Saturday, 8 February 2020

हिंदी लघुकथा-समीक्षा : दशा और दिशा / डॉ सत्यवीर मानव


डॉ सत्यवीर मानव

समकालीन लघुकथा की शुरुआत १९७० के आसपास से मानी जाये, तब भी एक विधा के रूप में यह जीवन का अर्धशतक पूरा कर चुकी है। इस दौरान इसने अपने रूप सौन्दर्य में काफी परिवर्तन- परिमार्जन किया है। संवेदना और शिल्प के स्तर पर नये-नये प्रयोग किये गये हैं और किये जा रहे हैं। हजारों रचनाएँ लिखी गई हैं, सैकड़ों संग्रह और संकलन प्रकाशित हुये हैं, अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा-विशेषांक निकाले हैं; तो लघुकथा गोष्ठियों, प्रदर्शनियों आदि के माध्यम से भी इस पर खूब चर्चा- परिचर्चाएं हुईं हैं। बावजूद इसके हिंदी के आलोचकों- समालोचकों ने गंभीरता से लघुकथा पर लिखना उचित नहीं समझा है। अब आप इसे उनकी उदासीनता कह सकते हैं अथवा उपेक्षा; परन्तु वजह यही है कि हिंदी लघुकथा की आलोचनात्मक पुस्तकों का अभाव बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में बिल्कुल ही काम नहीं हुआ हो। नामवर विद्वानों के उपेक्षापूर्ण रवैए को देखते हुए स्वयं लघुकथाकार इस कार्य के लिए आगे आए हैं। लेकिन जो भी कार्य हुआ है, वह मजबूरी का ज्यादा प्रतीत होता है, क्योंकि अधिकांश आलोचनात्मक आलेख/ लेख पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों, सांझा संकलनों अथवा संग्रहों की भूमिका या समीक्षा के लिए लिखे/ लिखवाये गए हैं। आलोचना के लिए आलोचना के रूप में बहुत कम कार्य हुआ है। यही कारण है कि आज तक भी तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें ऐसी नहीं हैं, जिन्हें आलोचना के लिए लिखा गया हो और इनमें से भी अधिकतर ऐसी हैं, जिनमें विभिन्न अवसरों पर लिखे या लिखवाये गए लेखों को संकलित कर प्रकाशित किया गया है।
लघुकथा समीक्षा की दशा और दिशा पर विचार करते हैं, तो सबसे पहले रामेश्वरनाथ तिवारी की लघुकथा पुस्तक 'रेल की पटरियां' (१९५४) की आचार्य जगदीश पांडेय द्वारा लिखी गई भूमिका 'लघुकथा: स्वरूप निर्माता' पर दृष्टि जाती है। आचार्य पांडेय ने पहली बार इन लघुआकारीय रचनाओं को 'लघुकथा' नाम देकर उसे परिभाषित किया है और उसके कला- रूपों की चर्चा की है; जो शुद्ध रूप से लघुकथा-समीक्षा की शास्त्रीय आधार-भूमि मानी जा सकता है।
इस आलेख में आचार्य जी ने लघुकथा के विचारणीय पक्षों को सात उपशीर्षकों में बांटकर लघुकथा विधा की शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की है-(१) शीर्षक (२) पात्र और विधान की प्राख्योन्मुखता (३) कथनोपकथन (४) ज्वार- प्रतिज्वार की त्वरा (५) स्थापत्य की गहराई (६) नियताप्ति और उपराम में व्यंग्य की स्थिति और (७) शैली।1
उसके बाद आठवें दशक के पूर्वार्द्ध तक समीक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई। आठवें दशक में डा० शंकर पुणतांबेकर, कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, डॉ० स्वर्ण किरण, डॉ० रामनिवास मानव आदि ने समीक्षात्मक लेख लिखे। १९७७ में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'समांतर लघुकथाएं' में बलराम का आलेख 'हिंदी लघुकथा का विकास', १९७८ में प्रकाशित 'छोटी-बडी़ बातें' में महावीर प्रसाद जैन और जगदीश कश्यप के आलेख और १९७९ में आये 'नवतारा' के लघुकथा-विशेषांक में अनिल जनविजय, जगदीश कश्यप, बालेंदु शेखर तिवारी, भूपाल उपाध्याय, राधेलाल बिजघावने और रामनारायण बेचैन के आलेख विशेष उल्लेखनीय हैं।
