–बलराम अग्रवाल
॥1॥ खलनायक
नटवर ने लड़खड़ाते हुए किसी तरह मंच का रास्ता तय किया। लड़खड़ाकर पथिकजी के पैरों में गिर पड़ा–“आप मेरे पिता समान हैं। आपके आशीर्वाद के बिना मैं अध्यक्ष नहीं बन सकता। थोड़ी देर पहले ऊल–जलूल बातें कहकर मैंने अपने कुछ विरोधियों को नाराज़ कर दिया है। वे गोष्ठी का बहिष्कार करके वापस जा चुके हैं। अब सिर्फ़ दो-तीन लोग मेरा विरोध कर सकते हैं, पर मौज़ूद लोगों में ऐसा कोई नहीं है जो आपकी बात टाल दे।”
“रात–भर तुम मुझे गालियाँ देते रहे हो, अब चिरौरी कर रहे हो!” पथिक जी ने कड़े स्वर में कहा।
“मेरे जैसे लोगों की गालियों पर आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरा करते।” नटवर लड़खड़ाती आवाज़ में बोला।
“तुमको विमल ने इस कार्यक्रम के लिए जो दो सौ रुपए दिए थे, वे कहाँ गए?” पथिक जी ने नटवर को फटकारा।
नटवर अपने होठों पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत करते हुए फुसफसाया–“रात उन पैसों की शराब पी ली थी।’’ पथिकजी के पैरों को फिर हाथ लगाते हुए बोला–“अब ऐसा नहीं होगा। अब मैं सच्चे मन से साहित्य-सेवा करूँगा।”
“वह सेवा तुम कर ही रहे हो। साहित्य के नाम पर गालियों की वमन प्राय: करते रहते हो। कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन तुम स्वयं एक भद्दी गाली बनकर रह जाओ। तुम्हीं अध्यक्ष बनो या कोई और बने, इससे हमें कोई मतलब नहीं।’’ कहकर पथिकजी उठ खड़े हुए और चलने के लिए मंच से उतर आए।
“चलो इस बुढ़ऊ का भी पता साफ हुआ।” नटवर ने एक–एक शब्द चबाते हुए गर्दन हिलाई और एक भद्दी–सी गाली हवा में उछाल दी।
॥2॥ विक्षिप्त
स्वामी अजयानन्द का प्रवचन हो रहा था। श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे–“मनुष्य का चोला न जाने कितनी योनियों में चक्कर काटकर मिला है। परमात्मा का दिया हुआ यह शरीर परोपकार में ही लगाना चाहिए। जैसा भोजन होगा, वैसा ही हमारा मन होगा। तामसिक पदार्थों से हमें दूर रहना चाहिए। हाथी जैसा जानवर शाकाहारी होता है जिसके बल का कोई ठिकाना नहीं। सुरापान और मांसाहार करने वाले लोगों के समान अधम इस धरती पर कोई नहीं। ऐसे लोग रौरव नरक का कष्ट भोगते हैं। सात्विक व्यक्ति सपने में भी पर-नारी का चिन्तन नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों के परिवार में नारियों की पूजा होती है। उनके घर में देवता वास करते हैं।”
स्वामीजी बोल ही रहे थे कि कोने में बैठा एक श्रोता अपने को नियंत्रित न कर सका। वह आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ स्वामीजी के निकट पहुँचा–“क्यों भाई मेलाराम, ये गेरुआ बाना पहनकर क्या नाटक रचा रखा है? तुमने दिल्ली में शराब की दुकान का ठेका अब तक ले रखा है। अपनी साध्वी पत्नी विमला को तुमने मिट्टी का तेल छिड़ककर जला दिया था। यही है नारी की पूजा! रही बात पर-नारी की, अपनी पुत्रवधू को भी तुम रखैल बनाकर रखे हुए हो।”
स्वामीजी की आँखों में तनिक भयमिश्रित क्रोध झलका। पर वे तुरन्त ही सँभल गए–“लगता है बच्चा तुम्हे कोई भ्रम हुआ है। तुम्हें मानसिक रोग भी हो सकता है। प्रभु पर आस्था रखो, तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे।”
