Sunday, 30 January 2022

सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ-2 / कल्पना भट्ट

गतांक से आगे...

पुस्तक  : ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल  (पड़ाव और पड़ताल खंड ३०) 

आलोचक  :  कल्पना भट्ट


सम्पादक : मधुदीप 

सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ-2


३. वैचारिक लघुकथाएँ : ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक कुछ सोचने हेतु  विवश कर दें , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी के शामिल किया है। इनमें  ‘उसकी पींग’, ‘सिक्सटी प्लस’, ‘कठपुतली’, ‘लिहाज’ ‘प्रतिशोध’, ‘संवेदना’, ‘आईनेवाला डिसूजा’, ‘पड़ाव’, ‘रिश्तों की भाषा’, ‘शहर की रफ़्तार’, ‘मोक्ष-श्लोक’, ‘चिड़िया उड़’ और ‘गाय-माँ’ का शुमार किया है |  

अशोक वर्मा की लघुकथा ‘उसकी पींग’ लघुकथा में कथानायक एक पार्क में अपने पोते को झूला झुलाता है, वहीँ एक गरीब बच्चा भी आता है और उसको झूले को पींग डालने को कहता है| परन्तु कथानायक उसकी गरीबी को देखते हुए उसकी बातों को अनसुनी कर देता है | गरीब बच्चा पुनः प्रयास करके झूले पर चढ़ जाता है और हवा से बातें करते हुए आनंदित हो उठता है| वह झूले पर से गिर न जाए अब यह चिंता उसको सताती है परन्तु वह चलते झूले से कूद कर मिट्टी में गिर जाता है और हँसते हुए वहाँ से चला जाता है| कथानायक को लगता है जैसे वह गरीब बच्चा उसकी अमीरी का उपहास करके चला गया है | इस कथानक के द्वारा लेखक अमीर लोगों की गरीबों के प्रति हीनभावना  पर विचारनीय प्रश्न खड़ा कर रहा है | उषा भदौरिया की लघुकथा ‘सिक्सटी प्लस’ का कथानक उन बुजुर्गों के इर्द-गिर्द घूम रहा है जो अपने परिवारवालों से उपेक्षित हो जाते हैं, ऐसे में इस कथा के बुज़ुर्ग अपना एक व्हाट्सअप ग्रुप बना लेते हैं और एक दूसरे की कुशल-क्षेम लेते रहते हैं और अगर कोई ग्रुप में नहीं आ पाता तो उसकी खोज-खबर लेने उसके घर पहुँच जाते हैं, और जरूरत पड़ने पर उसको अस्पताल पहुँचा देते हैं | ऐसा ही कुछ इस लघुकथा की कथानायिका के साथ हुआ जो एक बुज़ुर्ग  महिला है जिसका बेटा उसको देखने अस्पताल आता है, क्योंकि माँ को माइनर स्ट्रोक आता है, पूछताछ करने के बाद इस सिक्सटी प्लस व्हाट्सअप ग्रुप का पता चलता है, बेटा माँ से आधे घंटे की दूरी पर रहता है परन्तु बेटा व्यस्तता का बहाना बनाता है, “पर माँ ने उसे कभी नहीं बताया।” कथानायिका के साथी उसको उसकी लापरवाही का आईना दिखाकर उसको आशीर्वाद देकर चले जाते हैं| यह एक सुलझी हुई, समाज को  आईना दिखानेवाली  एक सुन्दर लघुकथा है| स्वाभाविक भाषा-शैली, प्रवाहमयी संवादों से यह लघुकथा उत्कृष्टता के पायदान पर खड़ी मिलती है।

बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि अगली लघुकथा ‘कठपुतली’ इन पंक्तियों की लेखिका की है |  इस लघुकथा के विषय में मैं क्या कहूँ ? इस लघुकथा पर डॉ.ध्रुव कुमार ने इसके शीर्षक को प्रतीकात्मक कहा है जो अपनी सार्थकता को गहराई तक जाकर सिद्ध करता है | वह कहते हैं, “ यह लघुकथा शनैः –शनैः घनी एवं सुष्ठु बुनावट के साथ क्रमशः विकास पाती है और क्षिप्रता के साथ अपने गंतव्य पर पहुँचकर पाठकों को संवेदना से भर देती है|” रूप देवगुण के अनुसार– “यह लघुकथा उद्देश्यपूर्ण, रोचक तथा सार्थक है।”

कुमार गौरव की लघुकथा ‘लिहाज’ उन भटके हुवे युवा वर्ग पर आधारित लघुकथा है जो सिगरेट फूँकने में नहीं झिझकते परन्तु अपने बड़ों की मर्यादा रखते हैं और उनसे अपनी आदात को छिपाने का प्रयास करते हैं| यह दो पीढ़ियों की आपस की समझ-बूझ पर आधारित एक श्रेष्ठ लघुकथा है | दिव्या राकेश शर्मा की 8लघुकथा ‘प्रतिशोध’ के माध्यम से लेखिका ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि ‘प्रतिशोध’ लेना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है| महाभारत के पात्र अश्वत्थामा को प्रतीक बनाकर अत्मत्काथात्मक शैली में लिखी गयी  एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसकी भाषा-शैली कथ्य के अनुरूप है | नंदकिशोर बर्वे की लघुकथा ‘संवेदना’  पुराणों के पात्रों के माध्यम से वर्तमान के संवेदनहीन सरकारी यंत्र को चित्रित करती है। मुकेश शर्मा की लघुकथा ‘आइनेवाला डिसूजा’ में आईने को बिम्ब बनाकर लेखक ने इस सत्यता को चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि, ‘सुख के सब साथी, दुःख में न कोय’ | इसका प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है , लेखक को इसके शीर्षक पर पुनः विचार करना चाहिए ऐसा मेरा मत है | योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘पड़ाव’ पति-पत्नी के बीच सच्चे प्रेम को दर्शाती एक संवेदनशील लघुकथा है | इस लघुकथा का शिल्प तथा संवाद की भाषा-शैली ने इस लघुकथा के कथ्य को उत्कृष्टता प्रदान की है | इसका शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | विरेन्दर ‘वीर’ मेहता की लघुकथा ‘रिश्तों की भाषा’ संवाद-शैली में लिखी गयी एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें लेखक यह बताना चाह रहा है कि दैहिक प्रेम क्षणिक होता है परन्तु आत्मिक प्रेम सच्चा होता है और सफल भी | इसका शीर्षक भी कथ्य के अनुरूप है | सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘शहर की रफ़्तार’ में लेखक ने यह चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि गाँव से जब कोई व्यक्ति पहली बार किसी शहर आता है तो यहाँ के कोलाहल में वह यहाँ आने का कारण तक  भूल जाता है, और संवेदनहीन लोगों के मध्य आकर अपने गाँव के लोगों के निश्छल प्रेम को कहीं खो देता है और इसी शहरी जीवन में प्रताड़ित हो जाता है| इस लघुकथा का कथ्य, भाषा-शैली सभी उत्तम हैं और शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | सतीश दुबे की लघुकथा ‘मोक्ष-श्लोक’ आध्यात्मिक विषय पर लिखी गयी एक दुरूह रचना है जिसमें पति-पत्नी के मध्य शरीर और आत्मा को लेकर वार्त्तालाप हो रहा है कि इन्सान की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा भी संग जायेगी अगर पति-पत्नी के बीच आध्यातिक प्रेम हो तब| यह एक मिथ्या बात है| इस लघुकथा के कथ्य से पूर्ण रूप-से मेरी सहमति नहीं बन पा रही है| संध्या तिवारी की लघुकथा ‘चिड़िया उड़’ में लेखिका ने माँ के वात्सल्य भाव को चित्रित करने का सुन्दर सद्प्रयास किया है कि माँ की आँखों में प्यार की जितनी गहराई होती है वह अन्य कहीं नहीं मिल सकती | ‘चिड़िया उड़’ बच्चों के एक खेल को प्रतीक बनाकर लेखिका ने माँ के प्यार को सर्वाधिक  उत्कृष्ट बतलाया है जो लेखिका के लेखन-कौशल को प्रदर्शित कर रहा है | हरनाम शर्मा की लघुकथा ‘गाय-माँ’ के माध्यम से लेखक ने समाज के उस वर्ग पर करारा प्रहार किया है जो गाय को माँ तो कहता है परन्तु वह सिर्फ इसलिए कि गाय एक उपयोगी प्राणी है, वरना उसकी देखभाल करने में वह कतराता है |  इसका कथानक, भाषा-शैली लघुकथा के अनुरूप हैं और इस कथा को उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक बने हैं | इसका शीर्षक भी सटीक है| 

४. अन्यान्य लघुकथाएँ : अध्य्यनोपरांत इस पुस्तक में सम्मिलित सभी लघुकथाओं में दो लघुकथाएँ ऐसी लगीं जो  व्यंग्यात्मक एवं मनोवैज्ञानिक हैं| ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में लिया है| ‘भीड़तन्त्र’ और ‘दोजख की आग’ | 

तेजवीर सिंह ‘तेज’ की लघुकथा ‘भीड़तन्त्र’ व्यंग्यात्मक लघुकथा है जिसमें सरकार और पुलिसिया विभाग की कार्यप्रणाली और उनकी पदवी का दुरूपयोग करने  वालों  पर करारा व्यंग्य किया गया है | इसका विषय नया नहीं है,  परन्तु संवाद कथानुरूप हैं और शीर्षक भी | राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ आतंकवाद को आधार बनाकर लिखी हुई है, जिसमें  लोगों को भरमाकर आतंकवादी बना दिया जाता है और गुमराह कर दिया जाता है| पर जब उनकी आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो जाती है | 

अब मैं पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३० में धरोहर स्तम्भ के अंतर्गत मलयालम भाषी हिन्दी लघुकथाकार एन. उन्नी की उन ग्यारह लघुकथाओं पर संक्षेप में चर्चा करना चाहूँगी | वे लघुकथाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं- ‘कबूतरों से भी खतरा है’, ‘सर्कस’, ‘दूध का रंग’, ‘मरीज’, ‘तलाश’, ‘तबाही’, ‘वाह री दाढ़’, ‘सपनों में रावण’, ‘राम-राज्य’ और ‘पागल’| 

