Saturday, 24 November 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-02

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल घुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से प्रथम 5 लघुकथाओं का प्रकाशन 17 नवम्वर, 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इस साप्ताहिक प्रकाशन कार्यक्रम की दूसरी किश्त है। 
            टिप्पणी बक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांको/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा। साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की दूसरी कड़ी

          6- अवधेश कुमार
नोट
उन्होंने मेरी आँखों के सामने सौ का एक नोट लहराकर कहा, "यह कवि कल्पना नहीं, इस दुनिया का सच है। मैं इसे जमीन में बोऊंगा और देखन… रुपयों की एक पूरी फसल लहलहा उठेगी।"
   मैंने उस नोट को कौतुक और उत्सुकता के साथ ऐसे देखा, जैसे मेरा बेटा पतंग देखता है।
मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोली, उनमें दौडता हुआ लाल और नीला खून देखा।
   उसमें मेरा खाना और खेल दोनों शामिल थे।
   उसमें सारे कर्म, पूरी गृहस्थी, सारी जय और पराजय शामिल थी। भय और अभय, संचय और संशय, घात और आघात, दिन और रात शामिल थे। मुझे हर कीमत पर अपने आपको बचाना था।
   मैंने उसे कपड़े की तरह फैलाया और देखना चाहा कि क्या वह मेरी आत्मा की पोषक बन सकता है?
 उन्होंने कहा, "सोचना क्या? अरे, इसे पहन डालो। यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ढँक सकता है।"  
जन्म : 7 जून 1951, देहरादून निधन : 14 जनवरी,1999 । पारिवारिक संपर्क सूत्र अप्राप्य।


            7- अविनाश
कर्ज
"तुम्हें चार हजार रुपये चाहिए बेटी की शादी के लिए न, मिल जाएँगे।"
"वह कैसे?" 
"तुम्हारी पत्नी के नाम शिक्षित बेरोजगारी का दस हजार का कर्ज ले लेंगे।"
"लेकिन उसे कर्ज देगा कौन?"
"बैंक देगी।"
"वह कैसे?"
"बैंक मैनेजर देगा… तीन हजार लेकर।"
"लेकिन उसके पास तीन हजार देने के लिए आयेंगे कहाँ से?" 
"ओफ्फोह! देने के लिए किसने कहा है!!! उसी दस हजार में से काट लेंगे।" 
"लेकिन मेरी पत्नी गारंटी कहाँ से देगी?"
"ओफ्फोह! गारंटी के लिए पहचान की क्या जरुरत है? मैं दूँगा गारंटी, एक हजार रूपये लेकर।" 
"लेकिन तुम्हें देने के लिए वह एक हजार लाएगी कहाँ से?
"अरे भाई, उसी दस हजार से काट लेंगें।"
"लेकिन मेरी पत्नी तो कोई रोजगार या हुनर जानती ही नहीं!" 
"ओफ्फोह! इसकी क्या  जरुरत है पापड़, बड़ी, अचार के व्यापारी से फर्जी बिल ले लेंगे दो हजार देकर।"
"लेकिन वह यह दो हजार लाएगी कहाँ से?"
"ओफ्फोह! देने के लिए कहा किसने? उसी दस हजार से काट लेंगे।"
"लेकिन वह दस हजार का कर्ज बैंक का, चुकायेगी किस तरह?" 
"ओफ्फोह! तुमसे कर्ज चुकाने को कहा ही किसने?"
छोटे-छोटे इन्द्रधनुष(सं॰ अनिरुद्ध प्रसाद विमल) आदि संकलनों व अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाएँ प्रकाशित। संपर्क सूत्र अप्राप्य।


