Monday, 16 March 2020

सीमा व्यास की लघुकथाएँ

सीमा व्यास
।। 1।। मैं नहीं थी 

"तो अचानक तुमने नौकरी करने का फैसला कैसे लिया ?" 
"अचानक नहीं। पहले कई बार पूछा है आपसे। पर कल रात के बाद तो……"
"कल ? तो ? ऐसा क्या कह दिया मैंने ? और कहा न कि कल मैं.. ।" 
"आपने कहा कि मुझ जैसी बोझ से विवाह कर आपने मुझ पर एहसान किया। मेरे पिता पर ताने  मारे, कि खाली हाथ  भेज दिया। " 
"अरे नहीं...मेरा मतलब वो नहीं था……"
"यह भी कहा कि जिंदगी भर पड़ी रहोगी मेरी छाती पर …। " 
"हैं ?? ऐसा कहा ? छोड़ो न यार । कहा तो कि कल रात मैं…"
"मैं गंवार हूं। कभी कुछ नहीं कर पाऊंगी जिंदगी में। आपके मन से सच निकल गया कल रात……। " 
"अब कितनी बार बोलूं ? समझती क्यों नहीं ? कल रात मैं नशे में था। " 
"हाँ। पर मैं नहीं थी। "

।। 2।। समझदारी

पिता ने उसकी सौतेली माँ को उसके बारे में कुछ नहीं बताया था। पर घर में दस वर्षीय लड़की की सदा उपस्थिति देख वह सब समझ गई। पिता कुछ कहते उसके पहले ही वह मासूम लड़की से दूजाभाती का व्यवहार करने लगी। दो खुद थाली में रखती, एक उसे देती। दो काम उससे करवाती, एक खुद करती। छोटी सी लड़की ऐसे भेदभावपूर्ण व्यवहार से अनभिज्ञ थी ,सो बहुत उदास रहती। 
उस दिन खाना खाते हुए माँ बोल पड़ी, 'तेरे बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया था इन्होंने। बता, कैसे सहन कर लूँ ?'
भोली सी लड़की देर तक चुप रहने के बाद बोली, 'मेरे जैसे। मुझे भी कहाँ...।'
और सौतेली माँ ने कुछ क्षण में ही अपनी थाली की गुझिया लड़की की थाली में परोस दी।

।। 3।। बारी

घर्र्रर.. करती जीप सुदूर डाक बंगले के सामने रुकी। चार जोड़ी चमचमाते काले बूटवाले उतरकर भीतर गए। बाहर दाना चुगते मुर्गे-मुर्गियों के कंठ सूख गए। आज जाने किसकी बारी! 
बूढ़ा चौकीदार पत्थर पर चाकू घीसने लगा। पास की झोंपड़ी से झाँकती लड़कियाँ फुसफुसाईं, 'आज जाने किसकी बारी!' फ्रिज में रखी बोतलें टकराईं, आज जाने किसकी बारी! 
काले कड़कनाथ की बारी आई।
ब्लैक लेवल बोतल की बारी आई।
काली सलवारवाली की बारी आई। 
नशे में बेसुध चार जोड़ी चमचमाते बूटवालों को लेकर घर्र... करती गाड़ी चली गई। 
काला मफलर लपेटे चौकीदार अपनी बारी का इंतजार करता ही रह गया।

।। 4।। इतनी सी बात

घर में उल्लास का माहौल था। दो दिन पहले ब्याह कर आई नई नवेली दुल्हन रिया का आज जन्मदिन था। पूरा परिवार जन्मदिन की खुशियों में साथ था। रात को खाना खाने के बाद सब मिलकर नई बहू को पुराने किस्से सुनाने लगे।  तभी दादाजी ने कहा ,' चलो सबके लिए आइसक्रीम मँगाते हैं। '
'ठीक है । पाँच ब्रिक काफी रहेगी ?' पूछते हुए चाचाजी  जाने के लिए खड़े हुए। तभी एक मधुर सी आवाज़ आई ,' चाचाजी , प्लीज़ मेरे लिए आइसक्रीम नहीं मेंगो केण्डी लाइए। '
सबके चेहरे नई दुल्हन की ओर घूम गए।
दादी बोली, 'हैं ?'
ताई ने घूरकर ताऊजी से कहा , 'देखो तो !'
ताऊजी फुसफुसाए.'तुम्हीं देख लो।'
चाची बोली,'अब तो हमें देखना ही रह गया।'
इस फुसफुसाहट को तोड़ता चाचाजी का किशोर बेटा बोला,'अरे वाह भाभी, मुझे भी बचपन से मेंगो केंडी पसंद है।' 
'और मुझे टूटी-फ्रूटी!' बुआ आगे आते हुए बोली।
'ब्याह हुआ तो तेरे ताऊजी मुझे चुपके से केसर पिस्तावाली कुल्फी लाकर देते थीं।' ताईजी लजाते हुए धीरे से बोलीं। 
चाचा बोले, 'हम दोनों तो जब भी बाहर जाते हैं , कसाटा ही खाते हैं। हमारे लिए तो कसाटा...' 
चारों ओर ठहाके फूट पड़े । बहू ने सिर पर पल्ला ढाँकते हुए देखा, सबके चेहरों पर मनपसंद आइस्क्रीम पिघल रही थी।

