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अर्चना तिवारी |
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डॉ॰ अशोक भाटिया |
‘हिंदी लघुकथा बुनावट और प्रयोगशीलता’ विषय पर ‘बीज
वक्तव्य’ के रूप में डॉ० अशोक भाटिया ने ‘अखिल भारतीय क्षितिज लघुकथा
सम्मेलन, इंदौर’
में 3 जून,
2018 को लगभग 24 मिनट लम्बा महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया था जिसे मैंने अपने
कैमरे में संजोया और यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया। उस वीडियो के एक-एक शब्द को नोट
करने के लिए लखनऊ निवासी सुश्री अर्चना तिवारी ने बार-बार रिवाइंड किया, सुना, लिखा। इसे पढ़कर राजेश उत्साही ने लिखा—‘वीडियो के
वक्तव्य को लिपिबद्ध करने का यह काम सराहनीय है।’ मैंने कहा—‘यह काम परहिताय है। साहित्य-सेवा इसी तरह समाज-सेवा का
दायित्व वहन करती है। आपके श्रम की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।’ और जवाब में अर्चना जी
बोलीं—‘परहिताय है तो अच्छा ही है, किन्तु इसको लिखने में वीडियो को जितनी बार रिवाइंड किया उससे मुझे यह
लाभ हुआ कि अशोक भाटिया जी के एक-एक शब्द
मेरे मस्तिष्क में बस गए. हमारी
लघुकथाओं में जो सपाटता आ
रही थी उसके क्या कारण है, इस
पूरे वक्तव्य से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो गया. इसके लिए
अशोक भाटिया जी के आभारी हैं हम।’
अब, वह वक्तव्य अर्चना तिवारी जी के
श्रम से उद्भूत आलेख के रूप में आप सब के समक्ष है। —बलराम अग्रवाल
हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि
हिंदी लघुकथा जितनी चर्चित है उतनी ही विवादस्पद भी है। चर्चित किन के बीच
में है? थोड़ा सा इस बारे में
भी विचार
करें।
हम लेखकों के बीच में चर्चित है या कुछ साधारण पाठकों तक पहुँचती है तो वह
पढ़ते हैं और थोड़ी बहुत चर्चा करते हैं। विवादस्पद इसलिए है कि साहित्यिक खम्भों में इसे
उपेक्षा से देखा गया है और इसपर सवाल खड़े किये गए हैं। वो सवाल 1980 से पहले से चले आ रहे हैं, और आज भी उन सवालों में दम है।
जैसे मृणाल पांडे कहती हैं कि लघुकथा जो है वह एक इंस्टेंट
किस्म की लघुकथाएं हैं जो कथा साहित्य पर भारी खतरा हैं।
दूसरी बात काव्य है। हमेशा संक्षिप्तता
और सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है। यहाँ संक्षिप्तता का अर्थ यह नहीं है कि वह
बहुत कुछ छोड़ जाता है। कवि इतना कुछ सोचता है लेकिन इतनी सी कविता में वह
बात कहता है। गद्य इससे उलट विस्तार मांगता है।
अपनी बात की पुष्टि के लिए ‘पहल’ में छपी दो पंक्तियाँ सुना रहा हूँ। वह
पंक्तियाँ है, “सारे
अमरुद खा लिए हैं, जो
लग सकते थे इलाहाबाद
के पेड़ों पर।”
इन दो पंक्तियों में कवि कितना कुछ कह रहा है। वह संक्षिप्त
होता है, वह सूक्ष्म होता है
और वह अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाने का प्रयास करता है।
गद्य हमेशा विस्तार मांगता है। आपने किसी एक पात्र की
स्थिति से जुड़ी कोई स्थिति ली है, आप
उस स्थिति
को कहेंगे, उसका बयान करेंगे।