एन. उन्नी की सभी लघुकथाओं को गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् जहाँ तक मैं समझ पायी हूँ, ये सभी लघुकथाएँ वैचारिक हैं  जो पठनोप्रांत चिंतन-मनन हेतु किसी भी संवेदनशील पाठक को विवश कर देती हैं|  इनकी पहली लघुकथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’ में परतंत्रता से स्वतंत्रता की राह दिखाती लघुकथा कबूतरों को प्रतीक बनाकर लिखी गयी श्रेष्ठ रचना है| इसे लघुकथा माने या न माने यह विचार का विषय है |  कारण यह लघुकथा कालत्व दोष की शिकार है| दूसरी लघुकथा ‘सर्कस’ है जिसमें बन्धुवा मजदूरों को स्वतंत्रता की राह दिखाती तथा समुचित अधिकार के प्रति सतर्क करती है, निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ लघुकथा है| ‘दूध का रंग’ लघुकथा में सरकारी विद्यालयों की पढ़ाई एवं छात्र-छात्राओं के स्तर को संप्रेषित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है, किन्तु यदि इसके आरंभिक भाग को क्षिप्र कर दिया जाए और कालत्व दोष से इसे मुक्त कर दिया जाए तो यह लघुकथा प्रशंसा की पात्र बन सकती है|  इनकी चौथी लघुकथा दुरूह है किन्तु गहरे पानी पैठने पर बल देती इस लघुकथा में व्यावसायियों की स्वार्थपरकता पर गंभीरता से विचार किया गया है कि इस वर्ग को किसी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो मात्र और मात्र अपने लाभ से मतलब है| पाँचवीं लघुकथा में यह सुन्दर विचार अभिव्यक्त किया गया है कि सच्चाई की राह पर चलने वाले कभी गद्दी की चिन्ता नहीं करते | वे जीवन-पर्यन्त इस हेतु संघर्ष करते ही रहते हैं| छठी लघुकथा में दवा के धंधे पर प्रहार किया गया है कि दवा में मिलावट के कारण नायक की पत्नी उसे संतान का मुँह दिखाये बिना इसी मिलावट के कारण दिवंगत हो जाती है| सातवीं लघुकथा ‘वाह री दाढ़’ में दाढ़ को प्रतीक बनाकर यह सन्देश संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि व्यक्ति को मात्र सुनना ही नहीं, अपितु देश की समस्याओं पर पढ़ना एवं उस पर चिंतन-मनन भी करना चाहिए| यह भी एक दुरूह लघुकथा है  जो गंभीरता से कई बार पढ़ने एवं स्वयं पर विचार करने की माँग करती है| आठवीं लघुकथा व्यवसायियों के सोच को प्रत्यक्ष करती है कि यह वर्ग मात्र अपने स्वार्थ एवं अधिकाधिक धन कमाने में विश्वास करता है| उनके इस सोच से गरीबों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं है | इनकी नौवीं लघुकथा ‘सपनों में रावण’ है जिसमें रावण को प्रतीक बनाकर भ्रष्टाचारियों के सोच को उजागर किया गया है| तात्पर्य यह है कि  हमारे देश में वर्तमान नेताओं के चरित्र की पोल खोलते हुए यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है कि ये लोग जनता का हित करने की अपेक्षा उन्हें धोखा देते हैं, ठगते हैं और स्वयं राजसी आनंद उठाते हैं और जनता को ‘राम-राज्य’ के स्वप्न दिखाते हैं| 

इनकी अन्तिम लघुकथा ‘पागल’ में दो बहनों में उत्पन्न ईर्ष्याभाव को प्रत्यक्ष करते हुए यह स्पष्ट करने का सद्प्रयास है कि जब कोई व्यक्ति किसी निकटतम व्यक्ति को प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देखता है, तो वह उससे ईर्ष्या करने लगता है| 

कुल मिलाकर मैं उन्नी की लघुकथाओं के विषय में यह कहना चाहूँगी कि इनमें कथात्मक रचनाएँ श्रेष्ठ हैं, जिन्हें विचार करने की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए, किन्तु यदि हम वर्तमान हिन्दी-लघुकथा की बात करें तो इनकी अधिकांश लघुकथाएँ कालत्व दोष की शिकार हैं  जिनपर विद्वानों को गहराई तक जाकर विचार करना चाहिए | 

अब यदि पड़ाव और पड़ताल के ३० वें खण्ड में प्रकाशित लघुकथाओं पर सामूहिक रूप-से निष्कर्ष निकालें तो कतिपय अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं जो आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठता के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकेंगी | अतः अपने अन्य खण्डों की भाँति ही यह तीसवाँ खण्ड भी न मात्र उपयोगी है, अपितु प्रत्येक लघुकथाकार के पास होने की आवश्यकता पर भी बल देता है| 

कल्पना भट्ट,

भोपाल (मप्र)


सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ-1/कल्पना भट्ट

पुस्तक  : ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल  (पड़ाव और पड़ताल खंड ३०) 

आलोचक  :  कल्पना भट्ट


सम्पादक : मधुदीप 

सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ-1

वर्तमान में लघुकथा ने जो हिन्दी-साहित्य-जगत् में जो स्थान पाया है, उसमें बहुतेरे लघुकथाकारों का योगदान रहा है, फिर वो चाहे वरिष्ठ हों या कनिष्ठ या फिर मेरे समकालीन ही क्यों न हों | अतीव हर्ष के साथ मैं यह कहना चाहती हूँ कि ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३०’ में ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं| प्रस्तुत संकलन में जहाँ डॉ. सतीश दुबे, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप, डॉ. कमल चोपड़ा, मधुकान्त, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, माधव नागदा, कुमार नरेन्द्र, कृष्ण मनु, योगराज प्रभाकर, प्रो. बी. एल. आच्छा, डॉ. रामकुमार घोटड़, मुकेश शर्मा, विभा रश्मि, रामकुमार आत्रेय, हरनाम शर्मा, अशोक वर्मा, जैसे वरिष्ठ लघुकथाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हैं जो इन्होने सन् २०११ के पूर्व लिखी हैं, और शेष सभी ४९ लघुकथाकार ऐसे हैं जिन्होंने सन् २०११ से इस विधा में पदार्पण किया है।

इन ६६ लघुकथाओं के अध्य्यनोपरांत इनको चार भागों में विभक्त किया जा सकता है : 

१. पारिवारिक लघुकथाएँ 

२. सामाजिक लघुकथाएँ 

३. वैचारिक लघुकथाएँ 

४. अन्यान्य लघुकथाएँ 


१. पारिवारिक लघुकथाएँ : पारिवारिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य यह है कि ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक परिवार के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, उनको मैंने इस श्रेणी में रखा है | ऐसी लघुकथाओं में ‘दहशत’ ‘प्यार’, ‘अपनी-अपनी दुआ’, ‘प्रेम’, ‘झोंपड़ी का दरवाजा’, ‘खबर’, ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ ‘सेहरा’, ‘पिछले पहर का दर्द’, ‘मुस्कुराहटवाली चादर’, ‘आ चल ना’, ‘लाइक एण्ड कमेन्ट्स’, ‘कुछ अनकहा’ , ‘डर’, ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’, ‘नई माँ’, ‘विछोह’, ‘रुक सत्तो’, ‘पापा’, ‘अधूरा-सा’, ‘खुलती गिरहें’, ‘दाद’ और ‘वह जो नहीं कहा’ का शुमार किया है | ‘अनिता ललित ’ की लघुकथा ‘दहशत’ वर्तमान शिक्षा-प्रणाली एवं परिणाम-उन्मुख की समस्या पर आधारित एक सुन्दर लघुकथा है| वर्तमान समय में हर माता-पिता अपने बच्चे से नब्बे प्रतिशत के ऊपर अंक लाने हेतु अपेक्षा करते हैं, और युवा विद्यार्थी भी बेहतर से बेहतर अंक लाने हेतु प्रयासरत्त रहते हैं, परन्तु वांछित परिणाम न मिल पाने के कारण  जहाँ अभिभावक अपने बच्चों को डाँट-फटकार देते हैं, वहीँ वर्तमान की संवेदनशील युवा-पीढ़ी आत्महत्या जैसे कुकृत्य कर अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है | वहीँ अगर बच्चे समझदार हों, जैसे इस लघुकथा में कथा-नायक का बेटा रिंकू, तो यह पूरे परिवार के लिए एक सुखद अनुभूति होती है | ऐसा ही सकारात्मक अंत देकर इस लघुकथा के उद्देश्य को सार्थक करने का लेखक ने सद्प्रयास किया है | बच्चों के गलत कदम उठाने के डर से दहशत में आ-जाते माता-पिता को अगर उनके बच्चों से ऐसा संतोषजनक उत्तर मिल जाता है जैसा कि इस लघुकथा के कथा-नायक रवि के बेटे रिंकू ने दिया, “बुरा? किस बात का बुरा?” हैरानी से रिंकू ने पापा की तरफ देखते हुए पूछा जो नज़रें चुरा रहे थे| उसने उनकी डरी-सहमी आँखों में झाँका और आगे बढ़कर उनके गले लगकर बोला, “आय एम सॉरी पापा! आपका बेटा हूँ, कुछ गलत नहीं करूँगा| मुझ पर भरोसा कीजिये |” ऐसा संतोषजनक उत्तर मिलने पर प्रत्येक अभिभावक की यही प्रतिक्रिया होगी जैसा कि रवि की हुई, ‘अब रवि ने अपनी डबडबाई आँखों को रिंकू से छिपाने की कोशिश नहीं की और उसे अपनी बाँहों में कस लिया|’ यह एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक लघुकथा सिद्ध होती है, जिसमें समस्या के साथ-साथ समाधान देने का दायित्व भी लेखक ने अपनाया है जो प्रशंसनीय है| इस लघुकथा का कथानक, भाषा-शैली एवं शीर्षक उत्कृष्ट हैं| ‘अनुराग शर्मा’ की लघुकथा ‘प्यार’ एक भावपूर्ण लघुकथा है जिसमें पत्नी के गैर-मर्दों के साथ हँस-हँस के बात करने वाली पत्नी और अपने ही पति,  यानी कि कथा-नायक हरिया की उपेक्षा करने वाली पत्नी से भी हरिया के निश्छल प्रेम को देखा जा सकता है| इस लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है जिससे यह लघुकथा पाठक के ह्रदय को स्पर्श कर जाती है| ‘अरुणकुमार गुप्ता’ की लघुकथा पति-पत्नी के आपस में परस्पर प्रेम और समर्पण की भावनाओं को दर्शाती एक सुन्दर लघुकथा है| ‘अशोक यादव’ की लघुकथा ‘प्रेम’ एक ऐसे विदुर वृद्ध को केंद्र में रखकर लिखी गयी है, जो अपने बेटे-बहू के होते हुए भी खुद को अकेला महसूस करता  है | उसकी मन:स्थिति को उसकी बहू समझ जाती है और वह अपने स्वसुर से कहती है, “बाबूजी ! जो घटना था, वह घट गया| माँ वापिस नहीं आने वाली, अपना ख्याल रखो|” तो बाबूजी फूट-फूटकर रोने लगते हैं| “बेटा ! तुम्हारे लिए वह एक घटना थी, मगर मैंने तो अपना साथी खो दिया है| मुझे तो घर की साँकल,कमरे की इस खूँटी, मेरे कुर्ते के बटन और सभी चीजों में वह दिखाई देती है| मैंने अपना ख्याल रखा ही कब, मेरा ख्याल भी तो वह ही रखती थी |” यह संवाद हाल ही में दिवंगत हुई पत्नी के पति के भावनात्मक पहलु को उजागर तो करता है, परन्तु इस दु:खद स्थिति में कोई व्यक्ति इतना सहज होकर इतना कुछ एक साथ ही बोल जाए, अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है | परन्तु इसके भावनातमक अंत, ‘बाबूजी फिर अपनी कुर्सी झुलाने लगते हैं और शारदा(उनकी बहू) उस प्रेम को समझने में लग जाती है जो उसे विगत पच्चीस सालों में दिखाई ही नहीं दिया|’ यह समापन वाक्य लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| ‘आशा शर्मा’ की लघुकथा ‘झोंपड़ी का दरवाज़ा’, इस शीर्षक से ही लघुकथा के परिवेश का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस लघुकथा का परिवेश झुग्गी-झोंपड़ी से होगा और है भी | झुग्गी-बस्ती में रहने वालों का सुन्दर चित्रण किया गया है, कि कैसे पत्नी अपने शराबी पति से परेशान तो होती है क्योंकि शराब के नशे में पति गाली-गलोज एवं मारपीट करता है, परन्तु पत्नी सब कुछ सहने को तैयार हो जाती है, पति को अगर कुछ हो जाए तो वह उसको बचाने का प्रयास करती है| इस लघुकथा में कथा-नायिका का पति भी इसी श्रेणी का है जो एक शराबी व्यक्ति है, और पत्नी को मारता-पीटता रहता है| कथा-नायिका उससे परेशान तो है, परन्तु वह उसे त्यागने की बजाय, यह सोचती है कि मेरा पति मेरी झोंपड़ी का दरवाज़ा है अन्यथा बिना दरवाज़े के कोई भी घर एक आम रास्ता बन जाता है|  झुग्गी-बस्ती में रहने वाली महिलाओं की पीड़ा और असुरक्षा की भावनाओं का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है| ‘कनक हरलालका’ की लघुकथा ‘खबर’, एक फौजी, जिसको  छुट्टियाँ नहीं मिल पातीं, उसके इंतज़ार में पत्नी की मानसिक पीड़ा को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यह एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इसके शीर्षक पर लेखिका को पुनः विचार करना चाहिए| 

