'लघुकथा में मुख्य पात्र का 'मैं' होना
वर्जित है या कथानुरूप स्वीकार्य'
20 अक्टूबर 2019 को ‘मिन्नी’ द्वारा अबोहर (पंजाब) में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में इस
बार सर्वाधिक चर्चा का विषय यही मुद्दा रहा। जो भी बहस हुई, उसे मैं बाद में इस पटल
पर रखूँगा। नये-पुराने, लघुकथा के सभी चिंतक साथियों से निवेदन है कि इस मुद्दे पर, बिना
किसी लाग-लपेट के अपने विचार यहाँ रखें।
प्रसंगवश प्रस्तुत है, चर्चा
के केन्द्र में रही शोभना श्याम की लघुकथा ‘बख्शीश’। आपको इस लघुकथा के गुण-दोष
यहाँ नहीं बताने। केवल इस बिन्दु पर केन्द्रित रहना है कि ‘लघुकथा’ में ‘मैं’
पात्र आना चाहिए या नहीं। नहीं आना चाहिए, तो क्यों? किन परिस्थियों में?
बख्शीश
शोभना श्याम |
एक तो उसने ऑटो रिक्शा वालों की आम प्रवृत्ति के
विपरीत वाज़िब पैसे ही मांगे थे, दूसरे ऑटो के सवारी के बैठने वाले पिछले भाग में
दोनों ओर पारदर्शी प्लास्टिक के परदे लगाए हुए थे, जो ऊपर और नीचे दोनों ओर से ऑटो
के साथ अच्छी तरह बाँधे हुए थे । इस कारण रास्ते की धूल ओर तीखी हवा, दोनों से ही बचाव हो गया
था । दिन-भर की थकन जैसे घर पहुँचने से पहले ही उतरनी
आरम्भ हो गयी थी । अचानक मैंने खुद को गुनगुनाते पाया, लेकिन फिर तुरंत ही सम्भल गयी । आराम और तसल्ली के इस
मूड में एक विचार मन में कौंधा कि घर पहुँचकर इसे किराये से दस रुपए अतिरिक्त
दूँगी, आखिर इसने पर्दे लगाने पर जो पैसा खर्च किया है उसका फायदा तो इसमें बैठने वाले यात्रियों को ही हो रहा है न । यह विचार
आते ही मुझे अपनी उदारता पर थोड़ा गर्व हो आया । मैंने मन ही मन इस किस्से के कुछ ड्राफ्ट बनाने शुरू कर दिए कि प्रत्यक्ष में
तो ऑटो वाले की प्रशंसा हो जाये और परोक्ष में मेरा ये उदार कृत्य भी दूसरों तक
पहुँच जाये ।
रास्ते में पड़ने वाले बाजार से जब मैंने आधा किलो दूध
का पैकेट लेने के लिए ऑटो रोका तो उसने फिर से अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए
मुझे ऑटो में बैठे रहने का इशारा किया और मुझसे पैसे लेकर स्वयं उतर, दूध का पैकेट लाकर मुझे दे दिया। अब
तो उसे बख्शीश देने का निर्णय और भी दृढ़ हो गया, साथ ही सुनाये जाने वाले किस्से में उसकी प्रशंसा के एक-दो वाक्य और जुड़ गए । घर पहुँचकर मैंने पर्स में से
किराये के लिए पचास रुपए का नोट निकालने के बाद जब दस का नोट और निकालना चाहा तो
पाया कि मेरे पास छुट्टे रुपयों में बस बीस रुपये का एक नोट ही है, शेष सभी सौ और पाँच सौ के नोट थे । उदारता और
व्यवहारिकता के बीच चले कुछ सेकेंड्स के संघर्ष में आखिरकार व्यवहारिकता के ये
तर्क जीत गए कि माना किराया उसने ज्यादा नहीं मांगा लेकिन
ऐसा कम भी तो नहीं हैं। देखा जाये तो मीटर से तो 40 रुपये ही बनते थे । वो तो ओला और उबर के आने से पहले मांगे
जाने वाले अनाप-शनाप किराये के सामने मुझे पचास रुपए कम लग रहे हैं । पर्दों के कारण
उसे दूसरों से सवारी ज्यादा मिलती होंगी और स्वयं दूध लाकर देने के पीछे उसकी मंशा
समय बचाने की भी रही होगी क्योंकि मुझे पर्दा हटाने में अतिरिक्त समय लगता । इन तर्कों
से आश्वस्त होते ही मेरे हाथ में आया बीस का नोट पर्स में ही छूट गया ।
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