दिव्या
राकेश शर्मा ने 14 दिसम्बर 2019 को एक पोस्ट अपनी फेसबुक वॉल पर लिखी और विचार
प्रस्तुत करने हेतु उसे लगभग 14 महिला और इतने ही पुरुष लघुकथाकारों को टैग किया। वह
पोस्ट निम्नप्रकार थी—
दिव्या राकेश शर्मा |
लघुकथा
में समाज की विसंगतियों को उठाया जाता है और मार्मिकता को इसमें मुख्य स्थान दिया
जाता है।
इन
सबसे इतर यदि हम लघुकथा में सिर्फ महिला पात्र की बात करें तो हमें बात करनी होगी
उन पात्रों के चित्रण की।
इस
चर्चा में मैं आप सभी को आमंत्रित करती हूँ और ‘लघुकथा में महिला पात्र का प्रबल-पक्ष’
पर विचार आमंत्रित करती हूँ।
उनका
कहना रहा, कि
हम ऐसे पात्रों को वर्णित करें जो स्त्री को दीनहीन दिखाने जैसी सोच से
बाहर
निकलें। मैं स्त्री के सशक्तिकरण के पक्ष
में नहीं हूँ क्योंकि वह सदैव सशक्त थी
सशक्त है और रहेगी।
अनघा जोगलेकर |
इस पर सबसे पहली टिप्पणी अनघा जोगलेकर ने की—‘मेरे
विचार से पिछले 3-4 सालों में महिला लघुकथाकारों की शिरकत बढ़ी है लेकिन अधिकांश
लघुकथाएँ या तो सास-बहू पर सिमट जाती हैं जिसमें दोनों में से एक महिला को
दुखियारा दिखाया जाता है; या बूढ़ी माँ या नाबालिक लड़की का शोषण! क्यों ?
आखिर क्यों हम महिला पात्र को सशक्त नहीं दिखाते? मानती हूँ कि आज
भी महिलाओं की स्थिति बहुत सशक्त नहीं है। फिर भी, जब तक बारूद नहीं भरा जाएगा तब
तक रॉकेट नहीं उड़ेगा। हम साहित्यकारों को आज की सशक्त महिला का चित्रण करना होगा
ताकि अन्य महिलाओं में भी अपने अधिकारों के प्रति या कम से कम अपनी इच्छा के प्रति
सजगता आये। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। हमारी कथाओं की शक्ति स्वरूपिणी
महिला पात्र को पढ़कर कहीं तो चिंगारी सुलगेगी। हम महिलाओं को इतना बेचारगी से भर
देते हैं कि आँचल में दूध आँखों में पानी... नहीं। अब और आँखों में पानी नहीं। हमें
लिखते समय मार्मिकता लाने के लिए स्त्री को कमजोर दिखाने की जरूरत नहीं, जो
अत्याचार सह-सहकर भी जीवित है और मुस्कुरा रही है। नहीं।
लेकिन
स्त्री को उच्छृंखल भी नहीं दिखाना है।
एक
बात और देखने में आती है, कि सास-बहू कथानक या नौकरानी-महरी का कथानक कितना भी
पुराना हो जाए, पर चलता बहुत है। सो, उसे भी लोग रामबाण की तरह इस्तेमाल करते हैं।
अन्य
कथानकों पर प्रयोग करना चाहिए। लाइक्स कम मिलेंगे लेकिन लेखक की कलम खुश होगी कि
आज कुछ अलग लिखा।
बंधु कुशावर्ती |
वरिष्ठ
साहित्यकार बंधु कुशावर्ती ने अपनी बात यों रखी, कि—महिलाओं के लघुकथा-लेखन में
यथार्थ,
परिवेश और चरित्र आदि के स्तर पर अपवाद स्वरूप ही सशक्त और
प्रभावशाली पात्र उमर कर आये हैं। वजह है कि आमतौर पर महिलाओं की सीमित दुनिया के
घटना-प्रसंग ही महिला लघुकथाकारों के लेखन के विषय रहते हैं।विषय की बहुआयामिता
में जाकर कथ्य के पीछे अन्तर्निहित सत्य,संसार,यथार्थ,चरित्रों की गहराई आदि में पैठना और सशक्त
लघुकथा-लिखने पर समय देकर मेहनत नहीं की जाती है।
लेखन
में एक होता है--'परकाया प्रवेश'!
