1. चौदहवाँ रत्न
बात लोकतंत्र युग की है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष में प्रायः युद्ध चलता रहता था। एक बार दोनों को सूझा कि अपनी शक्ति का इस प्रकार अपव्यय न करके समुद्र मंथन का महत् कार्य किया जाए। बस फिर क्या था, दोनों पक्ष जुट गए - रत्नों का मोह जो था। एक के बाद एक रत्न निकलते चले गए। दोनों पक्षों ने एक एक कर बाँट लिए। तेरहवें नंबर पर कालकूट विष निकला। उसे कौन बाँटता? शंकर जी से प्रार्थना की गई तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया क्योंकि पहली बार पिए विष का प्रभाव अब तक न गया था उनके कंठ से।
अंत में लोकतंत्र की दुहाई दी गई और तेहरवा रत्न दोनों पक्षों की पूर्ण सहमति से जनता को समर्पित कर दिया गया।
समुद्र मंथन चलता रहा। अचानक भीषण गर्जना के साथ चौदहवाँ रत्न प्रकट होने लगा। दोनों पक्ष हर्ष से चीख उठे - “अमृत”! लेकिन सभी ने चौंक कर देखा अमृत नहीं निकाला था ‘कुर्सी’ प्रकट हुई थी।
फिर क्या था? दोनों पक्षों ने मंथन छोड़ दिया और कुर्सी को जा पकड़ा। जिसके हाथ में जो भी हिस्सा आया वह जकड़े रहा।
दोनों पक्ष कुर्सी के दांवेदार थे। खींचतान चलती रही।
तभी काँधे पर झोला लटकाए नेता-वेशधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। दोनों पक्षों ने अपनी दलीलें पेश कीं। भगवान विष्णु ने झोले से कुछ काग़ज़ निकाले और एक पक्ष के हवाले कर दिये। ये 'अख़बार' थे। फिर झोले में हाथ डाला और एक मोटी सी पुस्तक निकाल कर दूसरे पक्ष के हवाले कर दी। उसके ऊपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था- 'संविधान'।
सुना जाता है, उसी दिन से दोनों पक्ष अख़बार और संविधान पढ़ पढ़ कर लड़ रहे हैं। नेता-वेशधारी भगवान विष्णु शेष शय्या छोड़कर आनंद से कुर्सी पर सोए हुए हैं।
लोग कहते हैं, युग बदल रहा है। (1.12.1981)
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2. असली हामिद
इक्कीसवीं सदी।
आज ईद है। ईदगाह पर भारी भीड़ है। पिछली शताब्दी के महान कथाकार प्रेमचंद मेले में अपने कथानायक बालक हामिद को खोजते फिर रहे हैं। हिंडोले के पास देखा, खिलौनों की दुकान पर देखा, मिठाइयों की दुकान पर देखा, कहीं कोई हामिद नहीं दिखा।
हार झख मारकर कथाकार लोहे की चीजों की दुकान पर भी पहुँचे। और यह क्या, यहाँ तो बच्चों की कतार लगी है! इनमें हामिद को ढूँढ़े भी तो कैसे? वे एक बच्चे का नाम पूछते हैं और सब बच्चे अभी अभी खरीदे हुए चिमटों पर हाथ फेरते हुए कहते हैं - "मैं हामिद हूँ।"
प्रेमचंद भौंचक।
"तुम सब हामिद कैसे हो सकते हो - असली हामिद कौन सा है?"