नौवां दशक हिंदी लघुकथा के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहा। इसकी शुरुआत में ही १९८१ में ‘नवतारा’ का प्रतिक्रिया अंक आया। उसमें प्रकाशित आलेखों में मोहन राजेश का ‘हवा में तने मुक्के’ विशेष महत्वपूर्ण है। १९८१ में ही कृष्ण कमलेश के संपादन में ‘लघुकथा : दशा और दिशा’ आया। १९८२ में डॉ रामनिवास मानव और दर्शन दीप का सांझा लघुकथा संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ मानव के छः आलेख भी संग्रहित हैं। इन आलेखों में डॉ  मानव ने लघुकथा की ऐतिहासिक परंपरा, उसके स्वरूप, सीमाओं तथा विकास की संभावनाओं पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। १९८२ में ही 'लघुकथा : सृजना और मूल्यांकन' आया। इसमें विक्रम सोनी, डॉ चंद्रेश्वर कर्ण, डॉ जगदीश्वर प्रसाद और डॉ बृजकिशोर पाठक के महत्वपूर्ण आलेखों द्वारा लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। १९८३ में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'लघुकथा : बहस के चौराहे पर' डॉ स्वर्ण किरण, सतीशराज पुष्करणा, महावीर प्रसाद जैन, भगीरथ और जगदीश कश्यप के समीक्षात्मक आलेखों को लेकर आया। १९८६ मेंं 'तत्पश्चात्' ( सतीशराज पुष्करणा) और 'दिशा-४' ( सं० पुष्करणा) में निशांतर के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए। १९८७ में मुकेश शर्मा ने 'लघुकथा समीक्षा' लघु पुस्तिका के माध्यम से लघुकथा-समीक्षा का प्रयास किया। १९८८ में 'कथा- निकष-१' पूर्ण रूप से लघुकथा-समीक्षा को समर्पित पत्रिका निकली। इसके प्रवेशांक में ही डा० शंकर पुणतांबेकर, डॉ स्वर्ण किरण, भगीरथ, सतीशराज पुष्करणा और जगदीश कश्यप के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया, शिल्प-शैली और संरचना एवं मूल्यांकन पर प्रकाश डालते हैं। १९८८ में अमरनाथ चौधरी अब्ज की लघु-पुस्तिका 'लघुकथा: चिंतन और प्रक्रिया' आई, जिसमें मात्र एक आलेख ही समीक्षात्मक है। १९९० में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'कथादेश' और 'लघुकथा: सर्जना एवं समीक्षा' आयीं। 'लघुकथा: सर्जना और समीक्षा' में बारह आलेखों के माध्यम से लघुकथा की परंपरा, समीक्षा की समस्याओं, विधागत शास्त्रीयता, रचना प्रक्रिया, शिल्प और शैली, समीक्षा के मानक तत्व आदि पर विचार किया गया है। इसे लघुकथा समीक्षा का पहला गंभीर प्रयास कहा जा सकता है।
 १९९१ में 'लघुकथा : संरचना और शिल्प' ( सं० सुरेशचंद्र गुप्त) और मुकेश शर्मा की 'लघुकथा : रचना और समीक्षा', दो महत्वपूर्ण पुस्तकें आईं अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘बूंद-बूंद' १९९३ में ‘चमत्कारवाद’ की घोषणा के साथ आई। लेकिन इसके आलेख 'चमत्कारवाद' के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। परंतु अंत के कुछ आलेख महत्वपूर्ण बन पड़े हैं। १९९४ में कमलेश भट्ट कमल की 'साक्षात्' आई, जिसमें डॉ कमल किशोर गोयनका से लघुकथा पर बातचीत प्रकाशित की गई है। १९९७ में कृष्णानंद कृष्ण की 'हिंदी लघुकथा : स्वरुप और दिशा' प्रकाशित हुई। इसमें लघुकथा के क्रियात्मक पक्ष के साथ-साथ सैद्धांतिक पक्ष पर भी महत्वपूर्ण आलेख हैं। २००२ में प्रकाशित 'हिन्दी-लघुकथा: उलझते-सुलझते प्रश्र' में डॉ रूप देवगुण ने लघुकथा विषयक कुछ प्रश्नों को उठाने का सार्थक प्रयास