‘कल्पना मिश्र’ की लघुकथा ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ बेटे-बहू से उपेक्षित एक पिता की दुर्दशा और उनकी विवशता को उजागर करती सुन्दर लघुकथा है| वह अपने ही घर में भूख से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसके कुछ समय पहले ही वह अपनी बेटी से आलू-टमाटर की सब्जी खाने की इच्छा व्यक्त करता है पर उसको खाने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है| बाबूजी की तेरहवीं के दिन तरह-तरह के पकवान देखकर बेटी की आँखों से आँसू बह निकलते हैं | कानों में बाबूजी के आखिरी शब्द गूँज रहे थे...’आलू-टमाटर की सब्जी, रोटी...|’ इस हृदयस्पर्शी अंत ने इस लघुकथा को उत्कृष्ट बना दिया है| इसका शीर्षक कथानक के अनुरूप है |‘कृष्णचन्द्र महादेविया’ की लघुकथा ‘पिछले पहर का दर्द’ बुजुर्गों की पीड़ा को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसमें माता-पिता एक-एक महीने की बारी में अपने तीन बेटों के बीच बाँट दिए गए हैं| ३० दिन तो उनको भोजन मिल जाता है परन्तु ३१ वें दिन उनको भूखा रहना पड़ता है| क्या यह विश्वसनीय है? किन्तु इसका भावनात्मक शीर्षक लघुकथा के अनुरूप है| ‘नीता सैनी’ की लघुकथा ‘मुस्कुराहटवाली चादर’ दो सहेलियों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमें कथा-नायिका रानो के पति की मृत्यु के पश्चात उसका पुनर्विवाह हो जाता है, उससे मिलने उसकी सहेली जब आती है तब वह उसकी कुशल-क्षेम जानने की इच्छा जताती है और रानो यह तो कहती है कि , उसका दूसरा पति उसको बहुत प्यार करता है अतः  उसके समक्ष उसको खुश होने का अभिनय करना पड़ता है, ताकि वो उदास न हो जाएँ|  रोते-रोते वह कहती है, “ वो(पूर्व पति) तो एक ही बार मरा लेकिन मैं तो रोज ही मरती हूँ| तिस पर कुछ लोग पीछे खुसर-फुसर करते हैं कि इसका क्या गया, इसको तो नया खसम मिल गया |” यह एक मर्मस्पर्शी लघुकथा है जिसमें समाज के संकीर्ण सोच को करीने से उकेरा गया है | इसका शीर्षक भी सटीक है जो लघुकथा को उत्कृष्टता प्रदान करता है | ‘नीलिमा शर्मा निविया’ की लघुकथा ‘आ चल ना’ में बढ़ती-उम्र के बावजूद पति-पत्नी के परस्पर प्रेम में कहीं कमी नहीं आती है | इस विषय को लेखिका ने बहुत सुन्दर ढंग से सुशिल्पित करते हुए उसे प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने हेतु सफल प्रयास किया है | ‘प्रदीपकुमार शर्मा’ की लघुकथा ‘लाइक एण्ड कमेण्ट्स’ में वर्तमान में बढ़ रही संवेदनहीनता का सुन्दर चित्रण किया गया है| मोबाइल संस्कृति ने अधिकांश परिवारों  में अपना जाल फैला रखा है एवं उन्हें अपना गुलाम बना रखा है| साथ ही सोशल साइट्स पर स्टेट्स अपडेट करना मानो फेशन- सा बन गया है| फिर चाहे अपने पिता की मौत ही क्यों न हो, और चिता ही क्यों न जल रही हो| इस बात की पुष्टि इन पंक्तियों से मिल जाती है, “उधर पिता की चिता जल रही थी, इधर शंकरलाल संतुष्ट हो गया था क्योंकि घंटेभर में ही नौ सौ लाइक्स और पाँच सौ कमेंट्स आ चुके थे|” विषय सुन्दर होने के बावजूद सटीक शिल्प न मिलने के कारण यह लघुकथा वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पायी | ‘महिमा वर्मा’ की लघुकथा ‘कुछ अनकहा’ में उन पति-पत्नी के लिए सन्देश है जो तलाक तक पहुँच जाते हैं, जिसका मुख्य कारण एक-दूसरे की नापसंद को न जानना होता है| पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होती तनावपूर्ण स्थितियों का समाधान प्रदान करती और अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा बन गयी है| ‘महेश शर्मा’ की लघुकथा ‘डर’ में बुज़ुर्ग दंपत्ति को अपने  भीतर बाल-बच्चों से अवहेलना का डर सताता है| इस अवहेलना से बचने हेतु बुज़ुर्ग महिला अपने पति को ही टोकती रहती है | घर के बुजुर्गों को अपने ही घर में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ रहा है| पाश्चात्य  संस्कृति का प्रभाव कहें या संयुक्त परिवारों का विलोप होना, इसका प्रमुख कारण है, और वर्तमान में आपाधापी की जीवन-शैली इसका एक अन्यन्य कारण है| जो भी हो... ऐसे में उनका इस प्रकार  का डर स्वाभाविक ही है अतः उससे बचने हेतु  इस लघुकथा की नायिका जिस प्रकार से अपने पति को बात-बात पर  टोकती है कि कहीं उनका बेटा-बहू उसके पति को न टोक दें जिसे वह सह न पाएगी | इस लघुकथा का उद्देश्य पाठक को विचार-विमर्श हेतु प्रेरित करता  है | ‘रामकुमार आत्रेय’ की लघुकथा ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’ पारिवारिक सास-बहू के मध्य कलह पर आधारित है जिसमें माँ का बेटा, और पत्नी का पति इन दोनों के मध्य सुलह करवाने की बजाय वहाँ से पलायन कर जाता है और त्रिभुज का तीसरा कोण शेष दो कोणों को जोड़कर रख पाने में असफल हो जाता है| इसका प्रतीकात्मक एवं कलात्मक शीर्षक प्रभावशाली एवं लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है| ‘विभा रश्मि’ की लघुकथा ‘नई माँ’ सौतेली माँ की छवि को बदलने हेतु एक बेहतरीन प्रयास है, जिसमें सौतेली माँ का सकारात्मक चित्रण किया गया है, यह अलग बात है कि समाज में इसकी सम्भावना कितनी हो सकती है!  यह बताने का सद्प्रयास किया गया है कि माँ तो सिर्फ माँ होती है| इस लघुकथा पर अभी और कार्य वांछित था मुझे ऐसा लगता है | ‘शशि बंसल’ की लघुकथा ‘विछोह’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें एक माँ अपने  बेटे के घर से बाहर जाने पर खीज जाती है, जो क्रोध नहीं अपितु अपने बच्चे से विछोह का दर्द खीज बनकर उत्पन्न होता है | न चाहते हुए भी वह चिढ़चिढ़ी हो जाती है जो उसके स्वाभाव में आ जाता है जिसका बड़े होने पर भी बेटे को तो कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु हाल ही में आई हुई बहू उनके इस बर्ताव को समझ नहीं पाती | वह इसका कारण जानने हेतु अपने पति से पूछती है तो कथानायक बेटा शिव कहता है, “मतलब माँ बनोगी तब समझ जाओगी|” माँ के बहुत ही संवेदनशील और स्वाभाविक व्यवहार  का उत्कृष्ट और प्रभावशाली चित्रण इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है जो प्रशंसनीय है | 