      
  8-अशोक जैन
जिन्दा मैं 
कई हफ्तों बाद आज वे फिर मिले। दोनों भरे थे, पर चुप्प! बात वहीं से शुरू हुई, जहाँ से अब तक हर बार शुरू होती रही है। छुटका आज मानसिक रूप से तैयार होकर आया था।
कहाँ थे इतने दिन?” बड़के ने प्रश्न किया।
यहीं।संक्षिप्त-सा उत्तर छुटके का।
“…स्कूल का क्या रहा?”
बन्द कर दिया।
क्यों?” बड़के ने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दी।
आपस में कॉन्फ्लिक्ट्स हो गए थे; फिर एडमिनिस्ट्रेशन का नोटिस…”
नोटिस-वोटिस में बहलाने की कोशिश मत करो। तुम्हारे काम करने का आपरेशन ही गलत है, सफलता मिले कहाँ से?”
छुटका चुप रहा।
तुम्हारी असफलता का कारण है—तुम्हारा अपना गलत क्लैरिफिकेशन तुम्हारी अपनी कमजोरी!
क्या मैँ नहीं चाहता सेटहोना!!छुटके ने कुछ कठोर होने का प्रयास किया।
पिछले चार सालों में तुमने अपने कैरियर में क्या जोड़ा? तुम्हारी चाह से ही रास्ते नहीं खुल जाएँगे।
फिर थोड़ी देर खामोशी छाई रही। भावज चाय रख गई थी। बड़का चाय को सिप करने लगा था।
रोटी तो कुत्ता भी खा लेता है। जितना तुम ट्यूशनें करके कमाते हो, उतना तो पानी की टंकी धकेलनेवाला भी कमा लेता है। फिर तुम…”
छुटके को कड़वाहट झेलते देख, बड़का बोलता रहा।
आपने शायद कुछ प्रूफपढ़ने के लिए बुलाया था…!”  छुटके ने विषय पर आते हुए कहा।
पहले अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करो, फिर आना। जिन्दगी में कुत्तों की तरह रोटी खाना ही ध्येयबड़का निरन्तर मन की बातें उगलता रहा। तभी ध्यान दूसरे भरे प्याले की ओर गया।
चाय पियो।उसने भरा प्याला उसकी ओर सरकाते हुए कहा।
छुटके का ध्यान उस ओर न था वह खामोश कुछ सोच रहा था। उसे चुप देख बड़के ने दुबारा कहा,  पियो न!
उसके स्वर में तल्खी थी।
नहीं,  मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ।छुटके ने दृढ़ता से कहा।
वह उठा और उसके कदम दरवाजे की दहलीज लाँघ गए।
संपर्क : संपादक ‘दृष्टि’, ‘नेक सदन’, 908, सेक्टर 7 एक्सटेंशन, अरबन एस्टेट, गुरुग्राम-122001 (हरियाणा) / मो॰:9810374941


     
  9-अशोक भाटिया
सपना
दोपहर को बच्चा स्कूल से लौटा, तब चिड़िया पेड़ पर आराम कर रही थी| बच्चे की माँ ने उसे दुलराया खाना खिलाया और कहा, बेटे होमवर्क करो और पेपरों कि तैयारी करो|  
बच्चा पढने बैठा, चिड़िया ने दाना चुगा, पानी में किल्लोल किए, बच्चा पढता रहा, उसका ध्यान अपने खिलौनों की तरफ लगा हुआ था| साँझ को चिड़िया आकाश में चहकने लगी थी जब बच्चा पढने बैठा था| स्कूल जाने से पहले उसने कहा, माँ जब मैं यूनिवर्सिटी पढ़ लूँगा उसके बाद मैं ख़ूब खेलूँगा कोई काम नहीं करूँगा|
संपर्क : 1882, सेक्टर 13, अरबन एस्टेट, करनाल-132001 (हरियाणा) / मो॰:94161 52100