किया है। डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेंद्र प्रसाद नवीन और डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र के संयुक्त संपादन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ २००३ में आई। इसमें १० आलेखों के माध्यम से लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर गंभीरता से विचार किया गया है। इसे हिंदी लघुकथा की दूसरी महत्वपूर्ण संकलित समीक्षा पुस्तक कहा जा सकता है। २००३ में ही डॉक्टर सी० रा० प्रसाद का शोधप्रबंध 'हिन्दी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण' प्रकाशित हुआ है, "जो न मात्र उपयोगी है, अपितु शोधार्थियों, शिक्षकों, विद्यार्थियों और नई पीढ़ी के लघुकथा- लेखकों एवं आलोचकों हेतु यह दिशा निर्देश भी करता है।"2
       पाँच वर्षों के अंतराल के बाद २००८ में बलराम अग्रवाल की 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' तथा डॉ शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' पुस्तकें आईं। 'हिंदी लघुकथा' किसी एक लेखक का पहला ऐसा शोधग्रंथ है, जो ‘लघुकथा के सही स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों को को संतुष्ट करने की विश्वस्नीय क्षमता रखता है।’3 ‘यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण- महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी।’4
डॉ रामकुमार घोटड़ की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें, २००८ में 'लघुकथा विमर्श' और २०१२ में 'भारत का लघुकथा-संसार' आईं। इनमें डॉ घोटड़ ने लघुकथा विषयक अनेक बिंदुओं को स्पष्ट करने और अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराने का सफल प्रयास किया है। २०१२ में ही डा० शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' के बाद दूसरा महत्वपूर्ण शोधप्रबंध डॉ सत्यवीर मानव का 'हिंदी लघुकथा: संवेदना और शिल्प' आया है। इसमें डॉ मानव ने हिंदी लघुकथा की परिभाषा, स्वरूप, उद्भव और विकास, हिंदी लघुकथा में संवेदना, हिंदी लघुकथा के शिल्प आदि का विस्तार से विष्लेषण करने के साथ-साथ २२ मानक और विशिष्ट लघुकथाकारों के लेखन के विशेष संदर्भ में हिंदी लघुकथा में संवेदना और उसके शिल्प पर भी विचार किया है। २०१४ में अशोक भाटिया की 'समकालीन हिंदी लघुकथा' और २०१५ में मुकेश शर्मा की 'लघुकथा के आयाम', दो उल्लेखनीय पुस्तकें आईं हैं। २०१५ में ही डा० पुष्पा जमुआर का 'हिंदी लघुकथा: समीक्षात्मक अध्ययन' लघुकथा विषयक समीक्षात्मक लेखों का संग्रह आया है। २००२ में डॉ कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' आई थी,इसे २०१६ में पुनः 'लघुकथा का समय' के टाइटल से प्रकाशित किया गया है। इसमें डॉ गोयनका ने लघुकथा की प्रासंगिकता, आंदोलन, सृजन-प्रक्रिया आदि पर अपने लगभग तीन दशकों के विचारों को संकलित किया है। २०१७ में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां—डॉ बलराम अग्रवाल की 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान' और डॉ रूप देवगुण की 'आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार और विष्लेषण' का प्रकाशन रहीं। 