Sunday, 29 September 2019

रामकुमार आत्रेय जी को विनम्र श्रद्धांजलि



'लघुकथा कलश' रचना प्रक्रिया महाविशेषांक से-4

18 सितम्बर 2019 वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय जी का फोन आया
रामकुमार आत्रेय (01-02-1944--29-9-2019)
था। हमेशा की तरह लम्बी बातचीत उनसे हुई थी। 27 सितम्बर को संदेश भेजकर राधेश्याम भारतीय से अनुरोध किया था कि ‘लघुकथा कलश’ में प्रकाशित ‘इक्कीस जूते’ पर उनकी रचना प्रक्रिया वह मुझे मेल कर दें। कल वह मुझे मिल भी गयी थी और 1 अक्टूबर को उसे यहाँ ‘जनगाथा’ के पटल पर लगना था। मगर दुर्भाग्य। ‘इक्कीस जूते’, ‘आँखों वाले अन्धे’, ‘छोटी-सी बात’ और ‘बिन शीशों का चश्मा’ जैसे लघुकथा संग्रहों के रचयिता और लघुकथाओं पर साफ-सफ्फाक राय प्रस्तुत करने वाले आदरणीय रामकुमार आत्रेय आज 29 सितम्बर 2019 को शरीर त्याग गये। 


श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है ‘लघुकथा कलश’ के ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ में प्रकाशित उनकी लघुकथा ‘इक्कीस जूते’ लेकिन पहले, उस लघुकथा के उत्स से जुड़ा प्रसंग यानी उसकी ‘रचना प्रक्रिया’ ज्यों की त्यों……