इस पर महिला लघुकथाकारों का काम नगण्य है! 'सत्य,संसार,यथार्थ चरित्र' एक वह
होता है जो हमारे सामने और हमारे अनुभव की सीमा में जैसा होता है, वैसा हमारी-आपकी तरह बहुतों का(विविधत:) होता है। अबअगर सामान्य को ही सब
लायेंगें तो थोड़े अन्तर के साथ प्रायःएक जैसा ही पाठक को पढ़ने को मिलेगा।परन्तु
जिस यथार्थ,चरित्र,समय को चित्रित किया
जा रहा है,उसे अपनी कल्पना और सोच से बहुतेरे लोगों की
वैविध्यपूर्ण दृष्टियों से एक रचनाकार कितना देख और समझ पाता है?
'परकाया-प्रवेश' कठिन साधना है।उसकी क्षमता को साधते
हुए विकसित करना पड़ता है। ऐसे अभ्यास में तब एक ही चरित्र,यथार्थ,समय,सत्य आदि के कई रूप हम देख पाते हैं।
परन्तु
सामान्य होते हुए भी वह विशिष्ट,अलग-अलग व
प्रभावशाली होने के बावजू़द;एक यथार्थ,सत्य,समय आदि को अपनी विविधता मे हमें दिखाता है।उसमें से हम अपने कथ्य के अनुरूप
चुनते और अपनी रचना में ले आते हैं!
उन्होंने
दिव्या से पूछा, कि— खुद महिला लघुकथाकार इस पर कितनी
बेबाकी से बात करने को सन्नद्ध और प्रस्तुत हैं? और यह भी कहा, कि—कहने-सोचने और बताने तक में तो महिला-पुरुष लेखक की बात
सचेत रूप करते हुए खासी सावधानी बरती जाती है,पर जो सोच-समझ
में गहरे तक पैबस्त है,वह जब रचना में आता है,तब रचनाकार की कथनी-करनी और दरअस्ल उसकी मानसिक बनावट-बुनावट में जो है,रचना में वही देखने-पढ़ने में साफ तौर पर उतर और भरकर आता है!
मृणाल आशुतोष |
मृणाल
आशुतोष बोले—जिस अनुपात में महिला लघुकथाकारों की मात्रा बढ़ी है,
गुणवत्ता उस अनुपात में नहीं है। वर्तमान लेखिकाएं दुनिया जहान की
यात्रा कर रही हैं, इंटरनेट के प्रयोग में पुरुष से कतई कम
नहीं हैं, पर पारिवारिक कथाओं के मोह से निकल नहीं पा रहीं।
कुछ हद तक पुरुष लघुकथाकार भी इसी श्रेणी में हैं। उनको भी अपना दायरा विस्तृत
करना होगा।
सामान्यतः
महिलाओं की अनुभूति बेहतर होती है, इससे
कोई इंकार नहीं कर सकता। यथार्थपरक और वर्तमान समय के अनुरूप रचना की जरूरत है।
तात्कालिक मार्मिकता से बचने की जरूरत है। इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि
पारिवारिक कथानक बिल्कुल ही न लिखें जाएँ।
नारी
की स्थिति दिन प्रतिदिन बेहतर हुई है। कथा में रचनाकाल भी एक प्रमुख अवयव होता है।
यह याद रखने की जरूरत है।
दिव्या
ने कहा—अभी भी बहुत बदलाव की आवश्यकता है। अभी भी महिला पात्रों को बेचारी और बेबस
ही दिखाया जा रहा है जिसके मैं विरूद्ध हूँ।
इस
पर बंधु जी ने पूछा— दिव्या राकेश शर्मा-कौन और क्यों
महिला पात्रों को बेबस-बेचारी दिखा रहा है?