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान'समकालीन हिंदी लघुकथा के विकास को रेखांकित करने, उसका मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करने की दृष्टि से निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है; तो 'आधुनिक हिंदी लघुकथा: आधार और विष्लेषण' में ६१ लघुकथाकारों के पत्र-साक्षात्कारों के आधार पर लघुकथा के परिदृश्य का विष्लेषण किया गया है। २०१८ में डॉ अशोक भाटिया की 'परिंदे पूछते हैं (लघुकथा विमर्श)' और भगीरथ परिहार की 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' पुस्तकें आईं हैं। 'परिंदे पूछते हैं' में डॉ भाटिया ने लघुकथा विषयक करीब अस्सी ज़रूरी सवालों के जवाब विस्तारपूर्वक सहज- सरल भाषा में दिये हैं। लघुकथा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को समझने के इसी क्रम में बलराम  अग्रवाल की ‘परिंदों के दरमियां’ महत्वपूर्ण है तो 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' में भगीरथ परिहार ने लघुकथा विधा के समक्ष समय-समय पर आई चुनौतियों को लक्ष्य कर पिछले चालीस वर्षों में लिखे गए उनके लेखों को संकलित किया है। २०१८ में ही एक और श्रेष्ठ कृति डॉ जितेन्द्र जीतू की ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौंदर्यबोध’ प्रकाशित हुई है।
२०१९ लघुकथा-समीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस वर्ष योगराज प्रभाकर द्वारा संपादित ‘लघुकथा : रचना-प्रक्रिया’ पुस्तक आई, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया से जुड़े योगराज प्रभाकर के विभिन्न प्रश्नों के लघुकथाकारों द्वारा दिये गये जवाबों का पुस्तक रूप है। अशोक भाटिया की ‘लघुकथा : आकार और प्रकार’, बलराम अग्रवाल की ‘लघुकथा का प्रबल-पक्ष’ एवं डॉ सत्यवीर मानव की ‘हिंदी लघुकथा : संवेदना और शिल्प’ का द्वितीय संस्करण भी आया है। रामेश्वर कांबोज हिमांशु की ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’ तथा सुकेश साहनी की ‘लघुकथा : सृजन और रचना-कौशल’ लघुकथा के विविध पक्षों का विशिष्ट विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं। इसी वर्ष लघुकथा केन्द्रित साक्षात्कारों की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें भी आईं। इनमें एक है—कल्पना भट्ट द्वारा संपादित ‘लघुकथा संवाद’ तथा दूसरी है—डॉ॰ लता अग्रवाल द्वारा संपादित ‘अनुगूँज’। ये सभी पुस्तकें लघुकथा विधा को सांगोपांग समझने का सुअवसर प्रदान करती है ‌।
२०२० की शुरुआत भी अच्छी रही है। डॉ बलराम अग्रवाल की 'लघुकथा : चिंतन-अनुचिंतन' और डॉ सतीशराज पुस्करणा की ‘हिन्दी लघुकथा की प्रविधि’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ ( सं० बलराम) और मधुदीप द्वारा प्रस्तुत 'पड़ाव और पड़ताल' जैसी पुस्तक-श्रृंखलाओं में भी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध हैं। डॉ रामनिवास मानव, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ रामकुमार घोटड़, सुकेश साहनी आदि के लघुकथा-साहित्य पर स्वतंत्र रूप से भी समीक्षात्मक पुस्तकें आ चुकी हैं। परंतु लघुकथा के विशाल साहित्य-भंडार को देखते हुए अभी बहुत अधिक कार्य किया जाना शेष है।
मोबाइल : 9416238131
______________________________
१- हिंदी लघुकथा: स्वरूप और दिशा, कृष्णानंद कृष्ण, पृष्ठ-१२४
२- डॉ सतीशराज पुष्करणा, हिंदी लघुकथाओं का शैक्षिक विष्लेषण के फ्लेप पर टिप्पणी.
३- डॉ बलराम अग्रवाल, 'हिंदी लघुकथा' का अग्रलेख, पृष्ठ-२.
४- डॉ सतीश दूबे, 'हिंदी लघुकथा' की भूमिका, पृष्ठ-२