"हम सब असली हामिद हैं।" उन्होंने बन्दूक की तरह चिमटे कंधों पर रख लिए हैं।
(1.12.1981)
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3. शरण
रामकली 21 वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी। उसका पति एक सड़क दुर्घटना में मर गया था, दो बच्चे छोड़ कर। लोगों के बर्तन माँज माँज कर और बच्चे खिला खिला कर वह अपने बच्चे पाल रही थी।
गंगा सिंह मोहल्ले का दादा था और नेता भी। उसने रामकली को कई बार छेड़ा। पर रामकली ने हाथ न धरने दिया। एक शाम गंगासिंह दरोगा जी को लेकर आ गया। दोनों नशे में धुत्त।
रामकली ने पड़ोसी अचपल के घर में शरण ली। पीछे से वे दोनों भी आ गए; और चार सिपाही भी। अचपल और उसके परिवार वालों को पीटा गया। सबको घसीट कर थाने ले जाया गया।
गंगासिंह, दरोगा जी और सिपाही एक ही 'तश्तरी' में खाते-पीते रहे। रामकली शरण माँगती रही। परशरणदाता अचपल और उसके लड़कों को तो बलात्कार के आरोप में हवालात में बंद कर दिया गया था! (2.12.1981)
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4. मोहलत
एक ट्रक दुर्घटना हो गई। बिल्लू को भारी चोटें आई। अस्पताल मे दाखिल किया गया। कोई कोशिश काम न आई और वह चल बसा।
बिल्लू के परिवार वाले डाक्टर के पाँवों पर गिड़गिड़ा रहे थे, "डाक्टर साहब, हम गरीब आदमी हैं। मेहनत मजदूरी करके दो जून रोटी जुटा पाते हैं। हमें एक हफ्ते की मोहलत दे दीजिए, कहीं से किसी से कर्जा लेकर आपकी फीस चुका देंगे। रहम कीजिए, डाक्टर साहब।"
डॉक्टर का चेहरा भावशून्य रहा, होठों ने स्पष्ट किया, "मोहलत ही मोहलत है। मैंने लाश रोक ली है, पेमेंट कर जाना और लाश ले जाना।" (6.12.1981)
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5. अलादीन का चिराग़
…और अलादीन ने चिराग घिसा। मेघ-गर्जन के साथ 'जिन' प्रकट हुआ, "मैं हाज़िर हूँ, मेरे आका, हुक्म फरमाएँ!"
अलादीन ने तीन बार कहा, "राशन… राशन…राशन!"
'जिन' अंतर्धान हो गया। लंबे समय बाद फिर उपस्थित हुआ।
"कहाँ है राशन? लाए?" अलादीन ने पूछा। 'जिन' चुप रहा।
"मैं पूछता हूं, तुम्हारे थोबड़े पर बारह क्यों बजे हैं?"
"माफ़ करें, मेरे आका! मैं सब कुछ कर कर सकता हूँ, राशन नहीं ला सकता!''
"क्यों? क्या कहीं नहीं है?"
"है! लेकिन गोदामों में। और रोज लद-लर कर परदेस जा रहा है। रूप और रुपये का ऐसा तांत्रिक-पहरा बैठा है कि मेरा प्रवेश नामुमकिन है।"
"यह पहरा कैसे टूटेगा? मेरी तो आँते बजने लगी हैं!"
'जिन' एक घड़ी तक चुपचाप खड़ा रहा।… और फिर अचानक गायब हो गया- हमेशा के लिए।
और अगली सुबह…
अलादीन ने चिराग़ फोड़ दिया था। वह मुट्ठियाँ भींचे सड़क पर आ गया था। (7.12.1981)
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6. भुखमरी
पहले पृष्ठ का समाचार :
खाद्यमंत्री ने लोकसभा को बताया कि देश से भुखमरी समाप्त कर दी गई है। पिछले वर्ष गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों में से अधिकांश की स्थिति अब गरीबी-रेखा से ऊपर है।
अंतिम पृष्ठ का समाचार:
पुलिस ने राजधानी की एक सड़क पर कुत्तों की तरह भौंकते और लोगों पर झपटते एक बच्चे को गिरफ्तार करके केंद्रीय अस्पताल पहुँचा दिया। डाक्टरों का कहना है कि बच्चा कुपोषण का शिकार है। जाँच करने पर पता चला है कि जब उसे भूख से बिलखता छोड़कर उसके गरीब माँ-बाप मजदूरी पर चले जाते हैं, तो वह गली की एक कुतिया के स्तनों से चिपट जाता है। पिल्लों से उसकी दोस्ती हो गई है, यों वे उसे अपने हिस्से का दूध पीने देते हैं! (24.7.1982)
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7. गुलेल
एक दिन—
वह मुँह लटकाए गली से गुज़र रहा था। उसने कभी यह न सोचा था कि ईमानदारी की ज़िद उसे इतनी महँगी पड़ेगी। उसे उसके साथियों ने झूठे आरोपों में फँसा दिया था। उसकी नौकरी छिन चुकी थी। साथियों ने जश्न मनाया था। रोजी छिनने से वह उदास था।
तभी उसने देखा, एक बच्ची के हाथ से कौआ टुकड़ा छीन कर ले गया। रोटी छिनने से बच्ची रोने लगी।
अगले दिन—
वह मुँह लटकाए उसी गली से गुजर रहा था। तय नहीं कर पा रहा था कि रोटी और ईमानदारी में से किसे चुने, जबकि उसे दोनों की ही जरूरत है।
तभी उसने देखा, वही बच्ची हाथ में गुलेल लिए कौओं पर पत्थर दाग रही है! (25.7.1982)
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8. संवाद
प्रथम अंक :
यह कैसा शोर है री ?