बन्धुवर योगराज जी ने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है कि मैं अपनी लघुकथाओं में किन्हीं दो लघुकथाओं को चुनकर उनकी रचना प्रक्रिया के विषय में एक आलेख लिखूं। सर्वप्रथम तो अपनी ही रचनाओं के विषय में कुछ भी लिखना आसान नहीं होता। दूसरा, किंही दो रचनाओं को चूनना और उनकी रचना प्रक्रिया के विषय में लिखना तो बेहद कठिन हो जाता है। योगराज जी के आग्रह को ध्यान में रखते हुए जब मैंने अपनी लघुकथा के विस्तृत फलक पर दृष्टि डाली तो एक साथ कईं लघुकथाएं स्मृति में कौंधने लगीं। पंजाब में चल रहे आतंकवाद के भयानक दौर की लघुकथा ‘अनत्तुरित प्रश्न’ के साथ उत्तर प्रदेश के कानपुर में होने वाले साम्प्रदायिक दंगों पर आधारित लघुकथा ‘यक्षप्रश्न’ याद हो आई। सारिका जैसी स्तरीय पत्रिका में प्रकाशित  होने वाली रचनाएं, आज भी मुझे याद हैं। वृद्ध माता-पिता पर  होने वाले अत्याचारों की जीती -जागती तस्वीर  खींचने वाली रचनाएं‘पिताजी सीरियस हैं तथा ‘हरिद्वार’ याद आईं जो ‘हंस’ तथा ‘कथादेश’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं। पवित्र नदियों में  हमारे द्वारा फैलाएं जा रहे प्रदूषण की समस्या को ध्यान में रखते हुए लिखी गई लघुकथा ‘चुनौती’ भी याद आई तो विदेश में रोजी रोटी कमाने वाले युवकों द्वारा  संजीदगी  के साथ गहरा दर्द अनुभव करवाने वाली लघुकथा ‘कीमती डिबिया’ भी स्मरण हो आई। इसी सोच-विचार के दौरान और भी कईं लघुकथाएं रात में चमकते जुगनुओं की तरह स्मृतियों में कौंधती रहीं जो इधर-उधर प्रकाशित  होने के साथ-साथ अनुदित होकर प्रशंसित  भी होती रही  हैं। ऐसी दो लघुकथाओं में ‘बिन शीशों का चश्मा’ तथा छोटी -सी बात जैसी रचनाएं शामिल हैं। बिन शीशों का चश्मा लघुकथा में हमारी शिक्षा व्यवस्था की विसंगिताओं तथा सामाजिक विदू्रपता को उद्घाटित करती है।
छोटी सी बात लघुकथा में कन्याओं पर होनेवाले नृशंस बलात्कार करने वालों के पक्ष में प्रच्छन्न सहयोग जैसी घटिया मानसिकता पर करारा व्यंग्य किया है। 
अंततः मैंने निम्नलिखित दो लघुकथाओं को चुना ‘इक्कीस जूते ’तथा ‘पंख’ । ‘इक्कीस जूते’ एक ऐसी लघुकथा है िंजसके नाम से मेरा पहला लघुकथा संग्रह (1993) भी प्रकाशित हुआ है। ‘पंख’ लघुकथा ‘छोटी-सी बात’ (2006) नामक लघुकथा संग्रह से ली गई है। वैसे तो मैं अधिसंख्य रचनाएं व्यक्तिगत अनुभवों  के आधार पर  लिखता रहा हूं। परन्तु ये दोनों रचनाएं हमारे समाज में व्याप्त गंभीर बीमारियों की ओर संकेत करती हैं। मैं इन रचनाओं में एक पात्र के रूप में उपस्थित रहा हूं। इन दोनों बीमारियों के परिणाम देश और समाज को पीढ़ियों तक सताते रहते हैं। इसलिए मैंने इन्हें चुनने का निर्णय लिया। घटना 1989 की है। तब मैं गांव के ही स्कूल वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत था। प्राध्यापक के पद पर मेरी पदोन्नति होनी थी। हालांकि, मैं तब तक कार्यवाहक प्राध्यापक ही नहीं ,प्राचार्य के रूप में भी कार्य कर रहा था। माता जी लगातार बीमार रहने लगी थीं। मेरे अपने विद्यालय में प्राध्यापक का पद रिक्त पड़ा था। यदि मेरी पदोन्नति वहीं हो जाती तो  मुझे माता जी की सेवा करने का अवसर  मिल जाता । मैं अपनी मां का अकेला बेटा था। मेरी पत्नी पहले ही स्वर्गसिधार चुकी थी। इसलिए मेरे सिवा उनकी सेवा करने वाला अन्य  कोई नहीं था। एक परिचित का सिफारिशी पत्र लेकर मैं चंडीगढ़ में निदेशक (शिक्षा विभाग) के कार्यालय में मिलने पहुंच गया। वहां सिफारिशी पत्र देखकर संबंधित अधीक्षक ने पदोन्नति पाने वाले अध्यापकों की सूची देखकर बताया कि मेरा नाम उस सूची में शामिल है और मुझे गांव के विद्यालय में ही स्थापित कर दिया जायेगा। उसके लिए अधीक्षक ने चुपके से एक हजार रूपये देने के लिए कहा। मैंने जिंदगी में घूस का एक रूपया तक  नहीं दिया था।  यही बात अधीक्षक को बताते हुए कहा कि घूस न तो लूंगा और न ही दूंगा। यह मेरा संकल्प है। उसने कहा कि वह खुद के लिए कुछ नहीं मांग रहा ,उसे तो वहां कार्य करने वाले अन्य कर्मचारियों को भी खुश करना पड़ेगा। तभी  वह मुझे गांव के स्कूल में पदोन्नति का आदेश दे पायेगा। मेरे चुप रहने पर उसने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वह समझ गया था कि मैं उसे घूस के रूप में कुछ भी देने वाला नहीं हूं।  मैंन फिर से सिफारिशी पत्र का हवाला देते हुए अपनी मजबूरी उसे बताई। इस पर उसने कहा कि मैं इस सिफारिश की वजह से काम कर दूंगा। आप अपने घर चले जाइए।
पदोन्नति के वे आदेश 1990 में आए। मेरा नाम उस सूची में नहीं था। एक मित्र ने चंडीगढ जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि ठीक मेरे नाम से पहले वाले सभी अध्यापकों की  पदोन्नति कर दी गई थी। ।यह सब एक हजार रूपये न देने के कारण हुआ। बाद में पदोन्नति हुई पर एक वर्ष के पश्चात यानि 1991 में। फलस्वरूप मुझे वरिष्ठता तथा वेतन संबंधी मिलने वाले लाभ बहुत पीछे चले गए। गांव का विद्यालय भी छोड़ना पड़ा और माता जी की सेवा से वंचित होने का दुख भी झेलना पड़ा। 1992 में ‘इक्कीस जूते’ लघुकथा लिखी गई जोकि खुद की दयनीय स्थिति पर विचार  करते हुए लिखी गई थी। इस लघुकथा में ‘इक्कीस जूते’ खाने वाला ईमानदार व्यक्ति मैं ही हूं। रचना हमारे तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार रूपी कोढ का पर्दाफाश करती है। देश में परिवर्तन आया है परन्तु भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति आज भी थोडी बहुत पहले की भांति ही बनी हुई है।