सतीश राठी |
सतीश
राठी ने कहा—अधिकांश लघुकथाओं में महिला पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत उथला-उथला
लगता है। उसका कारण यह भी होता है कि लघुकथाएँ अधिक विवरणात्मक नहीं हो पातीं इसलिए
चरित्र चित्रण का स्थान बन नहीं पाता। लेकिन बावजूद इसके कुछ लघुकथाकारों ने
लघुकथा के प्रारंभ से कोई एक महिला चरित्र को उठाकर पूरी ताकत और सशक्तता के साथ
प्रस्तुत किया है। ऐसे कुछ महिला पात्र कई लघुकथाओं के प्रसिद्ध पात्रों के रूप
में स्थापित हो गए हैं। पिछले दिनों मधुदीप के महिला पात्र नमिता सिंह पर तो पूरी
एक किताब आ रही है।
मधुदीप गुप्ता |
मधुदीप
गुप्ता बोले—‘कनक हरलालका की लघुकथा ‘जानवर’ में महिला सरपंच का बहुत ही
महत्वपूर्ण चरित्र मौजूद है ।
अन्तरा करवड़े |
अन्तरा
करवड़े का विचार था, कि—महिला पात्र का चित्रण अक्सर जटिल होता है। न तो आदर्श की
परिभाषा पर हमारे आस-पास की महिलाएँ खरी उतर पाती है और न ही समाज की। उन्हें
देखने की दृष्टि एक-जैसी है। जो शारीरिक व मानसिक परिवर्तन किसी महिला के जीवन में
आते हैं,
उनकी क्लिष्टता से सामंजस्य बैठाती हुई, रिश्तों
से दो-चार होती महिला का कथानकों में आ जाना स्वाभाविक है। आवश्यकता उसके मन को
स्थिर, विचारों को परिपक्व और लक्ष्य को सकारात्मक दिखाने की
है। यह भी उतना ही सही है कि घरेलू से परे अंतराष्ट्रीय पटल, अनछुए परिवेश और पूर्ण होती स्त्री का चित्रण किया जाना खासकर महिला शब्द-साधिकाओं
के लिये एक नैतिक कर्तव्य के समान है।
भारती कुमारी |
और, भारती
कुमारी ने कहा—हम सब जानते हैं कि पिछले कुछ सालों में महिला लघुकथाकारो ने अपनी
मजबूत उपस्थिति दर्ज की है तो स्वाभाविक रूप से महिला पात्रों का चित्रण भी बढ़ा
है। हर तरह की महिला पात्रों का चित्रण भी और भारतीय संस्कृति में कहीं न कहीं
महिलाओं की जो छवि हैवही छवि दिखाई देती है लघु कथाओं में पर कभी कभी मार्मिकता
परोसने के लिए कुछ 'अति' कर दी जाती है। जरूरत है एक मजबूत चित्रण की जो पाठिकाओं को प्रभावित करे ,
हिम्मत दे।
अनूपा हरबोला |
अनूपा
हरबोला ने कहा, कि—साहित्य समाज का दर्पण है इसलिए ज्यादातर लेखकों द्वारा महिलाओं
का प्रबल पक्ष ही उजागर किया जाता है। यह लेखक का दायित्व भी है, पर समाज में एक
तबका ऐसा भी है जो प्रताड़ित है, जिसे किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है। इस
समाज को भी दिखना एक लेखक का कर्तव्य है। हमें यदा-कदा ऐसा दिख ही जाता है कि
महिलाएँ नौकरी के साथ-साथ घर-गृहस्थी में बहुत अच्छे से सामजंस्य करके परिवार में
अपना आर्थिक योगदान भी देती हैं। पर, क्या उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता है....? हम
बात करते हैं, कि महिलाएँ किसी से कम नहीं; और हम लघुकथाओं में अगर दिखाते हैं कि
