लघु कथाएँ अन छुए विषयों को उठाती हैं और पूरी संवेदना के साथ उसकी गहरे लिए प्रस्तुत होती हैं.इन की सहजता को बधाई ,.भाई बलराम अग्रवाल जी उत्कृष्ट रचनाओं को जन गाथा के माद्ध्यमसे ला रहें मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteFine
ReplyDeleteChandel
Jeevant sahitya. Aabhaar.
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
एक साथ इतनी उत्कृष्ट रचनाएं पढ़वाने के लिए आभार. माँ का कमरा तो बहुत ही मार्मिक रचना है जो समाज की अच्छाइं को भी निकाल कर लाती है।
ReplyDeleteमा का कमरा व रोटी की ताकत अच्छी रचनाएं है
ReplyDeleteवैसे श्याम सुन्दर नपी तुली कथाएं लिखते हैं और
अपने फ़्रेमवर्क का कभी अतिक्रमण नहीं करते।
Balramji
ReplyDeleteaapka yeh manch sakaratmak soch ke saath apni raah pahadon se nikal pane mein safal hua hai.
श्याम सुंदर जी कि लघुकथाएं पढ़कर अपने आप से परिचित होता है आम आदमी
मां का कमरा----
बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
और फिर बेटे का कहना
“मां, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
एक अनजान भय से परिचित करा जाता है यह दृश्य, सुनते हैं, देखते हैं और जीते भी हैं .आज कि जवान पीड़ी के बीच में पुराणी पीड़ी-एक पीडा कचोट जाती है कि आदमी जिस मोड़ पर आज ठहरा है, कल वहां कौन होगा.
ये लघुकथा अपना सन्देश दिल के दरवाज़े पर बिना दस्तक दिए कहाँ लौट पाठी है.
देवी नागरानी