Monday, 3 February 2020

सुख नैतिक है / डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी

आवरण का चित्र : बलराम अग्रवाल 
[सुप्रसिद्ध हिन्दी आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी 16 फरवरी 2020 को नब्बेवें वर्ष में प्रविष्ट हो रहे हैं। अभिनंदन स्वरूप 'कथादेश' के फरवरी 2020 अंक में उनके साथ कथाकार योगेन्द्र आहूजा, ओमा शर्मा, भालचंद्र जोशी तथा कथादेश संपादक हरिनारायण जी की 8 पृष्ठीय अत्यंत महत्वपूर्ण बातचीत प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत हैं उक्त बातचीत के अनेक उल्लेखनीय बिंदुओं में से कुछ...। इनमें कोई बिंदु अगर बहसतलब महसूस हो तो पहले कृपया पूरी की पूरी मूल बातचीत अवश्य पढ़ें। ]


¶ साहित्य की प्रकृति बड़ी दोगली है। जहाँ बड़ी यातना होती है, वहाँ यह रस पैदा कर देती है।

¶ मुझे कोई संकट ‘शब्द’ या ‘साहित्य’ पर नजर नहीं आता। हाँ, संकट साहित्य पर खुद साहित्यकारों की तरफ से हो सकता है।… साम्राज्यवाद के विरोधी खुद अधिकाधिक इच्छा से लिप्त न हों, ऐसा नहीं होता। हम उसका विरोध करते हैं, लेकिन हमारी मानसिकता खुद उनके जैसी होती है।

कुछ बातें शायद कहने में अच्छी न लगें, लेकिन वे ठीक होती हैं।

¶ शब्द का और क्रिएटिविटी का संयम से बहुत गहरा सम्बन्ध है।

¶ साहित्य पर खतरा उतना बाहर से नहीं है, जितना उसके भीतर से है।


¶ कौन-सी ऐसी शब्द की या ध्वनि की महिमा है, जो आपको उस सौन्दर्य की ओर उन्मुख कर देती है, जो साहित्य से प्रकट होता है?


¶ सौन्दर्य जो है… राजस्थानी गाना है न, ‘पधारो म्हारे देस!’; ‘पधारो म्हारे’ में क्या ‘जम्प’ है, बस वही है… होंठ का जरा-सा इधर से उधर हो जाना।… संस्कृति ने, नेचर ने, पता नहीं कितनी प्रक्रियाओं के बाद वह होंठ का जरा-सा कर्ब पसंद किया होगा।

¶ म्यूजिक का, साहित्य का, सबका स्रोत जीवन में ही होता है।


¶ लोकगीतों में वो कसक आदिम मनुष्य की जो है… जब आदमी ने सूर्य को पहली बार देखा होगा, ‘ओह’ किया होगा। वह ‘ओह’ लोकगीतों में, बच्चों के रोने-गाने में मौजूद है और हमारा लोकसाहित्य चीख-चीखकर पकड़कर उसे लाता है।

¶ आजकल के आलोचक किसी सिद्धान्त की व्याख्या कर देना आलोचना समझते हैं। रचना में मार्मिकता कहाँ है, जिस ‘कर्ब’ की मैंने बात की थी, वो कर्ब कहाँ है, वो पकड़ना मुश्किल होता है। 


यह प्रेम जो होता है, कभी-कभी आपको दूर फेंक देता है। उसकी जरा-सी भी बात आपको बहुत अजीब लग जाती है।… 


जीवन में एहसान लेना अच्छी चीज नहीं होती।

उन (पं॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी) की कृपा मुझपर हुई, न जाने कितने जन्मान्तरों के संयोग से। अब मैं किसी और का नहीं हो सकता था।