अलग-अलग तरीके से करेंगे बयान, लेकिन बयान तो आपको करना
होगा। आप उसे दो पंक्तियों में खत्म नहीं कर सकते। तो गद्य जब विस्तार मांगता है और साथ में
यह कहा जाता है, बीसियों
सालों से कहा
जाता है कि इसमें संक्षिप्तता होनी चाहिए, यह बड़ा खतरनाक शब्द है गद्य के लिए। संक्षिप्तता शब्द ठीक नहीं है,
इसमें यदि आप कहते कि अनावश्यक विस्तार नहीं होना
चाहिए तो ठीक था। लेकिन जब आपने कहा कि संक्षिप्तता होनी चाहिए, तो मान लीजिए आपकी कोई रचना तीन पेज की
चार पेज की सहज भाव से जा रही है आपने कहा कि इसको संक्षिप्त करके
हम लघुकथा बना दें, उसको
खींचा तीन पेज
पर, फिर ढाई पेज पर,
फिर दो पेज पर क्योंकि आपको सिर्फ़ और
सिर्फ़ लघुकथा
ही लिखनी है और उसके पीछे कोई दबाव है, कोई छपने का, कोई
लाइक्स का, कोई कमेंट्स का,
तो यह छपने का दबाव है, यह फिर उसको तोड़ता मरोड़ता है। रचना की सहजता खत्म,
रचना संक्षिप्त तो हो गई लेकिन वह रचना
कहाँ रही? उसमें रचनात्मकता
कहाँ रही, वही तो खत्म हो गई
जिसकी हमें जरूरत है।
अब सवाल यह है कि एक तरफ लघुकथा का लघु आकार है और हमें
विस्तार भी चाहिए, तो
लघु आकार में विस्तार कैसा? या
तो फिर लघु आकार को छोड़ दीजिए या फिर विस्तार को छोड़ दीजिए। यह विमर्श की बात
है। हमें इन सवालों से टकराना होगा, सवालों से टकराए बिना कोई विमर्श नहीं
होता और कहीं कोई निष्कर्ष पर हम नहीं पहुँचेंगे। उसको विस्तार दें या
कि उसके आकार में रहकर अपनी बात कहें। अब दोनों बातें सम्भव हैं। क्या
कुछ ऐसा सम्भव नहीं है कि हम उसको बाहरी आकार का थोड़ा सा विस्तार दे दें,
लेकिन हम उसमें ऐसे प्रयोग करें कि वो लगती तो एक पेज की
है लेकिन उसमें अर्थ दो पेज का, तीन
पेज का, चार पेज का, आठ पेज का है, क्या यह सम्भव है? यह सवाल है। अगर यह सम्भव नहीं है तो लघुकथा क्या अपने
समाज के यथार्थ को पूरी तरह से कहने में सक्षम नहीं है? और अगर सक्षम नहीं है तो फिर लघुकथा पर
हमें गर्व किसलिए? फिर
जो लघुकथा के आलोचक
हैं वे ठीक आलोचना कर रहे हैं कि यह विवादस्पद विधा है।
बात दरअसल कुछ और है। बात यह है कि हमने
लघुकथा के लिए लगभग एक सरल सा, निश्चित,
बना-बनाया, रेडीमेड रास्ता बना लिया है। हमने कदम
भी तय कर लिए हैं
दो कदमों के बीच इतनी-इतनी दूरी होगी और लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट करते जाइए और पहुँच गए। हिंदी की अधिकतर
लघुकथाएँ इसी वर्णात्मकता पर कदमताल करते हुए औंधे मुँह गिरी जा रही हैं। ये
पिछले तीस-पैंतीस बरस की बात कर रहा हूँ, बिलकुल स्पष्ट कह रहा हूँ किसी को बुरा
लगे, अच्छा लगे अपने को उससे विलगना नहीं है।
ऐसा नहीं है कि वर्णात्मकता से अच्छी रचना नहीं हो सकती। अभी बृजेश कानूनगो ने जो रचना
आपके सामने रखी उसमें वर्णन ही तो था लेकिन यह कल्पना भी तो थी। क्या हमारी
लघुकथाओं में ऐसी रचनात्मकता है? यह एक बड़ा सवाल है।
अब बुनावट और प्रयोगशीलता पर भी प्रश्न है। यह दोनों अलग-अलग
नहीं हैं। आप जब