शादी है।
बहुत सजावट है, बहुत धूमधाम?
और बहुत दहेज भी!
द्वितीय अंक :
यह कैसा शोर है री?
बहू जल मरी.
बहुत बुरा हुआ, बहुत दुःखद?
और बहुत अन्याय भी !
तृतीय अंक :
यह कैसा शोर है री?
जुलूस है।
बहुत भीड़ है, बहुत नारे?
और बहुत गुस्सा भी!
चतुर्थ अंक :
यह कैसा शोर है री?
लड़कियाँ हैं।
बहुत नई, बहुत तेज़?
और बहुत विद्रोही भी। (26.7.1982)
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9. वरदान
आदमी ने कहा, "हे भगवान! यह अव्यवस्था कब तक चलेगी? इसे कैसे जीतूँ?"
और भगवान ने उसे कुर्सी दे दी।
आदमी ने कहा, "हे भगवान! यह भ्रष्टाचार कब तक चलेगा? इसे कैसे छिपाऊँ?"
और भगवान ने उसे टोपी दे दी।
अब आदमी मजे में है! (30.7.1982)
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10. पूजाघर
अख़बारों में लगातार छप रहा था- चंडीगढ़ में सिखों का प्रदर्शन, मंदिर का पुजारी मरा, हिंदुओं ने किया बंद का आह्वान, जालंधर में कर्फ्यू… वगैरह वगैरह!
इन समाचारों की छाया में दो बच्चे गुरमीत और सोनिया सिर जोड़े बतिया रहे थे। गुरमीत के पापा और सोनिया के डैडी एक ही बाप की औलाद हैं। लेकिन अपने परंपरागत रिवाज के मुताबिक बाप ने एक बेटे को हिंदू संस्कार दिए थे और दूसरे को सिख। दोनों के घरों में गुरुओं की भी पूजा होती थी और अवतारों की भी।
पर आज गुरमीत रो रोकर सोनिया का बता रहा था, "पापा ने भगवान राम वाला कैलेंडर कमरे की दीवार पर से उतार दिया है।"
सोनिया भी रो पड़ी, "भैया! डैडी ने आज गुरु नानक की तस्वीर पूजाघर से हटा दी। मैंने वहीं रखने की ज़िद की तो मेरी पिटाई कर दी।" फिर राज़ खोलने के अंदाज़ में बोली, "पर मैंने चोरी से वह तस्वीर अपने बस्ते में छिपा ली है।"
गुरमीत ने इधर-उधर देखा, जैसे किसी के सुन लेने का डर हो, "रो मत मेरी बहन! हम दोनों अलग पूजाघर बनाएँगे इन दोनों तस्वीरो का। देख मैंने भी पापा का उतारा हुआ कैलेंडर छिपाया हुआ है।"
और उसने अपने कपड़ों में से मुड़ा-तुड़ा कैलेंडर निकालकर सोनिया के बस्ते वाली तस्वीर के बराबर में रख दिया। (31.7.1982)
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
जन्म : 4 जुलाई, 1957। ग्राम गंगधाड़ी, जिला मुजफ्फर नगर, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : एमए (हिंदी), पीएचडी ( हिंदी : 1970 के पश्चात की हिंदी कविता का अनुशीलन)।
कार्य : 1. परामर्शी (हिंदी), दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद (2019-वर्तमान)। 2. प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास (सेवानिवृत्त : 2015)। 3. खुफिया अधिकारी, इंटेलीजेंस ब्यूरो, भारत सरकार (1983-1990)।