     
  10- अशोक लव
अपना घर
डोली विदा होने के साथ-साथ ही रिश्तेदार विदा होने लगे। शकुन्तला आते-जाते ससुर को घूर जाती। उनके विदा न होने के आसार देख वह भीतर-ही-भीतर कुढ़ रही थी।
रात ससुर को सोया जान वह पति के सामने फट पड़ी, ‘‘मुझे नहीं लगता पिताजी वापस आश्रम जाएँगे। इस बार तो वे अपना बक्सा भी साथ उठा लाए हैं। तुम उन्हें साफ-साफ कह देना। मुझसे उनकी सेवा नहीं होती। आश्रम में सारे आराम हैं। यहाँ बार-बार कौन बाजू पकड़-पकड़कर उन्हें पेशाब कराने ले जाएगा? उनकी खाँसी और बलगम थूकने की आवाजों से मुझे तो रात-रातभर नींद नहीं आती। मेरा अपना ब्लड-प्रेशर हाई हो जाता है। तुम कल उनको आश्रम छोड़ आना।’’
सालभर बाद तो पिताजी आए हैं। उनकी हालत देख रही हो। पता नहीं कब आँखें बन्द कर जाएँ। अंतिम समय में जितनी हो सके उनकी सेवा कर लेनी चाहिए। बड़ों का आशीर्वाद ही मिलता है।’’ पति ने समझाते हुए कहा।
शंकुतला जिद पर अड़ी रही। श्रीकान्त करवट ले सो गया। बाहर लेटे बाबू रामदयाल की श्वास नली में बहू के शब्द फँस-से गए। अपना अंतिम समय निकट जानकर पोती के विवाह में इसलिए आए थे ताकि बेटे के घर में ही प्राण त्यागें, आश्रम में लावारिस न मरें। बहू के तेज-धार शब्द उनके हृदय को चीरते चले गए। उनके फेफड़ों में सोई खाँसी जग गई। उन्होंने उसे रोके रखने का बहुत प्रयास किया परंतु छाती पर जमी बलगम खड़खड़ाने लगी। दम फूल जाने से वे हाँफने लगे। खाँसी का रोक रखा बाँध टूट गया।
खाँसी की आवाज सुनकर किवाड़ खोलकर बेटा बाहर आ गया। उनकी छाती पर विक्स मलने लगा। हाथ-पैर दबाने लगा। पुत्र के हाथों का स्पर्श पाकर बाबू रामदयाल की आँखें भर आईं। रुँधे गले से कहने लगे, ‘‘श्रीकान्त! सवेरे जरा जल्दी उठा देना। तेरे साथ ही तैयार हो जाउँगा। दफ्तर जाते समय रास्ते में आश्रम छोड़ते जाना।’’
पुत्र, पिता की काँपती आवाज की थरथराहट महसूस कर रहा था। वह उन्हें ‘यहीं रूके रहिए’ कहने की हिम्मत न जुटा सका। पिताजी की खाँसी थमी देखकर वह पत्नी के पास जा लेटा।
पिताजी! यहीं रह जाइए सुनने की इच्छा लिए बाबू रामदयाल गहरी नींद में समा गए।
संपर्क : फ्लैट 363 ए, सूर्य अपार्टमेंट, प्लॉट नं॰ 14, सेक्टर 6, द्वारिका, दिल्ली-110075 / मो॰:9971010063

Saturday, 17 November 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-01


वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की पहली कड़ी

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल ‘लघुकथा : मैदान से वितान की ओर’ नाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से 5 लघुकथाओं को प्रत्येक रविवार ‘जनगाथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत किया जाएगा। यह उस कार्य की पहली किश्त है। 
            इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का स्वागत रहेगा। साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