किसी एक रचना को बनाना चाह रहे हैं और मन में उसे भुन रहे हैं, बुन रहे हैं, तोड़ रहे हैं, जोड़ रहे हैं, नहीं बन पा रही है, महीना हो गया, दो महीने हो गए, फिर तोड़ा, फिर जोड़ा, जैसे मिट्टी होती है बच्चे नहीं बनाते मिट्टी से खिलौने,
एक से नहीं बना तो टांग दूसरी लगाओ।
छोटा बच्चा भी जनता है कि खिलौना बनाने के लिए
जोड़-तोड़ करना पड़ता है। लेकिन हमारे बहुत सारे लघुकथाकार इतनी कोशिश करने के लिए
भी, इतना कष्ट करने के
लिए भी तैयार
नहीं। फिर लघुकथा में काहे की बनावट और काहे की प्रयोगशीलता। फिर तो इस विषय पर बात ही मत
कीजिए। लेकिन फिर लघुकथा का सिर्फ.......(अस्पष्ट शब्द) लेकर उड़ने का भी कोई फायदा नहीं
है।
तो फिर क्या किया जाए। हमारी सोच जो वर्णात्मक सांचे में ढल गई
है यह सरलता के लिए बिखर गई लगती है। उससे हम यथार्थ के अन्य आयामों को
देख नहीं पा रहे जिन पर लघुकथा लिखते हुए हमें इस वर्णात्मक पद्धति को छोड़ना
पड़ेगा, नई बुनावट की जरूरत
होगी। हम
उस तक जाना नहीं चाहते, यह
सुविधाजनक मार्ग है तो फिर मुझे आप ज़रा यह भी बता दीजिए कि हिंदी लघुकथाओं में कहा
जाता है कि गागर में सागर है, कौन
सा सागर
है फिर मुझे यह भी बता दें। गागर में तो गागर जितना भी जल नहीं होता कई बार। अधजल गगरी
छलकत जाय वाली बात चलती है। और हम इसको स्वीकार करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं, क्योंकि हमारा कर्म लघुकथा संग्रह है,
हमें उसे जमाना है, उसे स्वीकार कराना है, इसको छोड़ दीजिए।
रचना का उद्येश्य क्या है, रचना किसलिए, लिखना कोई विलास की वस्तु नहीं है,
विलास के और भी बड़े मार्ग हैं इसे छोड़ दीजिए। लिखना कोई
बैमानी की वस्तु नहीं है कि झट से सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँच गए। परसाई जी
का कथन है कि लोग साहित्य को सीढ़ियाँ मानकर न जाने कहाँ-कहाँ पहुँच गए और मैं
छज्जा मानकर एक ही जगह बैठा रह गया। साहित्य कोई सीढियाँ भी नहीं है।
साहित्य सामाजिक चेतना का जीवंत एक मार्ग है। एक लेखक दूसरे लेखक की रचना
नहीं पढ़ रहा, दूसरा
पहले की नहीं पढ़ रहा, क्यों
नहीं पढ़ रहा? अगर
उसमें सौन्दर्य है, अगर
उसमें कल्पना है, और इस वजह से उसमें अपनी
बुनावट है, उसके अपने प्रयोग बने
हुए हैं तो रचना सुंदर होगी वह बार-बार पढ़ी जाएगी।
हम प्रेमचंद को बार-बार क्यों पढ़ते हैं, क्यों पढ़ते हैं मोहन राकेश की ‘मलबे का
मालिक’, क्यों पढ़ते हैं
‘कफ़न’ बार-बार, क्यों पढ़ते हैं ‘बड़े भाईसाहब’ तीन पेज
की बार-बार क्या कारण है? रचना हर दृष्टि से पूर्ण, सुंदर और कल्पना है। मैं कई बार यह कह
चूका हूँ
मंच पर कि ‘कफ़न’ खानी कहीं घटित नहीं हुई होगी, कोई इस तरह कर नहीं सकता कि कफ़न के पैसे
से शराब पी ले। लेकिन सामजिक सम्वेदनहीनता को दिखाने का इससे उपयुक्त मार्ग कोई नहीं था।
रचना में कल्पना का प्रयोग होता है लेकिन काल्पनिक कुछ नहीं होता, रचना यथार्थ पर आधारित होती है। हम सब
अपने दिलपर
हाथ रखकर देखें, हमने
अपनी लघुकथाओं में कितना प्रयोग किया कल्पना का, हमने कितना उसे सुंदर बनाने का प्रयोग
किया? क्या हम हर एक रचना
को चुनौती
रूप में मानते हैं कि अगली रचना उससे बेहतर हो?