महिला ने अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठायी, तो लोग उस पर नाना प्रकार
के आरोप लगा देते हैं... महिला खुले आम अपनी जरूरत को व्यक्त नही कर सकती...। फिर
भी, बहुत-सी लघुकथाओं में महिलाओं का प्रबल-पक्ष ही उजागर हुआ है। मैं अनघा जी की
बात से सहमत हूँ कि अब समय आ गया है कि हम अपनी सोच का दायरा बढ़ाएँ...।
अंजु खरबंदा |
अंजु
खरबंदा ने बताया, कि—महिलाएँ घर-परिवार-समाज से अधिक जुड़ी होती हैं। महिलाएँ या तो
हाऊस वाईफ होती हैं या वर्किंग। दोनो ही स्थितियों में उन्हें अक्सर अधिक झेलना
पड़ता है और यही कारण है कि उनके पास अधिकतर घर-परिवार,
पति, मेड, बच्चों,
बहू, सास, ससुर को लेकर अधिक विषय होते हैं।
फिर भी, कई महिला लेखिकाएँ इस दायरे से बाहर आई हैं।
पुरुष
तो वर्किंग ही होते हैं। वे रोज बाहर निकलते है, दुनिया देखते हैं, हर विषय पर चर्चा करते हैं। यह एक
बड़ा कारण हो सकता है उनके लेखन में विविधता का!
महिला
पात्र कई जगह सशक्त हुए हैं, परंतु अभी भी ‘बेचारी’ के शब्दजाल से नहीं निकल पाए हैं।
इस ओर अधिक प्रयास की आवश्यकता है ।
लघुकथा
में महिला पात्र का प्रबल-पक्ष पर आभा अदीब राजदान ने कहा, कि—कई महिलाएँ बहुत पढ
लिख के कोई भी नौकरी करती हैं, जहाँ बहुत-सी
साधारण तो बहुत सी ऊंचे पदों पर भी आसीन हैं। बहुत-सी स्त्रियाँ कितने ही प्रकार
के व्यापार में भी संलग्न हैं। कहीं न कहीं ये सभी धन तो पैदा कर ही रही हैं और
समाज में अपना एक मुक़ाम भी बना रही हैं ।
कुछ
हमारे-जैसी भी हैं जो एक होम मेकर हैं। बाहर जाकर कभी काम करके धन तो पैदा नहीं
किया; लेकिन जीवन में अपना पूरा समय और ताकत घर-गृहस्थी को ही दे दी। हालाँकि यह
होम मेकर का काम एक thankless काम है।
कभी घर वाले किसी भी काम के लिए धन्यवाद नहीं देते, बस यह
हमारा काम है। हमें करना है, तो बस करना है।
जो
निम्न वर्ग की महिलाएँ हैं, वह अभी भी अधिकतर शिक्षा से वंचित हैं; लेकिन अपनी
मेहनत से घरेलू काम या किसी भी तरह की मज़दूरी करके धन भी कमा रही हैं और अपने
मर्दों की गालियों और मार से प्रताड़ित भी हो रही हैं। इतना कष्ट सहकर भी हर दिन
अपना हाड़-माँस जलाकर मेहनत तो कर ही रही हैं ।
हर आय-वर्ग की परेशानियाँ कष्ट और
जद्दोजहद कमोबेश एक से ही हैं। सभी विपरीत परिस्थितियों में भी स्त्री बहुत अधिक
साहस से, हिम्मत से समाज में खड़ी होने का साहस कर रही है। मुझे तो यही उसका सबसे
प्रबल-पक्ष लगता है। आज भी एक पढ़ा-लिखा पुरुष ही किसी महिला कार-चालक को देखकर
व्यंग्य से यह जरूर कह देता है, कि—भइया महिला चला रही हैं, सँभलकर चलाओ।
स्त्री
तो हर रूप में सबल ही है, तभी तो वह जननी है। बात पुरुषों की मानसिकता बदलने की है।