       1- 

अंजना अनिल
हींग लगी ना फिटकरी 
 “सुनती हो री ए तारा…ऽ…! अरी कहाँ बैठी साग बीनार री है?”
“हाँ…s...आ…ss…री सुमित्रा भैन।” 
“मोहल्ले में के हो रिया है खबर है तुझे भी..”
“ना…s… क्या हुआ रे…s…?”
“तूने सुना नी के? कौसल्या की चौथी लाड़ो कल ब्याही गई!”
“हाय-राम! दो महीने पहले तो मंजु ब्याह दी थी!!”
“गजब है तारा; उनकी माया, अपनी समझ से परे है। हे भगवान! दफ्तर में और लोगन की छोरी भी नौकरी करन जावै हैं; पर गिरधारी और कौसल्या ने तो सारी सरम बेच दी है। छोरियों की खातिर… नू कहूँ—कौसल्या तो छोरियों को आग लगावन में बढ़ावा देती दीक्खे। न जाने कहाँ–कहाँ के लफंगे-लौंडे पल्ले बंधे फिरे हैं। छोरियाँ अंट-संट धंधे करै हैं... नहीं तो सालभर में चार-चार ब्याह आज कौन कर सकै है?”
सुमित्रा की आवाज सुन लीला, धरमी, शकुन्तला सब आ गईं।
“क्या कहा? रीटा भी लग गई किनारे??” लीला बोली।
“हूँss भाड़ में गई ससुरी, आप सो आप ब्याह, ना छोरे के कुल का पता ना बाप दादा का ...जाने कौन जात... भरी बिरादरी में नाक जो कट गई गिरधारी की ...कौण इज्जतदार घराना ऐसी छोरियों को बहू बणावै। राम राम ...चुल्लू भर पानी में ..”
“अरे मोहल्लेभर की छोरियों के लिए तैस है भैन, तैस...” सुमित्रा फिर बोली। लाजो ने आँखें तरेरी।
“ना ssरे! मुन्नी को देखो”, सुमित्रा बोली, “नौकरी करन जावै है ...एकदम दुधिया सदी में लिपटी लिपटाई .सामने आते जाते मजाल है इंधे-उन्धे देख तो ले ...उसका बाप तो कच्ची कु चबा जावै..बखत बौत खराब है ... बेट्टी राखणा बौत मुश्किल है ...”
“हाँ री, ये तो तूने सई कई री ..चलूँ ss मेरी मुन्नी आ गई होगी .हम भी कै दीवा बत्ती के टैम इन नरकीले कीड़ों की बात ले बैठे.”
माँ का तमतमाया चेहरा देख दालान में बैठी मुन्नी बोली,”क्या हुआ अम्मा? बड़ी गुस्से में हो।”
दो जोरदार घूँसे मुन्नी की पीठ पर जमाकर वह भड़क उठी ...हुआ तेरा सिर. सात बरस नौकरी करते बीतण लागै..हरामजादी, तुझे कोई ब्याहवण लैवा छोरा ना मिला ,जो दिन रात बाप का मगज खावै..उनने एक घड़ी कु चैन नहीं . क्यूँ री ? किसी निपूती ने तेरी खातर छोरा नी जणा के? देख, कौसल्या की चारों ब्याही गई. जिसने की सरम ..उसके फूटते करम . सुण ले मुन्नी, ख़बरदार जो कल से सफ़ेद धोती पैरी ...तू भी बणवा ले बेलबाटम ...लम्बी सि चोटी करके जरा यूँ घुम्मा फिर कर ... न्यू तो मिलेगा ई तुझे ब्याहण खातर जो राज्जी होगा .वारी कौसल्या तारा भाग...! तुझे तो हिंग लगी ना फिटकरी .. तें रंग भी चौक्खो “
संपर्क : बी-138, अंबेडकर नगर, अलवर-301001 (राजस्थान)  
मो-:9414017289