अकेले में आपकी तारीफ कर दी और फिर सबसे कहा, कि हमने तो ऐसे ही कह दिया था। ऑडियंस देखकर बोलना ये नामवर जी बहुत करते थे। 


¶ साही को पढ़ लिया था और कुछ पश्चिमी आलोचकों को अच्छी तरह पढ़कर… वे गहरी बातें थीं, लेकिन उन (नामवर जी) की नहीं थीं।

¶ रामविलास जी ने लिखा कि नामवर जी की प्रतिभा ये है कि जिस आदमी से उठाते हैं, उसकी शब्दावली भी ले लेते हैं। 


¶ रामविलास जी ने उनसे कहा, कि ‘नामवर, तुमको पता है कि मैं क्यों नाराज हूँ तुमसे?… तुम पहले मेरा चुराते थे, चुरा-चुरा के लिखते थे। अब तुमने साही का चुराकर लिखना शुरू कर दिया! तो तुमने मेरा अपमान किया या नहीं?’


नामवर जी इज़ ए क्रिटिक ऑफ हिस्ट्री ऑन हिज़ ओन। मुक्तिबोध पर रामविलास जी ने गलत लिखा है।… पंत जी, यशपाल, द्विवेदी जी पर उन्होंने खराब लिखा। मुक्तिबोध को उन्होंने बाद में समझा। चूक जाते हैं लोग। पहले जो लिखा वो गलत है। 


अपनी रचना की प्रशंसा सुनने की इच्छा स्वाभाविक है। सिरदर्द होता है तो कोई फोन करके कह दे, कि आपका लेख पढ़ा मैंने, तारीफ कर दे तो सिरदर्द भी ठीक हो जाता है। 


¶ आप अपने बनाए मानदंडों पर चल नहीं सकते, बिल्कुल नहीं चल सकते। 

¶ उर्दू वाला, किसान-जीवन पर नहीं लिख सकता। 

¶ अकेलापन तो होता है… लेकिन उसी को ताकत बनाना होता है वरना इसी में झूलते रहोगे। द्वंद्वात्मक जीवन नहीं जी पाओगे।

¶ जिन ओगों का लेखन आपको पसन्द आता है न, उसका आपके लेखन पर दबाव होता है। यह चीज बड़ी दूर तक जाती है। 

अगर कोई फार्मूला बनाना चाहे तो फार्मूला तो एक ही है, कि लेखक होकर आप मत लिखिए, आप लिखने लगिए तो… जो देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं एक मनुष्य के रूप में, बस वह लिखिए। 

¶ संस्मरण लिखना है तो उनमें आत्मौचित्य नहीं होना चाहिए। एकाउंट नहीं सेटल करना चाहिए। जैसे कोई घटना हुई तो उस घटना के केन्द्र में आप खुद को न रखें। अपने को गाढ़ा रंग न देना, सहज ढंग से लिखना; बल्कि हो सके तो अपने को बहुत पीछे रखना। लेकिन यह सब कोशिश करके नहीं, विवेक ही ऐसा होता है।

¶ जो इतिहास है, विचारधारा है, राजनीति है… प्रपंच जो है, वह बहुत हावी हो गया है हम पर। उससे स्वतंत्र और मुक्त कला ही कर सकती है।

¶ इतिहास इतना हावी जो है, तभी उससे मुक्ति के लिए हम तड़प रहे हैं। जो आदिम मनुष्य रहा होगा, उसे इतिहास से मुक्ति की कोई पीड़ा नहीं रही होगी।

¶ जो सौन्दर्य का क्षण होता है, वह सबसे विशिष्ट तो होता है, लेकिन कनेक्टेड वह पता नहीं कितने क्षणों से है।

¶ जो हमारा सौन्दर्यबोध है, सौन्दर्य की संरचना है, उसके बहुत कॉन्स्टीट्वेंट्स हैं, बहुत घटक हैं।