दूसरी बात बुनावट प्रयोगशीलता से ही आएगी। अब
प्रयोगशीलता कैसे आएगी? प्रयोगशीलता बाहरी चीज या सजावटी
चीज नहीं है। इससे रचना नहीं बनेगी। इससे रचना की सुन्दरता जो है वह भी खत्म हो जाएगी।
रचना चमत्कार की भी चीज नहीं है कि आपने उसे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा किया कि
पाठक कहे वाह क्या बात है।
प्रयोगशीलता वह है जो पाठक जब उसे पढ़े तो विचार के लिए
उद्वेलित करे, उसकी चेतना को दस्तक दे,
उसकी संवेदनाओं को झकझोरकर रख दे,
उसको संवेदनात्मक विस्तार दे। हमारी रचना पाठक के मन पर
सम्वेदना का विस्तार कैसे देगी? पहले हमार अंदर सम्वेदना
का विस्तार होगा तब पाठक को सम्वेदना का विस्तार देगी। अगर हम ही कृत्रिम ढंग से लिख रहे हैं,
हम ही बनी बनाई सम्वेदनाओं से लिख रहे हैं तो पाठक
क्यों पढ़ेगा? पाठक
क्यों उसकी प्रशंसा करेगा? क्यों
उसका दीवाना
बनेगा? क्यों उसको काटकर
अपने पास रखेगा? क्यों
किसी को सुनाएगा? लघुकथा
को लोकप्रियता देनी है तो इन सब मुद्दों पर सोचना होगा।
प्रेमचंद की एक पंक्ति आपको सुनाता हूँ। उन्होंने कहा था,
“खरा साहित्य वही है जो गति दे, संघर्ष दे, जो हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न करे,
हमें सुलाए नहीं।” अगर आपको समाज के बड़े यथार्थ को
व्यक्त करना है तो उसके लिए बैठकर ठंडे दिमाग से सोचना पड़ेगा। जल्दबाज़ी का
काम नहीं है साहित्य, कि
संवेदना का
कुआँ है या अंध चेतना का कुआँ है, अपनी
बाल्टी डालिए उसमें और दो-चार बार (ऊपर नीचे) कर खींच कर ऊपर लाइए तब
जाकर बात बनेगी। और प्रयोग करने के बाद भी रचना में ठंडापन आ जाए ऐसा भी
नहीं होना चाहिए। रचना में प्रयोग करते हुए आपके अंदर जो आक्रोश, भावना या संवेदना है वह वैसे के वैसे
रहनी चाहिए,
यह एक और चुनौती है। इस द्वन्द में से
रचना गुज़रेगी और उसमें वही तड़प और और बेचैनी का माद्दा होगा उस
रचना में तब वह रचना पूरी सफल है। प्रयोग के नाम पर ठंडापन स्वीकार नहीं।
वह रचना फिर ठन्डे बस्ते में जाएगी ही जाएगी आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों।
अब आप कहेंगे कि बात तो कर ली, प्रयोग है कहाँ? कैसे करें? कुछ उदाहरण देता हूँ। हम जो मर्जी प्रयोग कर लें लेकिन
सीधी-सीधी बात है पाठक कहानी माँगता है और पाठक रोचकता के साथ कहानी माँगता है। यह नहीं कि आप
कुछ भी लिख दें। आप लिखिए, आप बुनिए लेकिन जरा पाठक
बनकर भी अपनी रचना को देखिए कि आपको कितनी अच्छी लगती है? क्या आप अपनी रचना के पाठक बन सकते हैं?