“मुझे कुछ नहीं हुआ। मैं राजे हूँ, जिसके साथ तुम पढ़ते थे। कहो तो तुम्हारी जाँघ का वह निशान भी दिखा दूँ, जो तुम्हारे साले द्वारा गोली मारने से हुआ था।”
भक्तगण बर्रे की तरह चारों तरफ एकत्र हो गए। स्वामीजी मुस्करा रहे थे–“भक्तो, यह कोई विक्षिप्त व्यक्ति है। बेचारे को ईश्वर ने क्या सजा दी है! इसकी सोचने की शक्ति ही चली गई।”
उपस्थित समुदाय क्रुद्ध हो उठा। स्वामीजी ने हाथ उठाकर सबको मना किया। तब भी सबने लातों और घूँसों से उसको अधमरा करके बाहर सड़क के किनारे फेंक दिया।
॥3॥ पिघलती हुई बर्फ़
वे दोनों इतनी ऊँची आवाज़ों में बोलने लगे, जैसे अभी एक–दूसरे का खून कर देंगे।
“मैं अब इस घर में एक पल नहीं रहूँगी।” पत्नी चीखी–“बहुत रह चुकी इस नरक में!” क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे, टाँगें काँप रही थी। आँखों से आँसू बहने लगे थे।
“यह निर्णय तुम्हें बहुत पहले कर लेना था, अल्पना!” पति ने घाव पर नमक छिड़का।
“अभी कौन–सी देर हो गई है!”
“जो देर हो गई है, मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।” वह एक–एक शब्द चबाकर बोला।
“....।”
उसने सिगरेट सुलगाई। पैर मेज पर टिकाए। धुएँ के छल्ले अल्पना की ओर उड़ाकर लापरवाही से घूरने लगा।
“तुमने कहा था न कि मेज पर पाँव टिकाकर नहीं बैठूँगा।” अल्पना ने आग्नेय दृष्टि से पति की ओर घूरा।
“कहा था।” और उसने पैर नीचे उतार लिए।
“और सिगरेट! इतनी खाँसी उठती है फिर भी सिगरेट पीने से बाज नहीं आते।” वह आगे बढ़कर पति के मुँह से सिगरेट झपटने को हुई तो उसने स्वयं ही सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।
“और कुछ!” वह गुर्राया।
“हाँ–हाँ जो–जो भी मन में हो, तुम भी कह डालो।” वह अपने कपड़े अटैची में ठूँसती जा रही थी और सुबक रही थी।
वह एकटक देखता रहा। चुपचाप। उसके होंठ कुछ कहने को फड़कने लगे।
“क्या तुम मुझे कुछ भी नहीं कह सकते?” वह भरभरा उठी। शिकायती लहजे में बोली–“मैंने मेज से पाँव हटाने के लिए कहा, आपने हटा लिए। मैंने सिगरेट पीने से मना किया, आपने सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।”
“किसी की सुनो तो कोई कुछ कहे भी। तुमने सुनना सीखा ही नहीं। मैं कहकर और तूफान खड़ा करूँ?”
“ठीक है। मैं जा रही हूँ।” वह भरे गले से बोली और पल्लू से आँखें पोंछने लगीं।
“इतनी आसानी से जाने दूँगा तुम्हें?” पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली–‘‘जाओ खाना बनाओ, जल्दी। मुझे बहुत भूख लगी है।”
अल्पना गीली आँखों से मुस्कराई और रसोईघर में चली गई।
॥4॥ अपने–अपने सन्दर्भ
इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–“जानते हो, यह कैसा दर्द है?” मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–“यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।”
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
“मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।” मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–“आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।”
“तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।” वेद बाबू ने हँसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–“लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?”
“मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।” वे हँसे।
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर में कहा–“रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए? कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।”
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–“उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएँगी…” कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
॥5॥ टुकड़खोर
अभय खा–पीकर कमर सीधी करने के लिए लेटा ही था कि घर के कोने पर एक कुत्ता ज़ोर–ज़ोर से भौंकने लगा। उसने खिड़की से उस पर कंकड़ दे मारा। चोट खाकर कूँ–कूँ करता हुआ कुत्ता वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
कुछ क्षण बाद वह चादर ओढ़कर लेटा ही था कि कुत्ते की आवाज़ और तेज हो गई। लगा, जैसे वह उसके सिर पर ही भौंक रहा है। वह भुनभुनाया, “दफ्तर में साहब नहीं चैन लेने देते। रात के नौ बजे जाकर पिण्ड छोड़ा, वह भी सुबह जल्दी आने की मीठी हिदायत के साथ। आज दिन–भर फाइलों में आँखें टाँकनी पड़ीं। उल्टे–सीधे काम करें साहब, सब शिकायतों के जवाब तैयार करे वह। टरकाते भी नहीं बनता। न जाने साहब का माथा कब गरम हो जाए? कब उसे रूखी–सूखी सीट पर पटक दे? इस दफ्तर में क्लर्की करना कुत्ता घसीटी से भी बदतर है। हरदम जी–जी कहते हुए मुँह सूख जाता है। मेडिकल क्लेम में अड़ंगे लगने का खटका न होता तो मजा चखा देता खूसट को।”
भौंकने की आवाज़ रात के गहराते सन्नाटे को चाकू की तरह चीरने लगी। वह झुँझलाकर उठा–“हरामजादे, तेरी खबर लेनी पड़ेगी।”
उसने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनकर कुत्ता भौंकते–भौंकते बेहाल हो उठा। वह डण्डा उड़ाने लगा तो पत्नी ने टोका, “आज क्या हो गया है आपको? अगर यह कुत्ता रात–भर भौंकता रहा तो आप रात–भर डण्डा लेकर इसके पीछे दौड़ते रहेंगे क्या?”
“बिना डण्डा खाए यह चुप होने वाला नहीं।” वह झल्लाया।
“आप रुकिए।” कहकर पत्नी उठी और कटोरदान से एक रोटी निकाल लाई। अत्–अत् की आवाज़ लगाकर पत्नी ने रोटी गली में फेंक दी।
कुत्ते ने लपककर रोटी उठाई। एक बार पीछे मुड़कर देखा और तीर की तरह दूसरी गली में तेजी से मुड़ गया।
॥6॥ स्नेह की डोर
हेमराज और दिनों की तरह आज भी अपने पिता खेमराज से झगड़ रहा थ। उसका कहना था–“पड़ोसी हमारी बैलगाड़ी माँगकर ले जाते हैं। कभी पहिया तोड़ लाते हैं, कभी जूआ। भरपाई कौन करे?”
“अभी मैं जिन्दा हूँ। तू खुद को घर का मुखिया मत समझ। मैं जिन लोगों के बीच रह रहा हूँ, उनको कैसे मना कर दूँ। आखिरकार मेरी कुछ इज्ज़त है। तू है कि हर जगह मेरी पगड़ी उछालने पर तुला रहता है।”
“ठाली बैठे हुक्का गुड़गुड़ाने के सिवा कौन–सा काम करते हो? मैं कुछ काम करूँ तो उल्टे उसमें टाँग ज़रूर अड़ा देते हो। खेत में खाद की ज़रूरत हो तो कहोगे कि खाद में सारी कमाई झोंक रहा हूँ। कुछ करूँ तो मुसीबत, न करूँ तो मुसीबत।”
“मैं इस घर से ही चला जाता हूँ।” खेमराज ने कहा।
“हाँ– हाँ ठीक है।” हेमराज ने माथा पकड़ लिया–“जाओ, जहाँ जी चाहे।”
“ठीक है, जा रहा हूँ। लौटकर इस घर में पैर नहीं रखूँगा।’’ खेमराज चादर कांधे पर डालकर चल दिया। हेमराज की पत्नी ठगी–सी ससुर और पति की चखचख सुन रही थी। तीन वर्षीया बेटी रमा उसका आंचल पकड़े सहमी खड़ी थी। उसने पूछा–“माँ, बाबा कहाँ जा रहे हैं?”
