Saturday, 22 June 2019

लघुकथा चर्चा-1 / बलराम अग्रवाल

(संदर्भ : दस्तावेज़ 2017-18 में डॉ॰ देवेन्द्र दीपक का आलेख 'लघुकथा : पुन:-पुन:…')

लघुकथा पर्व-2019 में बोलते हुए डॉ॰ दिनेश दीपक
आज से 30 नवम्बर तक फेसबुक भ्रमण सिर्फ 'लघुकथा साहित्य' समूह तक सीमित रहेगा। गत वर्ष (2018) 'क्षितिज सम्मेलन, इन्दौरसे लेकर इस वर्ष 'लघुकथा पर्व, भोपाल' तक इतनी पुस्तकें मेज पर आ खड़ी हुई हैं कि उन्हें नजरअंदाज करना अब लघुकथापरक दायित्व के खिलाफ महसूस हो रहा है। इसलिए एक-एक कर उन्हें पढ़ने और यथाशक्ति अपने विचार पेश करने की वह जिम्मेदारी निभाना शुरू करूँगा जिसके तहत ये सब मेरी मेज पर हैं।
डॉ॰ देवेन्द्र दीपक की मान्यता है कि 'लघुकथा में प्रसादन कम और प्रबोधन अधिक है। यह जो प्रबोधन है, वह उसका मूल है। अगर किसी रचना में निष्कर्ष नहीं है तो वह लघुकथा नहीं है। वास्तव में तो लघुकथा बोधकथा ही है। कोई न कोई निष्कर्ष आपके हाथ में आना चाहिए।'
सोचा तो यह था कि ‘लघुकथा चर्चा’ शीर्षक इस शृंखला में लघुकथा के बारे में किसी के भी ऐसे विचारों का उल्लेख नहीं करूँगा जो समकालीन लघुकथा की भूमिका से इतर आएँगे। इसमें केवल सकारात्मक पक्ष ही उद्धृत करूँगा लेकिन बाद में लगा, कि कथा साहित्य में पूर्वकालीन लघुकथा और समकालीन लघुकथा की समाजगत व साहित्यगत भूमिकाओं के बीच जो वैचारिक भेद पूर्व और समकालीन चिंतकों के बीच है, उसे स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाये। लघुकथा के रूप-स्वरूप की सही व्याख्या के लिए जैसे सभी विचारों को सामने लाना जरूरी है, वैसे ही लघुकथा की समकालीन भूमिका को स्पष्ट किए रखना भी जरूरी है। हाँ, पूर्व धारणाओं का मखौल नहीं बनाना, उन पर व्यंग्य के बाण नहीं चलाना; शालीनता से अपना पक्ष रखना है। डॉ॰ देवेन्द्र दीपक की स्वीकारोक्ति, कि ‘लघुकथा के समकालीन तेवर से वे अभी अपरिचित हैं और पुराने अध्ययन, स्थापन के आधार पर बोल रहे हैं’, ने मुझे अभिभूत कर दिया। विचारक में यह साफगोई अगर शुरू में ही दिखाई दे जाए तो बात करना बहुत आसान हो जाता है। उनके लेख को पढ़ना शुरू किया तो इस स्वीकृति में सचाई महसूस हुई; लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उनका अपना कथन लघुकथा की समकालीन भावभूमि से जुड़ा महसूस होने लगा। उनके कथन से उत्पन्न मेरी धारणा दरकती चली गयी। (पूरी तरह टूटी नहीं, क्योंकि अंत में उन्होंने पुन: दोहरा दिया कि '…बोध कथा का क्षेत्र सबके लिए खुला है, उसके लिए स्त्री-विमर्श या दलित-विमर्श जैसी बाध्यता नहीं है'। मैं समझता हूँ कि लघुकथा की समकालीन भूमिका से उन्हें परिचित कराने और इस पूर्वाग्रह को नये संदर्भ प्रदान करने में युवा लघुकथाकारों की लघुकथाएँ उनकी मदद करेंगी)।
         डॉ॰ दीपक के अनेक वक्तव्य इस लेख में ध्यान देने योग्य हैं। मसलन,  
1-  'पहली लघुकथा जो (वे सम्भवत: किसी मासिक लघुकथा गोष्ठी के संदर्भ में यह बात कह रहे हैं) पढ़ी गयी, उसमें भूमिका बहुत लम्बी थी। उतनी लम्बी भूमिका की आवश्यकता नहीं है।… अनावश्यक विस्तार नहीं होना चाहिए। उस अणु में विराट का बोध आप कैसे करा सकते हैं, यह सबसे बड़ी कला है।' (पृष्ठ 10)
यह एक अनुभूत स्थापना है। नीना सिंह सोलंकी के एक सवाल के जवाब में भी यह बात कही गयी थी (‘परिंदों के दरमियां’, पृष्ठ 50) 
 