14 काव्य संग्रह : तेवरी (1982), तरकश (1996), ताकि सनद रहे (2002), देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ, 2011), प्रेम बना रहे (2012), प्रेमा इला सागिपोनी (2013: तेलुगु अनुवादक- जी. परमेश्वर), प्रिये चारुशीले (2013: तेलुगु अनुवादक- डॉ. भागवतुल हेमलता), सूँ साँ माणस गंध (2013), धूप ने कविता लिखी है (2014), ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म (2015, 2021: संपादक/समीक्षक- डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह), देहरी (2021: राजस्थानी अनुवादक- डॉ. मंजु शर्मा), IN OTHER WORDS (2021: अंग्रेज़ी अनुवादक/संपादक/समीक्षक- प्रो. गोपाल शर्मा), इक्यावन कविताएँ (2022), मलंग बानी (मुद्रणस्थ-2023)।
12 आलोचना ग्रंथ : तेवरी चर्चा (1987), हिंदी कविता: आठवाँ-नवाँ दशक (1994), साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000), कविता का समकाल (2011), तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ (2013), तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय (2015), हिंदी भाषा के बढ़ते कदम (2015), कविता के पक्ष में (2016), कथाकारों की दुनिया (2017), साहित्य, संस्कृति और भाषा (2021), हिंदी कविता: अतीत से वर्तमान (2021), रामायण संदर्शन (2022)।
7 वैचारिक निबंध संग्रह : संपादकीयम् (2019), समकाल से मुठभेड़ (2019), सवाल और सरोकार (2020), इलेक्शन गाथा (ऑनलाइन: 2020)/ लोकतंत्र के घाट पर (ऑनलाइन; किंडल: 2020), कोरोना काल की डायरी (ऑनलाइन; किंडल: 2020), खींचो न कमानों को (ऑनलाइन; किंडल: 2022), और न खींचो रार (ऑनलाइन; किंडल: 2022)।
शोध निर्देशन : डीलिट-2; पीएचडी-34; एमफिल-106.
विशेष : अनंग प्रकाशन, दिल्ली ने 2022 में ‘धूप के अक्षर’ शीर्षक से दो भागों में 700 पृष्ठ का 'प्रो. ऋषभदेव शर्मा अभिनंदन ग्रंथ' प्रकाशित किया (संपादक- डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा)।
'शोधादर्श' पत्रिका ने नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) से फरवरी 2023 में 134 पृष्ठ का 'प्रो. ऋषभदेव शर्मा विशेषांक' प्रकाशित किया (संपादक- अमन कुमार त्यागी)।
संपर्क : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद– 500013 (तेलंगाना)।
मोबाइल : 8074742572 ईमेल: rishabhadeosharma@yahoo.com
आभारी हूँ।
ReplyDeleteआभारी हूँ।
ReplyDeleteएक महान व्यक्तित्व, उनके कृतित्व और चंद रचनाओं से परिचित करवाने के लिए जनगाथा और बलराम भाई का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteएक ही गाँव की माटी के दो लेखक, एक डॉ शर्मा एक मैं।
ReplyDeleteगर्व हुआ एक बार फिर डॉ साहब की रचनाएं पढ़कर।
बहुत अच्छी लघुकथाएं
ReplyDeleteबहुत उम्दा लघुकथाएं।अभी तक कहां छिपी थी भाई।
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