    2-
                                             
 अंतरा करवड़े
मानसिक व्यभिचार

अपने अकाउंट से लॉग आउट होते हुए रीटा पसीना-पसीना होने लगी। कौन हो सकता है ये परफेक्ट गाय? उसकी कुछ बातों पर ही¸ आवाज के अंदाज पर ही उसे अपना मान बैठा है। कुछ क्षणों के लिये उसके मस्तिष्क में नीली सपनीली आँखों वाला एक गोरा चिट्‌टा¸ गठीला युवक अलग-अलग कोणों से आता-जाता रहा। अनजाने ही रीटा के चेहरे पर मुस्कान आती रही।
और फिर अचानक वो परफेक्ट गाय¸ अभिषेक में बदल गया। अभिषेक¸ उसका मंगेतर!
अपने मन में विचारों का तूफान लिये वह घर पहुँची। अपने कमरे की शरण ली। अभिषेक¸ उसका मंगेतर¸ दूसरे शहर में नौकरी करता है। ऑफिस में काम करते वक्त ऑनलाईन रहता है। रीटा उसी से वॉईस चैट करने के लिये कैफे गई थी। उसके लिये अभिषेक ने मैंसेज छोड़ रखा था। वह एक घण्टे के लिये मीटींग में व्यस्त था और ऑनलाईन होते हुए भी उससे संपर्क नहीं कर सकता था।
तभी रीटा के मैंसेंजर पर एक अनजान संदेश उभरा।
"हैलो स्वीटी!"
यही था परफेक्ट गाय! रीटा का लॉगिन नेम था स्वीट सॅन्योरीटा। और फिर थोड़ी बहुत पूछताछ के बाद उसने रीटा को वॉईस चैट के लिये राजी कर लिया। उसकी बातचीत¸ आवाज¸ लहजे की तारीफें करता हुआ वह दस मिनट में ही दिल¸ इश्क¸ प्यार¸ मुहब्बत तक पहुँचते हुए उसे प्रेम प्रस्ताव देने पर उतर आया।
बिना देखे सोचे उत्पन्न हुए इस प्रेमी के लिये रीटा तैयार नहीं थी। कई बार उसने लॉगआऊट होने का सोचा लेकिन सहेली मोना के वाक्य याद आने लगे। "यदि कोई पीछे पड़ा ही है तो थोड़े बहुत मजे ले लेने में क्या हर्ज है?" और रीटा बह चली थी। उस वक्त उसके मन से अभिषेक जाने कहाँ गायब हो गया था। लेकिन जब यह परफेक्ट गाय उसका शहर¸ नाम¸ पता¸ फोन नंबर पूछकर घर आने की जिद पर अड़ गया तब रीटा को होश आया। ये क्या कर रही थी वो?
किसी तरीके से बहाने बाजी करते हुए उससे छुटकारा पाया और अब अपने कमरे में बुत सी बनी बैठी थी।
उसी समय घर के सामने से जय जयकार की आवाजों के साथ ही एक स्वामीजी की पालकी निकालने लगी। रीटा ने ध्यान से देखा। ये वही स्वामीजी थे जो कहने को तो ब्रम्हचारी थे लेकिन सदा औरतों की ओर ही ध्यान लगाए रखते। कॉलेज के दिनों में इनके कितने ही किस्से मशहूर थे।
इन्हीं किस्सों को सुनते सुनाते एक दिन रीटा की माँ के मुँह से निकला था¸ "सब कुछ मन¸ वचन¸ कर्म से हो तो ठीक है। फिर चाहे ब्रम्हचर्य हो या गृहस्थी।"
रीटा का मन उसे अपराधी की भाँति कटघरे में खड़ा कर रहा था। वो स्वयं क्या कर रही थी
भले ही अभिषेक को कभी कुछ मालूम नहीं होगा... लेकिन मन में बात तो आई ना?
दूसरे ही दिन उसने अभिषेक को मेल किया—‘मैंने अपना लॉगिन नेम ‘स्वीट सैन्योरीटा’ से बदलकर ‘रीटा अभिषेक’ कर लिया है।’
संपर्क : ‘अनुध्वनि’, 117, श्रीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर-452018 (म॰प्र॰)  
मो-:9752540202

  3-
                                                   अभिमन्यु अनत
पाठ
इंग्लैंड का एक भव्य शहर। प्रतिष्ठित अंग्रेज परिवार का हेनरी। उम्र अगले क्रिसमिस पर आठ वर्ष। स्कूल से लौटते ही वह माँ के पास पहुँचकर उससे बोला, “मम्मी, कल मैंने अपने एक दोस्त को खाने पर बुलाया है।
सच ! तुम तो बड़े सोशल होते जा रहे हो।
ठीक है न माँ?”
हाँ बेटे, बहुत ठीक है। मित्रों का एक-दूसरे के पास आना-जाना अच्छा रहता है। क्या नाम है तुम्हारे दोस्त का?”
विलियम।
बहुत सुंदर नाम है।
वह मेरा बड़ा ही घनिष्ठ है माँ। क्लास में मेरे ही साथ बैठता है।
बहुत अच्छा।
तो फिर कल उसे ले आऊँ न माँ?”
हाँ हेनरी, जरूर ले आना।
हेनरी कमरे में चला गया। कुछ देर बाद उसकी माँ उसके लिए दूध लेकर आई। 
हेनरी जब दूध पीने लगा तो उसकी माँ पूछ बैठी, “क्या नाम बताया था अपने मित्र का?”
विलियम।
क्या रंग है विलियम का?”
हेनरी ने दूध पीना छोड़कर अपनी माँ की ओर देखा। कुछ उधेड़बुन में पड़कर उसने पूछा, “रंग? मैं कुछ समझा नहीं।
मतलब यह कि तुम्हारा मित्र हमारी तरह गोरा है या काला?”
एक क्षण चुप रहकर दूसरे ही क्षण पूरी मासूमियत के साथ हेनरी ने पूछा, “रंग का प्रश्न जरूरी है क्या माँ?”
हाँ हेनरी, तभी तो पूछ रही हूँ।
बात यह है कि माँ, मैँ उसका रंग देखना तो भूल ही गया।
अभिमन्यु अनत ‘मारीशस का प्रेमचंद’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जन्म:9अगस्त 1937; 4 जून 2018 को निधन।