‘शोभना श्याम’ की लघुकथा ‘रुक सत्तो!’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है | इस लघुकथा की कथा-नायिका अपनों से प्यार न मिल पाने के कारण अन्य  में अपनापन तलाशती है | कथा-नायिका के बच्चे छुट्टियों में उसके पास आने का वादा करते हैं परन्तु किसी कारणवश वे नहीं आ पाते | कथा-नायिका जो सामान उनके लिए लेकर आई थी, सब अपनी नौकरानी को दे देती है, और इस तरह वह अपनी नौकरानी में ही अपनेपन को तलाशती है | इस लघुकथा के संवाद, भाषा-शैली, कथानक एवं शीर्षक प्रभावशाली बन पड़े हैं जिससे यह लघुकथा उत्कृष्ट बन गयी है | ‘संजीव आहूजा’ की लघुकथा ‘पापा’...से अविश्वसनीय कथानक के कारण सहमती नहीं बन पा रही है| ‘सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘अधूरा-सा’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें कथानायिका अपने अकेलेपन से जूझ रही है| बच्चे विदेश जाकर बस गए हैं, और पति अक्सर टूर पर रहते हैं| जब बच्चे कहते थे उनके साथ चलने को तब कथानायिका को अपने ही घर में शांति से रहने की इच्छा होती थी, समय व्यतीत हो जाने के बाद जब वह घर पर बिलकुल अकेली  रहने हेतु पर विवश हो जाती है, तो उसको वही शांति अखरने लगती है| एक अकेली नारी के मनोभावों  का बेहतरीन विश्लेषण इस लघुकथा में दृष्टिगोचर हो रहा है | ‘सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ की लघुकथा ‘खुलती गिरहें’ सास-बहू के मध्य की गिरहें खोलती हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है| इसके संवाद  स्वाभाविक और प्रभावशाली बन गए है, विषय पुराना होने के बावजूद इसका प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली बन पड़ा है| इस सुशिल्पित लघुकथा शीर्षक भी कथानक के अनुरूप है | ‘सारिका भूषण’ की लघुकथा ‘दाद’ घर में सब कुछ होने के बावजूद अकेलेपन की जो पीड़ा है, अपनत्व के न होने की जो टीस है, इसी  पृष्ठभूमि पर लिखी गयी आत्मकथात्मक शैली में एक विवाहित बेटी ने अपनी माँ को पत्र में अपनी व्यथा को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक श्रेष्ठ लघुकथा बन गयी है | ‘स्नेह गोस्वामी’ की लघुकथा ‘वह जो नहीं कहा गया’ डायरी शिल्प में लिखी गयी एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें कथानायिका का कोई नाम तो नहीं है, किन्तु एक पत्नी जो अपने पति से कुछ कह नहीं पाती वह अपने मन के उद्वेग को डायरी में लिखकर अभिव्यक्त कर रही है| इस लघुकथा में कालत्व दोष है | यह  वाक्य दृष्टव्य है : “तुमसे पूरी तरह न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही है|” यह नायिका की प्रेमाभिव्यक्ति में विरोधाभास उत्पन्न कर रहा है , इस वाक्य को न भी लिखती तो कथानक में कोई अन्तर नहीं पड़ता, ऐसा मेरा मत है | परन्तु इसका विषयवस्तु और शिल्प सटीक हैं जो लघुकथा के मर्म तक पहुँचाने में पर्याप्त सहायक होते हैं | 

२. सामाजिक लघुकथाएँ : सामाजिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य ऐसी लघुकथाओं से हैं जो सामाजिक सरोकार से सम्बंधित हैं , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में रखा है जो इस प्रकार हैं :- ‘लकीरें’, ‘न्योछावर’, ‘मंडी में रामदीन’, ‘उसका ज़िक्र क्यों नहीं करते’, ‘सामना’, ‘नीरव प्रतिध्वनि’, ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’, ‘जादू’, ‘सहमा हुआ सच’, ‘रेनकोट’, ‘आधे घन्टे की कीमत’, ‘संगमरमरी आतिथ्य’, ‘बड़े सपने’, ‘नमिता सिंह’, ‘कुणसी जात बताऊँ’, ‘बछडू’, ‘दोजख की आग’, ‘मर्दगाथा’, ‘ऑटोमैन के आँसू’, ‘देवदूत’, ‘माँ और बेटा’, ‘खेल’, ‘डंकवाली मधुमक्खी’, ‘सीढ़ियाँ’, ‘तृप्ति’, ‘मन का उजाला’, ‘बाँध’ और ‘दर्द’ ये लघुकथाएँ इस श्रेणी में रखी गयी हैं |  उषा अग्रवाल ‘पारस’ की लघुकथा ‘लकीरें’ से कथानक की अस्वाभाविकता के कारण सहमति नहीं बन पा रही है | कपिल शास्त्री की लघुकथा ‘न्योछावर’ से भी अस्वाभाविकता का शिकार होने के कारण सहमति नहीं बन पा रही है |  डॉ.कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘मण्डी में रामदीन’ एक श्रेष्ठतम लघुकथा है, जिसमें व्यापारियों द्वारा किसानों के हो रहे शोषण का अत्यंत स्वाभाविक एवं सटीक चित्रांकन किया गया है| इस लघुकथा में नायक जब मण्ड़ी में अपना सामान बेचने जाता है, वहाँ उसे बहुत ही कम दाम पर सामान बेचने हेतु विवश कर दिया जाता है, अंततः वह स्वयं को लुटा हुआ महसूस करता  हैं| और इतना ही नहीं, उसपर अवांछित खर्च भी लाद दिया जाता है, और उसके खाली हाथ किसी तरह घर लौटने हेतु विवश कर दिया जाता है|  इस लघुकथा के संवाद सटीक एवं पात्रों के चरित्रानुकूल है, जिससे मण्डी का सजीव चित्रण उभर कर आया है| कुणाल शर्मा की लघुकथा ‘उसका जिक्र क्यों नहीं करते’ संवाद शिल्प में लिखी हुई एक अत्युत्तम लघुकथा है जिसका विषय उन नवयुवकों और नवयुवतिओं पर आधारित है जो घर से भाग जाते हैं और लोगों की चर्चा का विषय बन जाते हैं जैसा कि इस लघुकथा के चार लोगों के बीच वार्त्तालाप  के द्वारा चित्रित किया गया है| ऐसे में अधिकांश लोग लड़की को ही दोषी मानते हैं| इस लघुकथा के अंत में चौथा व्यक्ति कहता है, “तो भाई, लड़के के बारे में भी कुछ बोलो, उसका जिक्र क्यों नहीं करते...?” इसका शीर्षक अपेक्षाकृत बड़ा तो है पर सटीक है | कृष्ण मनु की लघुकथा ‘सामना’ नारीसशक्तीकरण को बल देती लघुकथा है| इस लघुकथा की  विषयवस्तु और भाषा-शैली सर्वथा लघुकथा के विषयानुकूल है | चंद्रेशकुमार छतलानी की लघुकथा ‘नीरव प्रतिध्वनि’ अपने प्रतीकात्मक शिल्प एवं सटीक भाषा-शैली के कारण उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँच जाती है | इस लघुकथा का परिवेश सर्कस है जिसमें एक जोकर और एक निशानेबाज का खेल चल रहा है, और जोकर उस निशानेबाज से कहता है कि वह उससे भी बड़ा निशानेबाज है | निशानेबाज के पूछने पर जोकर अपनी कमीज के अन्दर हाथ डालकर एक छोटी थाली निकाल लेता है, इसपर निशानेबाज हँस देता है, लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखाकर कहता है, “मेरा निशाना देखना चाहते हो...देखो...” कहकर वह उस थाली को ऊपर हवा में उछाल देता है और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवॉल्वर निकालकर उड़ती थाली पर निशाना लगा देता है | यहाँ थाली उसके भूखे बच्चों के पेट का प्रतीक प्रतीत हो रही है | इस लघुकथा के प्रतीकात्मक शीर्षक ने  इस लघुकथा को अपेक्षाकृत और अधिक श्रेष्ठ बनाया है | चित्तरंजन गोप की लघुकथा  ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’ लघुकथा के अविश्वसनीय कथानक के कारण से सहमति नहीं बन पा रही है | जयेन्द्र वर्मा की लघुकथा ‘जादू’ भी अविश्वसनीयता के कारण से सहमति नहीं हो पा रही है एवं संवादों की वजह से, एक बच्चे के मुख से बड़ी-बड़ी बातें कहलवाई गयी हैं जो पूर्णतः अस्वाभाविक है|  जानकी बिष्ट वाही की लघुकथा ‘सहमा हुआ सच’ अपने सटीक शिल्प के कारण श्रेष्ठता की शिखर पर पहुँची है| दीपक मशाल की लघुकथा ‘रेनकोट’ के माध्यम से जो सन्देश प्रेषित हुआ है कि समयानुसार व्यक्ति को स्वयं को बदलना चाहिए, तात्पर्य यह है, कि अपनी पसंद-नापसंद को स्वयं पर हावी नहीं होने देना चाहिए| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, भाषा-शैली, बनावट एवं बुनावट एवं इसका शीर्षक सभी श्रेष्ठ हैं| बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘आधे घण्टे की कीमत’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इस लघुकथा का कथानायक इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसकी बातों को कोई सुनने को तैयार नहीं होता| वह अपने  स्यूसायिड नोट में लिखता है, “सुनने की अपनों को भी फुर्सत नहीं | जीना बेकार है|” तात्पर्य यह है कि कुछ लोग अत्यंत भावुक एवं संवेदनशील होते हैं और  ऐसे लोग अपने दिल की बात अपनों से कहने हेतु लालायित होते हैं, ऐसे में यदि उनकी बातें न सुने तो वे आहत हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा घृणित कु-कृत्य कर बैठते हैं| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, शीर्षक, संवाद, भाषा-शैली एवं उद्देश्य सार्थक है और लेखक के प्रस्तुतीकरण में इनका लेखकीय-कौशल दृष्टिगोचर होता है| बी.एल.आच्छा की लघुकथा ‘संगमरमरी आतिथ्य’ दो मित्रों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमे एक मित्र अपने घर की और स्वयं की शेखी बखानता है परन्तु घर आने वाले मेहमान को चाय तक नहीं पिलाता है| बड़े घर को खरीदने से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं बन जाता जब तक उसमें आतिथ्य-संस्कार न हों| अपने को शो-ऑफ करने से कुछ भी हासिल नहीं होता | इस लघुकथा का कथानक, शिल्प, भाषा-शैली, उद्देश्य एवं शीर्षक  सटीक हैं, अतः यह लघुकथा श्रेष्ठता के पायदान पर खरी उतर रही है| मधुकांत की लघुकथा ‘बड़े सपने’ में यह बताने का सफल प्रयास किया है कि दृढ़ संकल्प और परिश्रम से बड़े से बड़ा सपना भी साकार हो सकता है | इसी उद्देश्य को दर्शाती यह एक उत्कृष्ट  लघुकथा है |सटीक भाषा-शैली, पात्रों के चरित्रानुकूल कथोपकथन एवं शीर्षक इस लघुकथा के अनुरूप हैं | मधुदीप की लघुकथा ‘नमिता सिंह’ एक प्रयोगवादी लघुकथा है, जिसमें नारीसशक्तीकरण को बल दिया गया है| नमिता सिंह जो कि कथा-नायिका है, एक सशक्त नारी है, जो प्रत्येक संघर्ष में स्वयं को सिद्ध करती हुई आगे बढती है| एक सशक्त स्त्री का चित्रण इस लघुकथा में किया गया है| नमिता सिंह न सिर्फ बहादुर है, सजग है अपितु वह स्वाभिमानी और ज़िम्मेदार भी है| नमिता सिंह को देखने जब लड़के वाले आते हैं तब वह कहती है, “आप और मैं दोनों ही अपने माता-पिता के प्रति अपना दायित्व पूरा करेंगे | मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है | हाँ, मैं इतना अवश्य चाहूँगी कि आप मुझे भी मेरे माता-पिता का दायित्व निर्वाह  करने की स्वीकृति देंगे|” नमिता सिंह के कहने के साथ ही अब वे निगाहें बाहर जाने के दरवाजे पर अटक गयी | इस तरह से प्रयोग करके मधुदीप ने अपने श्रेष्ठ लेखकीय-कौशल का परिचय दिया है, जो प्रत्येक दृष्टि से  प्रशंसनीय है | माधव नागदा की लघुकथा ‘कुणसी जात बताऊँ’ एक पुराने कथानक पर नया प्रस्तुतीकरण है, जो इस लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| जात-पात पर लिखी गयी इस लघुकथा के संवाद पात्रानुसार है, जो प्रभावशाली बन पड़े हैं| इस लघुकथा में कथा-नायिका एक पनहारिन है| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना चाहता है  कि समाज में जात-पात को दरनिकार कर देना चाहिए व स्त्री की भी कोई जात नहीं होती है, वह भी एक मनुष्य है और उसको भी वही सब कुछ मिलना चाहिए जो समाज पुरुषों को देता है | प्रतीकात्मक शैली में लिखी मृणाल आशुतोष की लघुकथा ‘बछड़ू’ पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है| दहेज़ से खरीदे गए दूल्हे की स्थिति खरीदे गए बछड़े जैसी ही होती है, विषय पुराना होने के बावजूद इस लघुकथा का प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली है| भाषा-शैली, कथानक, शीर्षक सभी कथानुरूप और सटीक हैं| राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ उन गुमराह लोगों पर आधारित लघुकथा है जिनको बरगलाकर आतंकवादी बना दिया जाता है| यह एक ऐसी समस्या और ऐसा कलंक है जिसकी वजह से जाने कितने घर बर्बाद होते हैं| इस लघुकथा में जहाँ समस्या का चित्रण किया गया है, वहीँ समस्या के समाधान हेतु संकेत भी प्रत्यक्ष है| इसका कथानक और भाषा-शैली सटीक है | रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘मर्दगाथा’ संवाद-शैली में लिखी गयी है | इस लघुकथा में पुरुषप्रधान समाज के उस चित्र को उभारने का प्रयास किया गया है जहाँ विवाहोपरांत एक पुरुष तो किसी विवाहित स्त्री से रिश्ता जोड़ सकता है परन्तु अपनी स्त्री को किसी परपुरुष के साथ नही देख सकता | इस लघुकथा का विषय पुराना है और यह लघुकथा वांछित प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही है |  रोहित शर्मा की लघुकथा ‘ऑटोमैन के आँसू’ में लेखक ने फंतासी का सहारा लिया है और एक संवेदनशील कम्पूटरायिज्ड व्यक्ति का निर्माण कर यह संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान में मानव संवेदनहीन बनता जा रहा है| इस लघुकथा का विषय नया न होने के बावजूद अपने श्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण के कारण यह लघुकथा ध्यान आकर्षित करती है |  | 