“तुम्हारे बाबा रूठ गए हैं। बहुत दूर जा रहे हैं बेटी। तुम रोक लो।”
रमा ने बाबा की अंगुली पकड़ ली–“बाबा, ना जाओ।” खेमराज कुछ नहीं बोले तो वह सुबकने लगी–‘‘ना जाओ बाबा। मुझे कहानी कौन सुनाएगा? झूला कौन झुलाएगा?”
उसका सुबकना बंद नहीं हुआ। खेमराज ठिठक गया। उसके पाँव आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। हेमराज ने लम्बी साँस ली–“ठीक है। तुम्हारी बात ही ऊपर रही बापू। इस बच्ची की बात मान लो। लोग मुझ पर थूकेंगे कि मैंने बाप को घर से निकाल दिया।”
खेमराज पोती का हाथ पकड़कर चौपाल में लौट आए–“ठीक है, तू कहती है, तो नहीं जाएँगे। चले जाएँगे तो तुझे कहानी कौन सुनाएगा?” कहते हुए खेमराज की आँखें डबडबा आई।। रमा ने एक बार बाबा की आँखों में देखा और खरगोश की तरह उनकी गोद में दुबक गई।
॥7॥ पागल
कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गली–मुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों से अब सिर्फ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–“मारो इस हरामी का।” और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–“अरे–रे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभी–कभी मस्जिद की सीढि़यों पर बैठा रहता है।” युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से ‘बचाओ–बचाओ’ की चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगे–आगे चलने वाले युवक ने कहा–“अरे महेश, इसे ऊपर पहुँचा दो।”
पागल खिलखिलाकर हँस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–“इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है जो कभी–कभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।”
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई। पागल पुन: खिलखिलाकर हँस पड़ा।
जन्म: 19 मार्च,1949
शिक्षा: एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) , बी एड
प्रकाशित रचनाएँ: 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आंसू','दीपा','दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर'(लघुकथा संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।
सम्पादन:’आयोजन’ एवं www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेब साइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
वेब साइट पर प्रकाशन: रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष आदि ।
प्रसारण: आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।
निर्देशन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य
सेवा: 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त।
संपर्क: 37 बी /2 रोहिणी सैक्टर 17,नई दिल्ली-110089
मोबाइल: 09313727493
भाई बलराम, तुमने हिमांशु जी की जो सात लघुकथाएं चुनकर “जनगाथा” में लगाई हैं, नि:सदेह वे सब एक से बढ़ कर एक हैं। लघुकथा में जिस रचनात्मक कसाव की हम अपेक्षा करते हैं, वह इन सभी लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। विषय का निर्वहन किस खूबसूरती से हो कि लघुकथा पाठक के दिलो-दिमाग पर अपनी छाप छोड़ दे, यह हिमांशु जी बखूबी जानते हैं। “खलनायक” और “विक्षिप्त” दोगले चरित्रों पर सटीक लघुकथाएं हैं। “पिघलती हुई बर्फ़” और “अपने अपने सन्दर्भ” ह्रदयस्पर्शी लघुकथाएं हैं और “टुकड़खोर” और “पागल” हमें एक पल रूक कर सोचने को विवश करती लघुकथाएं हैं। जितनी श्रेष्ठ ये लघुकथाएं हैं, उतना ही श्रेष्ठ तुम्हारा चयन है। इसे बनाये रखो और ऐसी ही जानदार और उत्कृष्ट लघुकथाओं को “जनगाथा” के माध्यम से विश्व पाठक से सामने लाते रहो।
ReplyDeleteश्रेष्ठ चयन.
ReplyDeleteएक से बढ़ कर एक लघुकथाएं, सोचने को विवश करती हैं