2-‘साहित्य विद्वता के प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। अकसर हम देखते हैं कि लोग विद्वता प्रदर्शन के लिए लिखते हैं। यदि रचना में संवेदना नहीं जगी और संवेदन में शील नहीं हुआ तो उस रचना को लिखने का कोई अर्थ नहीं है।’ (पृष्ठ 11)
सहमत। विद्वता प्रदर्शन वस्तुत: एक मानसिक रोग है। उसकी ओर सिर्फ इंगित ही किया जा सकता है, जैसाकि दीपक जी ने किया है। लेकिन इस बात को कि ‘यदि रचना में संवेदना नहीं जगी और संवेदन में शील नहीं हुआ तो उस रचना को लिखने का कोई अर्थ नहीं है।’ अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है, कहा जाना चाहिए।
  3- ‘लघुकथा की एक समस्या भी है, कि एक-साथ आप कई लघुकथाएँ नहीं पढ़ सकते। एक लघुकथा पढ़ते हैं; वह आपके दिमाग पर, आपकी सोच पर छा जाती है। उसे सोचते रहते हैं तो दूसरी रचना पढ़ नहीं पाते जब तक कि इम्प्रेशन डायल्यूट न हो जाए।’
मैं डॉ॰ दीपक की इस बात से सहमत हूँ। इस सहमति का कारण है; यहकि जब हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि—लघुकथा अपने समापन के साथ ही पाठक के मनो-मस्तिष्क में खुलना शुरू होती है; तब, पाठक के मनो-मस्तिष्क को लघुकथा के कथ्य की तह तक पहुँचने का अवसर प्रदान न करके तुरंत ही दूसरी, तीसरी, चौथी लघुकथा पाठकों/श्रोताओं के समक्ष रख देना क्यों उचित समझते हैं? उनके इस विचार पर विशेषत: इस परिपेक्ष्य में अवश्य बात की जानी चाहिए कि सम्मेलनों/गोष्ठियों में लघुकथा-पाठ का स्वरूप तब क्या रखा जाए? 

इसके अतिरिक्त डॉ॰ दीपक के लेख से विचारणीय और अनुगमनीय कुछ बिंदु निम्न प्रकार भी हैं :

4-    लघुकथा लिखने के लिए आपके पास एक विजन होना चाहिए। जब तक विजन नहीं है, दृष्टि नहीं है, और दृष्टिकोण नहीं है, तब तक बात बनेगी नहीं।
5-   आपका एक कमिटमेंट चाहिए। पर्सनल लेबल पर मूल्यों के साथ, उसके अधिष्ठान के साथ, जब तक आपका रागानुबंध नहीं है, उस रागानुबंध ने जब तक आपको दृष्टि नहीं दी है, तब तक आपको विषय तो सूझेगा, लेकिन निर्णायकता नहीं सूझेगी, उसकी दिशा नहीं तय होगी; और दिशा तब तय होगी जबकि आपने अपने अधिष्ठान को, अपने जीवन-मूल्यों को उसके साथ आत्मसात् किया है।
6-   जैसे नाटक में एक क्लाइमैक्स होता है, ऐसे ही लघुकथा का भी एक क्लाइमैक्स है। जहाँ क्लाइमैक्स, वहीं उसको समाप्त होना चाहिए। बाद में उसे खींचना नहीं चाहिए।
7- जो लघुकथा आपने एक बार लिखी, अपने उस प्रारूप को बार-बार पढ़ें। कुछ दिन के लिए उसे अलग रख दें। बाद में उसे पुन; पढ़ें। आपको स्वयं अनुभव होगा कि अभी भी कुछ संशोधन की आवश्यकता है।… यह मेरी स्वयं की अनुभूत प्रक्रिया है।
लघुकथा उन्नयन की दिशा में ये सब उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, इन पर विचार किया जाना चाहिए।