लकी राजीव की लघुकथा ‘देवदूत’ एक सकारत्मक सन्देश देती हुई लघुकथा है जो लोग निराशा के काले बादलों में घिरे रहते हैं और आत्महत्या जैसा कु-कृत्य करने हेतु  मन बना लेते हैं ऐसे में यदि कोई  उनको आशा की एक किरण दिखा दे  कि दुनिया में अकेले वही नहीं जो दु:खी हैं अपितु और लोग भी  दुःख के पहाड़ के नीचे दबे हुए हैं तब उनको एहसास होता है कि उन्हें अपने जीवन में संघर्ष करना होगा, और सटीक रास्ते तलाशने होंगे | इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इस लघुकथा की कथानायिका जो आत्महत्या करने वाली होती है कि उसी समय एक सेल्स वुमन उसके घर आती है और बातों ही बातों में वह अपना दुखड़ा सुनाती है, जिससे कथानायिका को एहसास हो जाता है कि आत्महत्या करना किसी भी समस्या का हल नहीं है और तब वह जीवन के सकारात्मक पहलु को देखती है | इस लघुकथा के माध्यम से जो सन्देश संप्रेषित हो रहा है वो समाजोत्थानिक है जो इस लघुकथा को साहित्यिकता प्रदान करता है |  

शील कौशिक की लघुकथा ‘खेल’ अंधविश्वास और रुढ़िवाद को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है | जिसमें पंडितजी अपनी बेटी को देवी रूप बनाकर निःसंतान दंपत्ति को आशीर्वाद दिलवाने का कार्य करते हैं, और उसके कोमल मन को अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देते हैं | इसका शीर्षक कथानुरूप है, और भाषा-शैली भी सटीक है | शोभा रस्तोगी की लघुकथा ‘डंकवाली मधुमक्खी’ प्रतीकात्मक लघुकथा है, जिसमें एक माँ की चिंता और परेशानी को डंकवाली मधुमक्खी का प्रतीक बनाया गया है| जब नायिका की युवा बेटी देर से घर पहुँचती है, परन्तु जब तक वह घर नहीं आ जाती तब तक माँ के अन्तः संघर्ष को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यही इस लघुकथा की बड़ी विशेषता है जो इस लघुकथा को श्रेष्ठता की श्रेणी में ला खड़ा करती है | सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा ‘सीढ़ियाँ’ एक ऐसी अति-महत्त्वाकांक्षी महिला पर आधारिक लघुकथा है जो लोगों को सीढ़ी बनाकर आगे बढ़ती है और बढ़ती ही जाती है और बीमार हो जाती है| वह डॉक्टर से कहती है वह उसे हर हाल में बचा ले, उसके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं | परन्तु वह स्वयं को मृत्यु के निकट पाती है | अपने सटीक प्रतिपादन के कारण यह लघुकथा श्रेष्ठ बन गयी है।सीमा जैन की लघुकथा ‘तृप्ति’ में अमीर घर की एक महिला की छोटी मानसिकता को आधार बनाकर लिखी हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है,   जिसमें कथानायिका मेमसाहब की बेटी उसके घर काम करने वाली बाई की बेटी के लिए कपड़े निकालकर देती है, परन्तु कथानायिका उनको एक बार देखने के बहाने सब कपड़े वापिस लेकर रख लेती है | कामवाली की आशाओं पर पानी फिर जाता है और वह दु:खी हो जाती है| परन्तु मेमसाहब की बेटी उसके दुःख को भाँप लेती है और उसको अपने जीन्स-टॉप देने को तैयार हो जाती है| कंजूस मेमसाहब की उदार बेटी की उदारता देखकर नौकरानी का मन तृप्त हो जाता है|इस लघुकथा की भाषा-शैली एवं शीर्षक आदि लघुकथा के अनुरूप हैं | सीमा सिंह की लघुकथा ‘मन का उजाला’ में कथानायक के स्वपन में ‘भुखमरी’ एवं ‘गरीबी’ स्त्री रूप में दो बहने आती हैं, उनको पूछने पर वे  कहती हैं, “हमने इस घर में निराशा और कायरता को आते देखा था...तो चुपके से हम भी घुस आये|” कथानायक की पत्नी के देहांत और व्यावसायिक पार्टनर के हाथों धोखा खाने के बाद वह निराशा की स्थिति में पहुँच जाता है | दोनों बहनों द्वारा उसके बच्चों को अपने साथ ले जाते हुए वह देखता है तो घबरा जाता है और जब उठता है तो भोर का उजाला परदे से छनकर कमरे में आता देख वह अपनी जेब में रातभर से रखी ज़हर की पुड़िया सिंक में बहा देता है| इस लघुकथा का विषय, भाषा-शैली, संवादों का प्रवाह एवं शीर्षक सब ही अनुकूल हैं | सुधीर द्विवेदी की लघुकथा ‘बाँध’ में दो पीढ़ियों के बीच सोच के फर्क को अग्रज पीढ़ी को एक बाँध का सहारा लेना चाहिए ताकि सोच के मध्य की खाई को भरा जा सके| इसी उद्देश्य से लिखी हुई यह लघुकथा अपनी सार्थकता सिद्ध करती  है| इस श्रेणी की  अन्तिम लघुकथा सुभाष नीरव की ‘दर्द’ है| प्रत्येक व्यक्ति का दर्द उम्र के साथ बढ़ता जाता है| इसी को दर्शाने हेतु लिखी गयी इस लघुकथा में कथानायक स्वयं को आईने में देखता है और उसको आभास होता है कि वर्तमान में वह उसका मजाक उड़ा रहा है| यहाँ आईना अपरोक्ष रूप से दर्शाया गया है| यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें व्यक्ति के भीतर के द्वन्द को आईने को  माध्यम बनाकर एक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है| लघुकथा का प्रतिपादन 