।। 5।। निर्णय

'तो इस बार किसे वोट दोगी ?' अंगूठे ने जरा टेढ़ा होकर तर्जनी से पूछा। 
'ऐसे क्यों पूछ रहे हो ?' तर्जनी अंगूठे की ओर झुकी। 
' अब तो सील-ठप्पा नहीं  ईवीएम है। मजे से अकेले..अकेले... अब तुम्हें हमारी मदद दरकार कहाँ ? '
' मजाक मत करो। सरकार चुननी है, सब्जी नहीं। जानते हो साझा निर्णय लेने से कहीं कठिन होता है अकेले निर्णय लेना। वो भी जो सबके हित में हो। माना कि बटन मैं ही दबाऊंगी पर सहमति तुम सबकी होगी। सांसद के साथ सरकार भी चुन रहे हैं हम। सहयोग करोगे न ?' तर्जनी ने सीधी होते हुए कहा। 
उसका समर्थन करने अंगूठे सहित सभी अंगुलियाँ उसकी ओर झुक गईं, सलाह-मशवरा करने।



Sunday, 1 March 2020

शव-गृह से / डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति


डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति
कुछ हाथों ने वार किया। कुछ हाथ बचाने को लपके। कुछ ने संभाला। कुछ हाथ शव-गृह तक उठा लाए।
अलग-अलग जगहों से, अलग-अलग कारणों से इस शव-गृह तक पहुंचे, एक साथ पड़े थे। अब वो एक ही नाम थेलाश।

रात हुई। शान्त थी, अपने स्वभाव की तरह। शव-गृह से भी यही उम्मीद थी, पर‌ नहीं।




1.
-क्या नाम है?
-नाम ! देख नहीं रहा, नाम बताने का नतीज़ा।
-पर तुम्हें बुलाऊं कैसे?
-अरे नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे पिता ने पूरी मेहनत से नाम तलाशा कि नाम से मजहब का पता ना चले। पर कहां रुकने वाले थे, आगे क्या, आगे क्या, ये बता। बस अड गए।
-सच कह रहा है, आंख झपकते ही, एक धड़कते-थिरकते इन्सान को लाश में बदल दिया।

2.
-कहां जा रहे थे?
-बच्चों के लिए शाम के खाने का इंतजाम करने। ....और तुम कहां से आ रहे थे?
-मैं! बीमार बीवी के लिए दवा लेकर…।
खामोशी।.....और फिर गहरी सांस छोड़ते,
-यहां हम लाश हो गए और घर पर....पता नहीं, उनका क्या हुआ?

3.
-अरे भाई, तुम तो वही हो, जो रोज गली में सब्जी का ठेला लेकर आते थे।
 -अरे तू वही, जो फुटपाथ पर खिलौनों की फड़ी लगाता है।
-हां, कितनी बार आपस में खिलौने और फल बदले बांटे।
-अब भी कर रहे हैं, वही कुछ।
-क्या ?
-पहले जिस तरह सहयात्री थे, अब शवयात्री  हैं।

4.
-मैंने तो टोपी भी नहीं पहनी थी।
-मैंने भी तिलक नहीं लगा रखा था।
-फिर?
खामोशी।
-तुम्हें किसी ने नहीं बचाया?
-कोशिश तो हुई, पर दंगाई जीत गए।

5.
-यह चल क्या रहा है, हर तरफ पागलपन ?
-बिल्कुल, देश को शवगृह बनाने पर तुले हैं।
-वो तो ठीक है। (जरा रुक कर) एक अजीब-सी बात आती है मन में, इस शवगृह में हम‌ सब, अब कितने आराम से पड़े हैं, बिना नाम, बिना मजहब, सिर्फ लाश… लाश… लाश।
-हां भाई, जो सुकूं और भाईचारा मरकर है, जीते जी क्यों नहीं।

6.
-जानता है, आगे-आगे हिदायतें देते हुए कौन चल रहा था?
-चेहरा छुपाकर चलने वाले की क्या पहचान।
-आवाज तो जानी-पहचानी सी लगती थी।
-जान-पहचान! उससे, जिसे लाशों की गिनती बढ़ाने में मज़ा आ रहा हो।

7.
एकदम शोर । भीड़नारे ।
-अरे यह क्या, आधी रात को?
-और क्या होगा? हमारी तरह कोई लाश । रोना-चिल्लाना देख ।
-इतनी भीड़, कोई बड़ा नेता लगता है?
-मरकर भी तुझे मजाक सूझता है, नेता आते हैं क्या कभी?

8.
-वो जो उस किनारे पर पड़ा है, उसे जानता है?
-नहीं तो।
-औरों को बचाते-बचाते यह हालत हुई।
-अच्छा! कौन है?
-मेरा पड़ोसी।
-दंगाई कहां से आए थे?
-लाए गए थे,...पता नहीं किस धरती के थे।

9.
-अरे यह वही नहीं है, जो दंगाईयों को चुन-चुन कर घर दिखा रहा था?
-वह तो मुंह पर कपड़ा बांधे हुए था, अब कैसे पहचाना?
-आवाज तो इसी की थी।
-अब देख, इसे ठिकाने लगाने को जगह चुन रहे हैं।
-ठुंसा तो पड़ा है, कहां टिकाएंगे ?
-देखता जा, सबको खिसका रहे हैं, हम दोनों के बीच ही चिन दिया जाएगा इसे ।
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