और अब, लघुकथा              'इक्कीस जूते'
बादशाह ने ढिंढ़ोरा पिटवाया कि उसने अपने पूरे राज्य में ऐसे अवसर उत्पन्न कर दिये हैं कि अब किसी भी व्यक्ति को भूखा नहीं रहना पडे़गा.....पूरा राष्ट्र खुशहाल हो चुका है...यदि कोई व्यक्ति अब भी भूखा रह गया हो तो उसके दरबार में हाजिर हो जाये ताकि उसके भूखा रह जाने का कारण जानकर इसके लिए उतरदायी राजकीय कर्मचारी को दंड दिया जा सके। ढिंढोरा पिटवाकर बादशाह निशि्ंचत हो गया था कि कोई भी भूखा व्यक्ति उसके समक्ष उपस्थित नहीं होगा और उसकी कीर्ति दशों-दिशाओं में फैल जायेगी। लेकिन बादशाह के इस सुखद स्वपन को तोड़ता हुआ एक मरियल -सा व्यक्ति उसके सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गया।
‘‘ तुम भूखे हो?’’बादशाह ने गुर्राते हुए पूछा।
‘‘जी मालिक।’’ गिड़गिड़ाहट भरा स्वर था उस व्यक्ति का।
‘‘क्यों....क्यों? आखिर क्यों ? आग की तरह भड़क उठे थे बादशाह।
‘‘मेरी ईमानदारी के कारण ,भगवन!।’’ व्यक्ति ने गर्व के साथ बादशाह से आंखें मिलाते हुए कहा।
उसे आशा थी कि बादशाह प्रसन्न होकर उसकी पीठ थपथपायेंगे और पुरस्कार देंगे।
‘‘क्या तुमने मेरे कर्मचारियों को तथा दूसरे लोगों को बेईमानी करते हुए नहीं देखा था? क्या तुमने उन्हें अपनी बेईमानी के कारण पुरस्कृत होते नहीं देखा था?’’अगला प्रश्न था बादशाह का।
‘‘हां, सरकार,देखा था।’’
‘‘क्या तुम्हें किसी ने बेईमानी करने से रोका था।?’’
‘‘नहीं ,प्रभु ,नहीं।’’
‘‘तो फिर भी बेईमानी करके तूने अपना पेट क्यों नहीं भरा?’’
‘‘मैं अपने सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहता हूं स्वामी।’’
‘‘बहुत अच्छा। फिर तो भूखा रहने के उतरदायी तुम स्वयं हो।’’ फिर अपने मंत्री की ओर उन्मुख होते हुए उसने आदेश दिया-‘‘ इस व्यक्ति को इक्कीस जूते लगाए जाएं,जोकि ईमानदारी व सिद्धांतों जैसी गली -सड़ी चीजों से खुद को चिपकाए हुए है।’’
पारिवारिक सम्पर्क : 864-ए/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 हरियाणा
                     मोबाईल-09416272588 / ई-मेल ramkumarattrey@gmail.com
योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल98725 68228

नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे  डाक खर्च सहित 300 मात्र (इस अंक का मूल्य 450 है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।

Friday, 27 September 2019

'लघुकथा कलश' रचना प्रक्रिया महाविशेषांक से-3


लघुकथा कलश-4 रचना प्रक्रिया महाविशेषांक से तीसरी प्रस्तुति। इस अंक में अनेक कथाकारों ने रचना की प्रक्रिया से अलग कुछ ऐसी बातें भी लिख डाली हैं, जिनका सीधा सरोकार, कम से कम मेरी दृष्टि में रचना प्रक्रिया से तो नहीं है। लेकिन कोई बात नहीं। ऐसे लोगों की रचना प्रक्रिया में भी अगर कुछ सार्थक नजर आया, तो मैं उतने हिस्से को भी सामने लाने का यत्न करूँगा। गत दो प्रस्तुतियों के बाद यह भी महसूस किया है कि बहुत लम्बे आलेख पाठकों को बाँधे नहीं रख पाते हैं। इसलिए एक लेखक की एक ही रचना की प्रक्रिया एक बार में दी जाए।
एक बात और ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।
अंक के पृष्ठ 97-99 पर जगदीश रॉय कुलरियां की दो लघुकथाएँ—‘मुक्ति और अपना अपना मोह में से 'मुक्ति' की रचना प्रक्रिया यहाँ प्रकाशित हैं। इससे जुड़े तथ्य हिला देने वाले हैं। सोचने को विवश करते हैं, कि गरीबी में जकड़े समाज को विभिन्न कर्मकांडों ने किस हद तक विवश किया हुआ है; और इनसे मुक्ति पाना क्यों जरूरी है। तो आइए, पढ़ते हैं जगदीश राय कुलरियां की लघुकथा मुक्ति की रचना प्रक्रिया