३. वैचारिक लघुकथाएँ : ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक कुछ सोचने हेतु  विवश कर दें , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी के शामिल किया है। इनमें  ‘उसकी पींग’, ‘सिक्सटी प्लस’, ‘कठपुतली’, ‘लिहाज’ ‘प्रतिशोध’, ‘संवेदना’, ‘आईनेवाला डिसूजा’, ‘पड़ाव’, ‘रिश्तों की भाषा’, ‘शहर की रफ़्तार’, ‘मोक्ष-श्लोक’, ‘चिड़िया उड़’ और ‘गाय-माँ’ का शुमार किया है |  

अशोक वर्मा की लघुकथा ‘उसकी पींग’ लघुकथा में कथानायक एक पार्क में अपने पोते को झूला झुलाता है, वहीँ एक गरीब बच्चा भी आता है और उसको झूले को पींग डालने को कहता है| परन्तु कथानायक उसकी गरीबी को देखते हुए उसकी बातों को अनसुनी कर देता है | गरीब बच्चा पुनः प्रयास करके झूले पर चढ़ जाता है और हवा से बातें करते हुए आनंदित हो उठता है| वह झूले पर से गिर न जाए अब यह चिंता उसको सताती है परन्तु वह चलते झूले से कूद कर मिट्टी में गिर जाता है और हँसते हुए वहाँ से चला जाता है| कथानायक को लगता है जैसे वह गरीब बच्चा उसकी अमीरी का उपहास करके चला गया है | इस कथानक के द्वारा लेखक अमीर लोगों की गरीबों के प्रति हीनभावना  पर विचारनीय प्रश्न खड़ा कर रहा है | उषा भदौरिया की लघुकथा ‘सिक्सटी प्लस’ का कथानक उन बुजुर्गों के इर्द-गिर्द घूम रहा है जो अपने परिवारवालों से उपेक्षित हो जाते हैं, ऐसे में इस कथा के बुज़ुर्ग अपना एक व्हाट्सअप ग्रुप बना लेते हैं और एक दूसरे की कुशल-क्षेम लेते रहते हैं और अगर कोई ग्रुप में नहीं आ पाता तो उसकी खोज-खबर लेने उसके घर पहुँच जाते हैं, और जरूरत पड़ने पर उसको अस्पताल पहुँचा देते हैं | ऐसा ही कुछ इस लघुकथा की कथानायिका के साथ हुआ जो एक बुज़ुर्ग  महिला है जिसका बेटा उसको देखने अस्पताल आता है, क्योंकि माँ को माइनर स्ट्रोक आता है, पूछताछ करने के बाद इस सिक्सटी प्लस व्हाट्सअप ग्रुप का पता चलता है, बेटा माँ से आधे घंटे की दूरी पर रहता है परन्तु बेटा व्यस्तता का बहाना बनाता है, “पर माँ ने उसे कभी नहीं बताया।” कथानायिका के साथी उसको उसकी लापरवाही का आईना दिखाकर उसको आशीर्वाद देकर चले जाते हैं| यह एक सुलझी हुई, समाज को  आईना दिखानेवाली  एक सुन्दर लघुकथा है| स्वाभाविक भाषा-शैली, प्रवाहमयी संवादों से यह लघुकथा उत्कृष्टता के पायदान पर खड़ी मिलती है।

बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि अगली लघुकथा ‘कठपुतली’ इन पंक्तियों की लेखिका की है |  इस लघुकथा के विषय में मैं क्या कहूँ ? इस लघुकथा पर डॉ.ध्रुव कुमार ने इसके शीर्षक को प्रतीकात्मक कहा है जो अपनी सार्थकता को गहराई तक जाकर सिद्ध करता है | वह कहते हैं, “ यह लघुकथा शनैः –शनैः घनी एवं सुष्ठु बुनावट के साथ क्रमशः विकास पाती है और क्षिप्रता के साथ अपने गंतव्य पर पहुँचकर पाठकों को संवेदना से भर देती है|” रूप देवगुण के अनुसार– “यह लघुकथा उद्देश्यपूर्ण, रोचक तथा सार्थक है।”

कुमार गौरव की लघुकथा ‘लिहाज’ उन भटके हुवे युवा वर्ग पर आधारित लघुकथा है जो सिगरेट फूँकने में नहीं झिझकते परन्तु अपने बड़ों की मर्यादा रखते हैं और उनसे अपनी आदात को छिपाने का प्रयास करते हैं| यह दो पीढ़ियों की आपस की समझ-बूझ पर आधारित एक श्रेष्ठ लघुकथा है | दिव्या राकेश शर्मा की लघुकथा ‘प्रतिशोध’ के माध्यम से लेखिका ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि ‘प्रतिशोध’ लेना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है| महाभारत के पात्र अश्वत्थामा को प्रतीक बनाकर अत्मत्काथात्मक शैली में लिखी गयी  एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसकी भाषा-शैली कथ्य के अनुरूप है | नंदकिशोर बर्वे की लघुकथा ‘संवेदना’  पुराणों के पात्रों के माध्यम से वर्तमान के संवेदनहीन सरकारी यंत्र को चित्रित करती एक अच्छी लघुकथा है | मुकेश शर्मा की लघुकथा ‘आइनेवाला डिसूजा’ , में आईने को बिम्ब बनाकर लेखक ने इस सत्यता को चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि, ‘सुख के सब साथी, दुःख में न कोय’ | इसका प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है , लेखक को इसके शीर्षक पर पुनः विचार करना चाहिए ऐसा मेरा मत है | योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘पड़ाव’ पति-पत्नी के बीच सच्चे प्रेम को दर्शाती एक संवेदनशील लघुकथा है | इस लघुकथा का शिल्प तथा संवाद की भाषा-शैली ने इस लघुकथा के कथ्य को उत्कृष्टता प्रदान की है | इसका शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | विरेन्दर ‘वीर’ मेहता की लघुकथा ‘रिश्तों की भाषा’ संवाद-शैली में लिखी गयी एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें लेखक यह बताना चाह रहा है कि दैहिक प्रेम क्षणिक होता है परन्तु आत्मिक प्रेम सच्चा होता है और सफल भी | इसका शीर्षक भी कथ्य के अनुरूप है | सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘शहर की रफ़्तार’ में लेखक ने यह चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि गाँव से जब कोई व्यक्ति पहली बार किसी शहर आता है तो यहाँ के कोलाहल में वह यहाँ आने का कारण तक  भूल जाता है, और संवेदनहीन लोगों के मध्य आकर अपने गाँव के लोगों के निश्छल प्रेम को कहीं खो देता है और इसी शहरी जीवन में प्रताड़ित हो जाता है| इस लघुकथा का कथ्य, भाषा-शैली सभी उत्तम हैं और शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | सतीश दुबे की लघुकथा ‘मोक्ष-श्लोक’ आध्यात्मिक विषय पर लिखी गयी एक दुरूह रचना है जिसमें पति-पत्नी के मध्य शरीर और आत्मा को लेकर वार्त्तालाप हो रहा है कि इन्सान की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा भी संग जायेगी अगर पति-पत्नी के बीच आध्यातिक प्रेम हो तब| यह एक मिथ्या बात है| इस लघुकथा के कथ्य से पूर्ण रूप-से मेरी सहमति नहीं बन पा रही है| संध्या तिवारी की लघुकथा ‘चिड़िया उड़’ में लेखिका ने माँ के वात्सल्य भाव को चित्रित करने का सुन्दर सद्प्रयास किया है कि माँ की आँखों में प्यार की जितनी गहराई होती है वह अन्य कहीं नहीं मिल सकती | ‘चिड़िया उड़’ बच्चों के एक खेल को प्रतीक बनाकर लेखिका ने माँ के प्यार को सर्वाधिक  उत्कृष्ट बतलाया है जो लेखिका के लेखन-कौशल को प्रदर्शित कर रहा है | हरनाम शर्मा की लघुकथा ‘गाय-माँ’ के माध्यम से लेखक ने समाज के उस वर्ग पर करारा प्रहार किया है जो गाय को माँ तो कहता है परन्तु वह सिर्फ इसलिए कि गाय एक उपयोगी प्राणी है, वरना उसकी देखभाल करने में वह कतराता है |  इसका कथानक, भाषा-शैली लघुकथा के अनुरूप हैं और इस कथा को उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक बने हैं | इसका शीर्षक भी सटीक है| 

४. अन्यान्य लघुकथाएँ : अध्य्यनोपरांत इस पुस्तक में सम्मिलित सभी लघुकथाओं में दो लघुकथाएँ ऐसी लगीं जो  व्यंग्यात्मक एवं मनोवैज्ञानिक हैं| ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में लिया है| ‘भीड़तन्त्र’ और ‘दोजख की आग’ | 

तेजवीर सिंह ‘तेज’ की लघुकथा ‘भीड़तन्त्र’ व्यंग्यात्मक लघुकथा है जिसमें सरकार और पुलिसिया विभाग की कार्यप्रणाली और उनकी पदवी का दुरूपयोग करने  वालों  पर करारा व्यंग्य किया गया है | इसका विषय नया नहीं है,  परन्तु संवाद कथानुरूप हैं और शीर्षक भी | राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ आतंकवाद को आधार बनाकर लिखी हुई है, जिसमें  लोगों को भरमाकर आतंकवादी बना दिया जाता है और गुमराह कर दिया जाता है| पर जब उनकी आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो जाती है | 