मुसीबत में, परेशानी में, अर्थाभाव में, बीमारी में पति पत्नी ही साथ देते हैं, प्रेमिकाओं के साथ वह सम्बन्ध नहीं है। कभी हो जाए तो बहुत अच्छा है, लेकिन कुल मिलाकर प्लेटोनिक ही रहता है। वह सुख देता है, जीवन को सार्थकता देता है। वही एक ऐसा मनोविकार है जो आपको स्वार्थ से मुक्त कर देता है। आप अपने सुख के बारे में नहीं, प्रेमी के सुख के बारे में सोचते हैं। असल में, जो इन्द्रियों का सुख है, बहुत बड़ा सुख है। पता नहीं लोग कब समझेंगे रति-क्रीड़ा मामूली सुख नहीं है। तल्लीन होना, तन्मय होना, क्रियेट करना… जो आदि-बिम्ब है क्रिएशन का…

¶ (ओमा शर्मा के सवाल--’क्या आपका मन करता है कि आप पचास साल कम उम्र के होते?’ के जवाब में) लेकिन तब इतनी विज़डम न होती। उस समय, मैं तीन-तीन घंटे बस स्टेशन पर इंतजार किया करता था; लेकिन अब नहीं कर सकता। अब अगर उतनी शक्ति आ जाये तो भी नहीं करूँगा। मैं कहूँगा कि इट इज़ नॉट वर्थ दैट।… विवाहित आदमी (इतर) प्रेम न करे तो अच्छा है। इससे पत्नी और बच्चों को बहुत तकलीफ होती है।… पत्नी को पता चल जाता है। आप पत्नी से छुपा नहीं सकते। एक प्रेमिका से भी दूसरी प्रेमिका नहीं छुपा सकते।

एक बार जो मैंने कहा था, कि इस समय जो कहानियाँ लिखी जा रही हैं, तो वह उस ढंग से नहीं कहा था। सचमुच बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी जा रही हैं। आलोचक उन कहानियों की ग्रेटनेस को, उनकी वर्थ को कैसे बतावें? यह मुश्किल काम है, मेहनत माँगता है। मैं इस उम्र में उतनी मेहनत नहीं कर सकता।

¶ साहित्यकार सौन्दर्य को देख सकता है। भोग सकता है। यह उसका पॉजिटिव एडवेंचर है। एक सुन्दरी को देखकर (साहित्यकार होने के नाते) तुमको जो सुख मिलेगा, वह उसे नहीं जो साहित्यकार नहीं।

¶ (भालचन्द्र जोशी के सवाल--‘नामवर जी ने कहा कि आलोचना भी रचना होती है और एक बार यह भी कहा था कि रचना हमेशा आलोचना से बड़ी होती है। इन दोनों की द्वंद्वात्मकता को लेकर क्या कहेंगे आप?’ के जवाब में) ऐसा है भालचन्द्र, आलोचना ही रचना नहीं होती है, पाठ की प्रक्रिया भी एक रचना होती है। जब आप कविता पढ़ते हैं, तो उसके साथ अपनी कविता भी तो रचते जाते हैं न! अच्छी रचना के साथ आप भी तो अपना पाठ रचते हैं। अच्छी रचना पाठकों को सर्जक या सर्जना में सहभागी बनाती है। हर अच्छा पाठक अच्छा आलोचक नहीं होता; लेकिन हर आलोचक एक अच्छा पाठक जरूर होगा। तो आलोचक को तो रचनाकार होना ही पड़ता है। लेकिन आलोचक की महत्ता वहीं तक नहीं है…


¶ (त्रिपाठी जी के कथन--‘सुख नैतिक है’ पर ओमा शर्मा के सवाल--‘और दु:ख?’ के जवाब में) दु:ख केवल वही नैतिक है जिसमें सबके सुख की कामना छुपी हो… विराट दु:ख, बुद्ध वाला। उससे बड़ी नैति्कता क्या हो सकती है? वह दु:ख भी दरअसल सुख ही है, सर्वोच्च, चरम सुख।
दिखा तो देती है, बेहतर हयात के सपने।
खराब होके भी ये जिंदगी खराब नहीं॥(फिराक)