हमारे दिलो-दिमाग में बहुत-सी ऐसी बातें होती हैं जिन्हें हम हर एक से शेयर नहीं कर सकते अथवा समाज में घटित होती अनैतिक/नैतिक घटनाएँ भी कभी-कभी बहुत परेशान करती हैं। कई बार ऐसा होता है, जब हम किसी का शोषण होते हुए देखते हैं और समाज में प्रचलित कई रूढ़ियों को देखकर भी मन क्षोभ से भर जाता है। ऐसे में हम सीधे रूप से कुछ ज्यादा तो नहीं कर सकते, परन्तु अपने अंदर उबलते हुए लावे को शान्त करने के लिए शब्दों का सहारा लेते हैं। वैसे यह लावा उबलता तो बहुत-से लोगों के भीतर है, परन्तु एक लेखक इसका प्रयोग शब्दों के माध्यम से अच्छी तरह से लोकहित में करता है। उसकी कोशिश यह दिखाने की होती है, कि लोग कैसा समाज चाहते हैं और उसके निर्माण में कैसे सहयोग कर सकते हैं? लेखक की रचनाओं के माध्यम से हम उसकी छवि को देख सकते हैं।
मेरे लिए लघुकथा लिखना कोई शौक अथवा शुगल मेला नहीं है; न ही कोई मनोरंजन का साधन है। मेरे लिए ये मेरे विचारों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। मैं जो कुछ करना चाहता हूँ पर कर नहीं पाता, वो अपने पात्रों के माध्यमों से करवाता हूँ। इसके इलावा समाजिक विसंगतियों पर भी ध्यान दिलाने के लिए कलम चलती है। मुझसे लघुकथा कभी भी मिथ कर नहीं लिखी जाती है और न ही ये कोई ऐसा प्रोग्राम है कि मैने उसका कार्यक्रम तैयार किया और निर्धारित समय पर लघुकथा कागज पर उतर गई। समाज में जब मैं विचरता हूँ तो जो बातें, वो साकारात्मक हो, चाहे नाकारात्मक; मुझे प्रभावित करती हैं। वे बातें मेरे भीतर एक खलल-सा डालती रहती हैं। उनका मूल्यांकन चलता रहता है। उन बातों /घटनाओं के पात्र मुझे परेशान करते हैं, हैरान करते हैं। कभी-कभार मेरे सपनों में आकर मुझसे बातें करते हैं; फिर एक दिन मेरे हाथों में कलम आ जाती है और वह अपनी बीती बयान करने लगते हैं। ऐसे मेरी लघुकथा का पहला ड्राफ्ट तैयार होता है।
पंजाबी के एक सुप्रसिद्ध कथाकार हैंसरदार वरियाम सिंह संधू। उनकी एक चर्चित कहानी है—‘अपना अपना हिस्सा। इस कहानी को बचपन में पढ़ा था और दूरदर्शन पर इस कथा पर बनी एक टेलीफिल्म भी देखी थी। कथा का संक्षिप्त रूप यह है, कि तीन भाई हैं जिनमें सबसे छोटा गरीब किसान है। उनके पिता की मृत्यु के बाद फूल पाने की बात पर भाई उससे तीसरा हिस्सा खर्चा माँगते हैं; जबकि वह ही आपने माता-पिता को संभाल रहा था। बाकी दोनों तो फसल में हर बार अपना हिस्सा लेकर शहर में अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। छोटा ही उनकी दवाई-बूटी कर रहा था। दोनों उनकी सँभाल तो करते नहीं, उल्टा गाँव में अपना रौब डालने के लिए भोग पर खर्चा करना चाहते हैं और फूल पाने के लिए भी उससे हिस्सा माँगते हैं तो छोटा कहता है, कि मेरे में इतनी क्षमता नहीं कि मैं यह खर्चा दे सकूँ। तुम बापू के फूल डाल आओ। जब बेबे पूरी होगी तो मैं डाल दूँगा। यदि आपको यह सौदा भी मंजूर नहीं, तो मेरे हिस्से के फूल उस किल्ली पर टाँग दो... जब मेरे पास पैसे होंगे मैं डाल आऊँगा।
यह कथा मुझे बहुत परेशान करती। मुझे लगताइससे आगे भी कुछ हो सकता है। मानवीय रिश्तों में आ रहा निघार किस तरह खून को सफेद कर रहा है, यह चिंता का विषय बनता। एक दिन हमारे पडोस में किसी बुजुर्ग की मृत्यु हो गई। जब मैं उनके यहाँ अफसोस प्रकट करने गया तो बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि जब बुजुर्ग के फूल गंगाजी में डालने गए तो वहाँ पर पंडा कैसे फजूल में ही पैसे बटोरता रहा। धार्मिक स्थानों पर व कर्मकांडो के अवसर पर, मरने वाले के घर की हालत का अथवा जो कोई दर्शन करने आता है उसकी भावना का, उसकी आर्थिक हालत का किसी को ख्याल नहीं होता। मकसद सिर्फ माया इकट्ठी करना व ठगना ही हो जाता है। ये सब घटनाएँ व वाकये लगातार कई साल मन-मतिष्क में घूमते रहे और मुक्ति नामक लघुकथा का लेखन इन्हीं घटनाक्रमों का आधार बना।
और अब, लघुकथा मुक्ति