हर वर्ग के अधिकतर पुरुष अपनी क्षुद्र मानसिकता के चलते छल और बल से आज भी स्त्री
को नीचे ही घसीटने में लगे हैं और उसका निरादर और तिरस्कार करने से चूकते नहीं हैं।
उसे सबला के रूप में कभी देखना नहीं चाहते हैं ।
भटनागर अविंचल |
भटनागर
अविंचल ने कहा—लघुकथा में जब महिला पात्रों का वर्णन होता हैं,
तो ज्यादातर उन्हें चित्रित करने के लिए उनकी वेशभूषा या केशभूषा का
वर्णन किया जाता है। इसकी बजाय उनकी नौकरी या व्यवसाय का वर्णन होना चाहिए। आज भी
हम लोग किसी की पहचान उसके पहनावे को देखकर करते हैं। यह हमारी एक कमजोरी है। किसी
के चरित्र का वर्णन करने के लिए उसके कार्यो का वर्णन होना चाहिए, ना कि उसके पहनावे का।
अरुण धर्मावत |
अरुण
धर्मावत ने अपना विचार यों रक्खा—दो वर्ष पूर्व समानांतर साहित्य महोत्सव,
जयपुर में बोलते हुए सुविख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा जी ने कहा था,
कि ‘यदि स्त्री को अपने आपको पुरुष के समकक्ष लाना है, तो उसे अपने निजी संत्रास
का मोह त्यागकर अपने लेखन को विस्तार देना होगा। उसे हर विषय पर लिखना होगा।’
सौभाग्यवश वर्तमान समय में महिला लेखकों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा अधिक है,
किन्तु दुर्भाग्यवश लेखन में नारी उत्पीड़न की बहुतायतता है। वर्तमान में लिखी जा
रही सौ कथा-कहानियों में से नब्बे का विषय स्त्री-वेदना से युक्त ही है। उसमें भी
नारी पात्र का प्रारुप वही दयनीय, दबी, कुचली अबला स्त्री की छवि से आच्छादित है। अतः आवश्यकता इस बात की होनी
चाहिए कि स्त्रियाँ लेखन में विस्तार लाकर बहुआयामी चित्रण करें।
कल्पना मिश्रा |
कल्पना
मिश्रा बोलीं—स्त्री अपने आप में प्रबल है… घर में भी और घर के बाहर भी… हर
क्षेत्र में! अगर ठान ले, तो वह कुछ भी कर सकती है… जिस पर पति और घरवालों का
सहयोग मिले तो फिर वह पीछे मुड़कर नही देखेंगी... पर कभी-कभी कुछ स्त्रियाँ उसका
दुरुपयोग भी करती हैं, जोकि चिन्तनीय है! लेखक का धर्म है कि वह स्त्री के घर
/बाहर के योगदान और त्याग का सशक्त रूप भी प्रस्तुत करे!
स्मिताश्री |
स्मिताश्री
ने कहा—मुझे लगता है कि महिला पात्रों का सबसे प्रबल-पक्ष जो आजकल उभर रहा है, वो
मेरी समझ से है—समकालीन द्वंद्व में संवेदनाओं का छोर पकड़े हुए भी कहीं एक नये
आकाश में नयी इबारत लिखने की कोशिश ही नहीं करना बल्कि सफल कदम बढाना हमारी
लघुकथाओं की महिला पात्र अभी संक्रमण के दौर में हैं और द्वंद्व तो है,
निस्संदेह। लेकिन कुछ रचनाकारों को देख रही हूँ कि वही संवेदनमयी
देवी चरित्र, जहाँ ‘स्व’ को भूल बस न्यौछावर करना ही श्रेयस्कर दिखता हो, उसे
प्रमोट किया जाता है। पर यह पसंद नहीं मुझे। महिला पात्र भी आज की हैं—मेरे जैसी,
तुम्हारे जैसी। तनिक पारंपरिक और पूर्व से सशक्त।