4-                                                     अमर गोस्वामी
स्त्री का दर्द
वे दोनों शहर से मजदूरी करके और कुछ जरूरत का सामान खरीद लौट रहे थे। स्त्री की गोद में बच्चा था। दोनों की उम्र यही 20-25 वर्ष की रही होगी। ऊबड़-खाबड़ और कंकड़ों-भरी सड़क पर चलते हुए अपने पति के बिवाई-भरे नंगे पैरों को देखकर स्त्री को असुविधा हो रही थी। वह बोली, “, हो दीनू के बाबू! तुम अपनी पनही जरूर खरीद लेना।
हाँ।पुरुष ने कहा।
वे दोनों सोच रहे थे कि पनही खरीदना क्या आसान बात है? इतने दिनों से पैसा जोड़कर माह-भर पहले जो जूता उधार लेकर खरीदा था, उस पर किसी चोर की निगाह पड़ गई। उधार सिर पर था। अब उधार लेकर खरीदने की भी हैसियत नहीं थी।
फिर जहाँ रोज खाने को रूखा-सूखा जुटाना मुश्किल हो, वहाँ जूता बहुत ऊँची चीज थी, मगर औरत को अपने पाँव में चप्पल और मर्द को नंगे पाँव ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर चलते देखकर असुविधा होती थी। वह कई दिन इसी ऊहापोह में रही, कुछ पैसे चोरी से बचाने की कोशिश की, मगर वे बचे नहीं। उस दिन भी औरत ने कहा, “न हो तो दीनू के बाबू, यह चप्पल पहन लो।
मर्द हँसा, “जनाना चप्पल पहनें। इससे तो नंगे पैर अच्छे।
ठीक ही कहा, नंगे पैर अच्छे
बगल से गंगा नदी बहती थी। कगार से चलते हुए औरत मन ही मन बुदबुदाई, “हे गंगा मैया, अगर जुटा सके तो दोनों को जुटाना, नहीं तो इसे भी रख लो।
औरत ने अपनी चप्पल छपाक से पानी में फेंक दी। अब औरत को मर्द के नंगे पाँवों से असुविधा नहीं हो रही थी। 
अमर गोस्वामी : जन्म : 28 नवम्बर 1945 निधन : 28 जून 2012


           5-                                                                    अरुण कुमार
स्कूल
सीरियल समाप्त होते ही पत्नी ने टीवी ऑफ किया और रात के भोजन के बर्तन समेटती हुई बोली, “आज दीपू ने ख़ूब पानी पी रखा है जल्दी सोने की जिद कर रहा था तो मैंने दूध भी पिला दिया था| कहीं ऐसा न हो कि यह रात को सोते-सोते बिस्तर पर पेशाब ही कर दे, आप उसे उठाकर एक बार पेशाब करवा लें|
मैंने दीपू को जगाने के लिए आवाजें दीं “दीपू...ओ दीपू...उठियो बेटा...उठ!” वह कुनमुनाने लगा था  मैंने उसे तनिक जोर से हिलाते हुए पुनः आवाज लगाई “दीपू...उठ खड़ा हो!”
यह सुनते ही वह तुरंत आँखें मलता हुआ बिस्तर पर ही खड़ा हो गया और अर्धनिद्रावस्था में ही बोलना शुरू हो गया  “टू वन जा टू...टू टू जा फोर...”
मैं हैरान! पत्नी अवाक्!! मैं उसे थामे खड़ा था| उसे बार-बार पुकार रहा था, “दीपू... बेटे दीपू! तू घर पर है... स्कूल में नहीं बेटा...”
पत्नी भी बराबर उसे जगाने का प्रयास करती रही किन्तु वह ‘टू टैन जा ट्वेंटी’ पर ही आकर रुका…!
संपर्क : 895/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 (हरियाणा)  
मो-:9355221504