बड़ा मुश्किल काम है। आप दूसरों को पाठक बनाने
चले हैं पहले अपनी रचना का पाठक बनकर देखिए कि उसमें क्या है और क्या नहीं।
मैं आपको थोड़े से उदाहरण देता हूँ। पहला प्रयोग अंडर स्टेटमेंट, हिंदी में इसे कहते हैं न्यूनोक्ति यानी
जो बात हम कहना
चाहते हैं लघुकथा में वही नहीं कहना है उसको एकदम अंत में जाकर कहना है। उसे छिपाकर रखना
है, उस रास्ते से जाना है
कि किसी को पता ही ना लगे।
उदाहरण – रमेश बतरा की ‘बीच बाजार’ लघुकथा में क्या है एक
विद्या है उसकी बेटी है सरोज वो कैबरे डांसर हो गई है। मोहल्ले की औरतें उसका
विरोध करती हैं।
“इस विद्या को जरा सी लाज ना आई अपनी बेटी को कोठे पर बिठा दिया।” फिर एक औरत बोलती है
“तुझे ज़रा भी शरम ना आई, तूने
अपनी बेटी को कैबरे डांसर बनवा दिया, कोठे पर बिठा दिया, लानत है तेरे को।” विद्या सुनती-सुनती
कहती है,
कि “काश मेंरी एक नहीं पांच बेटियां
होतीं। मेरा घर देखो उसी ने घर भर कर रख दिया।” औरतें सुनती हैं और कहती
हैं कि “कहाँ से सीखा कैबरे, तेरे
तो ठाठ
हो गए। एक औरत कहती है—“मेरी बेटी कह रही थी कि अपनी सरोज से मुझे भी सिखवा दे ना कैबरे।” यह
लघुकथा का अंत है। किसी ने भी नहीं सोचा कि लघुकथा का यह अंत होगा। यह है
अंडरस्टेटमेंट का उदाहरण।
दूसरा उदाहरण युगल की लघुकथा ‘मातम’ एक पत्रकार इंटरव्यू के
लिए मंत्री जी के पास जाता है, वहां का माहौल गमगीन है , बीच में एक कपड़े से ढकी लाश पड़ी है, उसे अनुमान हुआ कि उसके बेटे या बेटी की
होगी। मंत्री जी से पत्रकार भी अफ़सोस प्रकट करता है ‘जो आया है उसे
जाना है” पत्रकार कहता है कि आप इसकी फोटो दे दें तो मैं इसकी रिपोर्ट
बना कर अखबार में दूंगा। उसे फोटो मिलती है और आखिरी वाक्य क्या है,
“रोशो अच्छी नस्ल का एक कुत्ता था।”
क्या रमेश बतरा ने या युगल ने या ऐसे लेखकों ने पहले ऐसे कहीं
सोचा या पढ़ा कि
इस तरह का भी होता है स्टेटमेंट? इस
तरह से जब यथार्थ का दबाव होगा तो अपने आप से कोई न कोई मौलिक प्रयोग निकल
आएगा।
दूसरी – व्यंग्यात्मक बुनावट में हरिशंकर परसाई की लघुकथाएँ,
‘संस्कृति’ और ‘जाति’। अब बात यह है कि व्यंग्य रचना को
बुनता है या रचना व्यंग्य को बुनती है, यह आपको सोचना है।
इसी तरह विष्णु नागर की ‘ईश्वर की
कहानियाँ’ पूरी किताब व्यंग्य, हास्य
और रोचकता से भरी है। यह पढ़ने वाली किताब है कि किस तरह से रचना में व्यंग्य हो सकता है।
मुकेश वर्मा की लघुकथा ‘मुक्त करो’ अगर
भाषा की सुन्दरता
देखनी है, भाषा में नीचे-नीचे
अंडरकरंट जो बाद में सामने आकर खड़ा हो जाता है। यह इस लघुकथा में मिलेगा।
मेरे पास नौ तरह के प्रयोग की सूची थी। मैं बाकी सिर्फ सूची पढ़
रहा हूँ।
तीसरा है वैचारिक बुनावट। इसके केंद्र
में विचार होता है, जैसे
भगीरथ की ‘अँधेरे के द्वीप’, चौथा तार्किक बुनावट परसाई की
‘संस्कृति’, भगीरथ
की ‘हड़ताल’।
एक समन्वेशी बुनावट है जिसपर आजकल चर्चा
हो रही है, जिसमें कविता को लेकर
बुनावट, काव्यात्मक व्यवहार
है। इसी तरह से नाटकीय बुनावट, डायरी पर बुनावट, प्रतीक का प्रयोग या फेंटेसी का इस्तेमाल, फैंटेसी का बहुत कम प्रयोग हुआ, सुकेश सहनी की ‘गोश्त का गंध इसका उदाहरण है’।
प्राचीन सन्दर्भों को लेकर लघुकथा… एक पुराना सन्दर्भ, एक नया
सन्दर्भ लेकर… पृथ्वीराज अरोड़ा की 'दुःख' और 'दया' इसका उदाहरण हैं।
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