बेटा, मेरी यही विनती है कि मेरे मरने के बाद मेरे फूल गंगा जी में डालकर आना।  मृत्युशय्या पर पड़े बुज़ुर्ग बिशन ने अपने इकलौते पुत्र विसाखा सिंह की मिन्नत-सी करते हुए कहा। गरीबी के कारण इलाज करवाना ही कठिन था। ऊपर से मरने के खर्चे! फूल डालने जैसी रस्मों पर होने वाले संभावित खर्चे के बारे में सोचकर विसाखा सिंह भीतर तक काँप उठता था।
लो बच्चा! पाँच रुपये हाथ में लेकर सूर्य देवता का ध्यान करो। फुटबाल-जैसी तोंद वाले पंडे की बात ने उसकी तंद्रा को भंग किया।
उसे गंगा में खड़े काफी समय हो गया था। पंडा कुछ न कुछ कह उससे निरंतर पाँच-पाँच, दस-दस रुपये बटोर रहा था।
ऐसा करो बेटा, दस रुपये अपने दाहिने हाथ में रखकर अपने पितरों का ध्यान करो… इससे मरने वाले की आत्मा को शांति मिलेगी।
अब उससे रहा नहीं गया; बोला, पंडित जी, यह क्या ठग्गी-ठोरी चला रखी है? एक तो हमारा आदमी दुनिया से चला गया, ऊपर से तुम मरे का माँस खाने से नहीं हट रहे! ये कैसे संस्कार हैं?
अरे मूर्ख, तुझे पता नहीं कि ब्राह्मणों से कैसे बात की जाती है! जा, मैं नहीं करवाता पूजा। डालो, कैसे डालोगे गंगा में फूल? अब तुम्हारे पिता की गति नहीं होगी। उसकी आत्मा भटकती फिरेगी…! पंडे ने क्रोधित होते हुए कहा।
बापू ने जब यहाँ स्वर्ग नहीं देखा, तो ये तुम्हारे मंत्र उसे कौन-से स्वर्ग में पहुँचा देंगे? जरूरत नहीं मुझे तुम्हारे इन मंत्रों की… अगर तुम फूल नहीं डलवाते तो… इतना कह उसने अपने हाथों में उठा रखे फूलों को थोड़ा नीचा कर, गंगा में बहाते हुए आगे कहा, लो, ये डाल दिए फूल!
उसका यह ढंग देखकर पंडे का मुँह खुला का खुला रह गया।
.0.
सम्पर्क  : जगदीश राय कुलरियाँ, 46, इम्पलाईज कालोनी, बरेटा जिला मानसा, (पंजाब) 151501 / मो. 95018 77033
योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल98725 68228

नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे  डाक खर्च सहित 300 मात्र (इस अंक का मूल्य 450 है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।