अब मैं पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३० में धरोहर स्तम्भ के अंतर्गत मलयालम भाषी हिन्दी लघुकथाकार एन. उन्नी की उन ग्यारह लघुकथाओं पर संक्षेप में चर्चा करना चाहूँगी | वे लघुकथाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं- ‘कबूतरों से भी खतरा है’, ‘सर्कस’, ‘दूध का रंग’, ‘मरीज’, ‘तलाश’, ‘तबाही’, ‘वाह री दाढ़’, ‘सपनों में रावण’, ‘राम-राज्य’ और ‘पागल’| 

एन. उन्नी की सभी लघुकथाओं को गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् जहाँ तक मैं समझ पायी हूँ, ये सभी लघुकथाएँ वैचारिक हैं  जो पठनोप्रांत चिंतन-मनन हेतु किसी भी संवेदनशील पाठक को विवश कर देती हैं|  इनकी पहली लघुकथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’ में परतंत्रता से स्वतंत्रता की राह दिखाती लघुकथा कबूतरों को प्रतीक बनाकर लिखी गयी श्रेष्ठ रचना है| इसे लघुकथा माने या न माने यह विचार का विषय है |  कारण यह लघुकथा कालत्व दोष की शिकार है| दूसरी लघुकथा ‘सर्कस’ है जिसमें बन्धुवा मजदूरों को स्वतंत्रता की राह दिखाती तथा समुचित अधिकार के प्रति सतर्क करती है, निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ लघुकथा है| ‘दूध का रंग’ लघुकथा में सरकारी विद्यालयों की पढ़ाई एवं छात्र-छात्राओं के स्तर को संप्रेषित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है, किन्तु यदि इसके आरंभिक भाग को क्षिप्र कर दिया जाए और कालत्व दोष से इसे मुक्त कर दिया जाए तो यह लघुकथा प्रशंसा की पात्र बन सकती है| इनकी चौथी लघुकथा दुरूह है किन्तु गहरे पानी पैठने पर बल देती इस लघुकथा में व्यावसायियों की स्वार्थपरकता पर गंभीरता से विचार किया गया है कि इस वर्ग को किसी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो मात्र और मात्र अपने लाभ से मतलब है| पाँचवीं लघुकथा में यह सुन्दर विचार अभिव्यक्त किया गया है कि सच्चाई की राह पर चलने वाले कभी गद्दी की चिन्ता नहीं करते | वे जीवन-पर्यन्त इस हेतु संघर्ष करते ही रहते हैं| छठी लघुकथा में दवा के धंधे पर प्रहार किया गया है कि दवा में मिलावट के कारण नायक की पत्नी उसे संतान का मुँह दिखाये बिना इसी मिलावट के कारण दिवंगत हो जाती है| सातवीं लघुकथा ‘वाह री दाढ़’ में दाढ़ को प्रतीक बनाकर यह सन्देश संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि व्यक्ति को मात्र सुनना ही नहीं, अपितु देश की समस्याओं पर पढ़ना एवं उस पर चिंतन-मनन भी करना चाहिए| यह भी एक दुरूह लघुकथा है  जो गंभीरता से कई बार पढ़ने एवं स्वयं पर विचार करने की माँग करती है| आठवीं लघुकथा व्यवसायियों के सोच को प्रत्यक्ष करती है कि यह वर्ग मात्र अपने स्वार्थ एवं अधिकाधिक धन कमाने में विश्वास करता है| उनके इस सोच से गरीबों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं है | इनकी नौवीं लघुकथा ‘सपनों में रावण’ है जिसमें रावण को प्रतीक बनाकर भ्रष्टाचारियों के सोच को उजागर किया गया है| तात्पर्य यह है कि  हमारे देश में वर्तमान नेताओं के चरित्र की पोल खोलते हुए यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है कि ये लोग जनता का हित करने की अपेक्षा उन्हें धोखा देते हैं, ठगते हैं और स्वयं राजसी आनंद उठाते हैं और जनता को ‘राम-राज्य’ के स्वप्न दिखाते हैं| 

इनकी अन्तिम लघुकथा ‘पागल’ में दो बहनों में उत्पन्न ईर्ष्याभाव को प्रत्यक्ष करते हुए यह स्पष्ट करने का सद्प्रयास है कि जब कोई व्यक्ति किसी निकटतम व्यक्ति को प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देखता है, तो वह उससे ईर्ष्या करने लगता है| 

कुल मिलाकर मैं उन्नी की लघुकथाओं के विषय में यह कहना चाहूँगी कि इनमें कथात्मक रचनाएँ श्रेष्ठ हैं, जिन्हें विचार करने की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए, किन्तु यदि हम वर्तमान हिन्दी-लघुकथा की बात करें तो इनकी अधिकांश लघुकथाएँ कालत्व दोष की शिकार हैं  जिनपर विद्वानों को गहराई तक जाकर विचार करना चाहिए | 

अब यदि पड़ाव और पड़ताल के ३० वें खण्ड में प्रकाशित लघुकथाओं पर सामूहिक रूप-से निष्कर्ष निकालें तो कतिपय अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं जो आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठता के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकेंगी | अतः अपने अन्य खण्डों की भाँति ही यह तीसवाँ खण्ड भी न मात्र उपयोगी है, अपितु प्रत्येक लघुकथाकार के पास होने की आवश्यकता पर भी बल देता है| 

कल्पना भट्ट,

भोपाल (मप्र) 


Wednesday, 26 January 2022

भोलानाथ सिंह की लघुकथाएँ

 1. साम्यवाद

साम्यवाद पर व्याख्यान देने के क्रम में प्रकाशनाथ ने अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटने पर ज़ोर देते हुए कहा‚ "जब तक हम गरीबों को पूरा सम्मान देते हुए गले नहीं लगाएँगे‚ इनके आँसू अपने हाथों से नहीं पोंछेंगे तब तक साम्यवाद पर भाषण देने से कुछ नहीं होगा। आज़ उदाहरण की ज़रूरत है ‚ उपदेश की नहीं।"

तालियों की गड़गड़ाहट थमने में काफ़ी वक्त लगा। प्रकाशनाथ के चेहरे पर बिखरी मुसकान उनके जीत को प्रतिबिंबित कर रही थी। आगामी चुनाव के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने में वे जी-जान से लगे हुए थे। कार्यकर्ताओं में भी बड़ा उत्साह था।

थोड़ी देर में सभा बिखरने लगी। मंच भी जनशून्य हो गया। प्रकाशनाथ ने रात्रिभोज का आयोजन किया था। इसमें शहर भर के बड़े अधिकारी एवं व्यापारी निमंत्रित थे। शाकाहार एवं मांसाहार के कई व्यंजन परोसे जा रहे थे।

दीपक आज़ सुने भाषण से बड़ा उत्साहित था। वह मेहमानों को व्यंजन परोसने में अपार आनंद का अनुभव कर रहा था। अचानक मलाईबर्फ़ की एक तश्तरी उसके हाथ से छूटकर सेठ करोड़ीमल की पुत्री सुनयना की गोद में जा गिरी। उसी मेज़ पर प्रकाशनाथ भी बैठे भोजन का लुत्फ़ उठा रहे थे। सुनयना ने विशेष रोष प्रकट नहीं किया पर प्रकाशनाथ का चेहरा तमतमा उठा।

"माफ़ कीजिएगा‚ तश्तरी हाथ से फिसल गई...।" अभी दीपक का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि प्रकाशनाथ ने भोजन सने हाथ से ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया -'चटाक' । दीपक बड़ी मुश्किल से सँभला था।

"सुनयना जी‚ बुरा मत मानिएगा। इन गरीब लोगों को इतनी तमीज़ कहाँ कि ढंग से भोजन परोस भी सकें"‚ कहते हुए प्रकाशनाथ सुनयना को मदमस्त नज़रों से देखे जा रहे थे।

पंडाल के कोने में जाकर दीपक गमछे से अपने आँसू पोंछने लगा।


2.जंगल में लोकतंत्र

लोमड़ सहस्रबुद्धि इस बार भी चुनाव जीत गया था। उसे बधाई देने वालों का ताँता लगा हुआ था। कई रंगे सियार भी आए थे। वनक्षेत्र कई प्रांतों में बँटा था। प्रतिनिधि भी विविध थे। कहीं शेर जीता तो कहीं भालू। कहीं सियार‚ बाघ‚ चीता‚ हाथी‚ अज़गर‚ लकड़बग्घा आदि।

जीत का ज़श्न कई दिनों तक मना। मिठाइयाँ बँटीं। सम्मान समारोह (नागरिक अभिनंदन ) एवं विजय ज़ुलूस की धूम मची रही। निर्धारित तिथि को शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन हुआ। सबने मिलकर शपथ लिया कि वे वन क्षेत्र की एकता‚ अखंडता एवं समृद्धि के लिए काम करेंगे। प्रत्येक जानवर की सेवा में स्वयं को समर्पित कर देंगे। सबको समान अधिकार प्राप्त होगा।

अब आई सरकार बनाने की बारी। सभी स्वतंत्र उम्मीद्वार थे। दलगत समर्पण से उनका कोई वास्ता था नहीं। सब प्रधानमंत्री बनने के दावेदार थे। वैसे भी पहले ही कौन एक-दूसरे के मित्र थे ! थे तो शत्रु ही। मलाईदार विभागों के लिए घमासान मचा हुआ था।

चतुर सियार ने स्थिति की नज़ाकत को भाँपते हुए कहना आरंभ किया - "मित्रों‚ आपस में लड़ना हमें शोभा नहीं देता। अब हम सामान्य से ऊपर हैं। लड़ने का काम सामान्य जानवरों पर छोड़िए। मेरी बात ध्यान से सुनिए। हम सब अब एक ही जाति के हैं - नेता जाति के। हमारी अलग पहचान है न अलग दल।"

 "तो फिर विभागों का बँटवारा कैसे होगा ?"

 "ठीक है‚ हम पर्ची पद्धति से इसका निर्णय लेंगे। एक बात मत भूलिए कि चुनाव निरस्त हुआ तो सबको नुकसान होगा। बुद्धि हो तो हर विभाग मलाईदार बन जाता है।"

पर्ची के माध्यम से विभागों का बँटवारा हो गया। दूसरे दिन कालू भालू एक मोटी सी किताब लेकर दरबार में उपस्थित हुआ। कहा -"देखिए यह पुस्तक शासन करने की पद्धति बताएगी। सारे जानवरों को यह मान्य है। हाँ‚ यदि कोई नियम हमारे अनुकूल न हो तो उसमें संशोधन का हमें अधिकार है। सामान्य जानवर हमारे फैसलों को मानने के लिए बाध्य होंगे। जंगल में लोकतंत्र कायम रहेगा।"


3. प्रोन्नति

 "सर! क्या मैं अंदर आ सकती हूँ ?"

 "हाँ-हाँ‚ क्यों नहीं! आईए‘"‚ निदेशक महोदय ने लैपटॉप पर अपनी नज़र गड़ाए ही कहा।

सुनीता के प्रवेश करते ही पूरा कमरा महक उठा था। निदेशक महोदय ने अपनी नज़रें उठाईं तो सुनीता को देखकर भौंचक रह गए।

सुनीता यूँ तो खूबसुरत थी ही ऊपर से आज़ उसका परिधान और प्रसाधन गज़ब ढा रहे थे। चाल में भी अल्हड़पन झलक रहा था। उम्र यही कोई पैंतीस-छत्तीस की होगी पर उस वक्त तो वह अट्ठारह वर्ष की कमसिन सी लग रही थी।

निदेशक महोदय बस देखते ही रह गए। कुछ क्षणोपरांत प्रकृतिस्थ होते हुए पूछा‚ "कहिए‚ क्या बात है ?"

"सुना है कार्यालय में आपके निजी सचिव पद पर किसी को प्रोन्नति दी जाने वाली है। यदि आपकी कृपा दृष्टि मुझपर पड़ जाए तो मैं धन्य हो जाऊँगी।"

"परंतु यहाँ तो आपसे अधिक वरिष्ठ लोग कतार में खड़े हैं। उन्हें किनारे कर.......! किस प्रकार संभव होगा ?"

आप चाहेंगे तो सबकुछ संभव हो सकता है। आपके मंतव्य की ही मुख्य भूमिका होगी। आप जो कहेंगे मैं करने को तैयार हूँ।"

"अच्छा‚ सोच-विचार कर देखता हूँ।"

"और हाँ‚ आज़ रात भोजन पर आप मेरे घर आमंत्रित हैं। मैं भी अकेली हूँ‚ आपका साथ मिल जाएगा। अब 'ना' मत कहिएगा।"

सुनीता मोहक मुसकान बिखेर‚ अदा के साथ बलखाकर चलती हुई कक्ष से बाहर निकल  गई । निदेशक मल्होत्रा जी के मस्तिष्क से जैसे एक तूफ़ान गुज़र गया था।

कुछ दिन बीत गए। सूचनापट्ट पर प्रोन्नति की ख़बर प्रकाशित कर दी गई। एक अनुभवी एवं वरिष्ठ व्यक्ति सागर कुमार को निजी सचिव का पदभार सौंपा गया था।

तीसरे दिन मल्होत्रा साहब दफ़्तर में बैठे हुए कुछ ज़रूरी काम निबटा रहे थे तभी जिला न्यायालय का अर्दली हाथ में सम्मन लिए हाज़िर हुआ। मल्होत्रा जी को सम्मन तामिल कर वह चला गया। मल्होत्रा जी ने उसे खोलकर पढ़ना प्रारंभ किया।

उनकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। सुनीता ने उनपर प्रलोभन देकर महीनों यौन शोषण करने का आरोप लगाकर मुकदमा दर्ज़ कर दिया था।

4. रहमू चाचा

गाँव से शहर जाने  के क्रम में एक नदी पड़ती है।नदी का नाम है दामोदर।पुल न होने के कारण लोग नाव के सहारे नदी पार करने को बाध्य पहले भी थे और आज़ भी हैं।रहमान मियाँ नाव चलाया करते थे जिन्हें प्यार से मैं रहमू चाचा कहा करता था।वे मुझे लाड़ से बिटवा कहा करते थे।

पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में वर्षों बाहर रहना पड़ा।एकाएक घर आना हुआ।एक तरह का नफ़रत का माहौल फैलाया जा रहा था।लोग अविश्वास के वातावरण में जी रहे थे।कुछ स्वार्थी तत्व अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उटपटाँग बयानबाज़ी कर रहे थे।

शहर में तो माहौल गर्म था पर गाँव की ख़बर नहीं थी।घर लौटने के क्रम में मैं सोचता रहा कि रहमू चाचा न मिले तो मुश्किल में पड़ जाऊँगा।

ख़ैर नदी के पास पहुँचा तो दूर से ही नाव दीख गई और साथ ही दीखे रहमू चाचा।मैंने चैन की साँस ली।तट पर आया तब तक नाव लग चुकी थी।यात्रीगण सवार हो रहे थे।बच्चे,बूढ़े, स्त्री,पुरुष।कोई भेदभाव नहीं।अधिकांश यात्री हिंदु।

नाव बीच नदी में पहुँची कि चाचा का गाना प्रारंभ हो गया।मेरे हाथ चप्पू पर अनायास ही चले गए।

सकपकाते हुए चाचा ने कहा, “ई का करत हौ बाबूजी? रहन दौ।“

“चाचा, आपने मुझे पहचाना नहीं? मैं आपका बिटवा।बचपन में पार होते हमेशा आपके साथ चप्पू चलाया करता था।“

“बिटवा ! तुम शहर गईके भी न बदले। ईहाँ तो पढ़े-लिखे बाबू लोगन के रंगतै अलग हैं।“

“कुछ लोग कभी नहीं बदलते काका। तुम भी तो नहीं बदले।आज़ भी यात्रियों को उसी स्नेह के साथ नदी पार कर रहे हो।“

“बिटवा, मनुस तो मनुस के ही काम आवे है। यही सत है, यही धरम है।“

अनपढ़ रहमू चाचा की सोच विख्यात लोगों से बहुत ऊँची थी।

5. मनहूस

मीना अभी-अभी कॉलेज से लौटी थी। मोहल्ले में अफरा-तफरी मची हुई थी। पता चला कि सूरज की मृत्यु हो गई है। घर में मातम और रुदन का माहौल छाया हुआ है। किसी ने बताया कि सूरज की माँ विमला देवी, मौत का कारण रीता को मान रही है। उसी मनहूस के कारण सूरज की मौत हुई है, ऐसा वह चीख-चीख कर सभी मोहल्ले वालों को बता रही है।

नई नवेली दुल्हन रीता की शादी को हुए मात्र डेढ़ महीना ही बीता था। अभी न तो पाँव का महावर न ही हाथ की मेहंदी पूरी तरह उतरी थी। बड़ी ही सुंदर और सुशील थी। गरीब बाप के कलेजे का टुकड़ा। अभाव में पली-बढ़ी पर शालीनता के धन दौलत से समृद्ध थी। उस पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा था।

मीना भी कुतूहलवश उसके घर जा पहुँची। देखा रीता एक कोने में गुमसुम सी बैठी थी। निःशब्द। आँखों से अविरल आँसू बहे जा रहे थे। विमला देवी छाती पीट-पीटकर ढाढ़ें मार कर रो रही थी। अचानक वह उठी और रीता को बालों से पकड़कर घसीटते हुए चीखने लगी, "इस मनहूस का साया जब से इस घर पर पड़ा है घर का सत्यानाश हो गया। यह मेरे बेटे को खा गई। चल निकल जा मेरे घर से !"

"माँ जी ! मैं कहाँ जाऊँगी ? मेरा क्या कसूर है ?" 

 "जुबान लड़ाती है कलमुँही ! जा डूब मर कहीं !"

सभी औरतों में कानाफूसी हो रही थी। कुछ मानने लगी थीं कि सच में ही रीता मनहूस है। मीना से यह अत्याचार देखा नहीं गया। मीना ने आगे बढ़कर विमला देवी का हाथ पकड़ लिया और कहा, "यह क्या कर रही हैं आप ? ये मनहूस-वनहूस कुछ नहीं होता है।"

"चल हट ! कल की छोकरी ! चार अक्षर क्या पढ़ ली है हमें चली है पढ़ाने !"

 "चाची !" मीना चीख पड़ी। "आपको मालूम नहीं था क्या कि सूरज शराब के नशे में धुत रहता था ? लगातार शराब पीने से उसका लीवर खराब हो चुका था। वर्षों से वह शराब पीता रहा था। रीता के आने से नहीं, आप की लापरवाही से उसकी मौत हुई है। आपके पति भी शराब के लत की भेंट चढ़ चुके हैं। फिर मनहूस कौन हुआ ?" 

 विमला देवी की रीता के बालों पर पकड़ ढीली पड़ गई थी। उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया था। औरतों के बीच फिर से कानाफूसी शुरू हो गई थी।


भोला नाथ सिंह 

(पूर्व में प्रशांत कुमार 'भोला' नाम से लेखन)

पता - फुटलाही, पत्रालय-बिजुलिया

वाया - चास, बोकारो, झारखण्ड

पिन कोड - 827013.

ई-मेल - bhola5566@gmail.com

जन्मदिन - 08/05/1970 (वास्तविक)

              07/01/1968 (शैक्षिक प्रमाण पत्रों में)

शिक्षा - हिन्दी में स्नातकोत्तर, बी॰एड॰, नेट

संप्रति - अध्यापन एवं लेखन

प्रकाशित पुस्तकें :

बाल उपन्यास - बहादुर दोस्त, THE TRIO  

कविता संग्रह -  यह जो कड़ी है, बिखरे हुए मनके

कहानी संग्रह - सारंग (भाग १,२)

लघुकथा संग्रह - क्षितिज की ओर

जासूसी उपन्यास - दौलत की ख़ातिर

(इसके अलावा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल कथा, लघुकथा एवं आलेख प्रकाशित। क‌ई साझा संग्रहों में सम्मिलित।)