Wednesday, 27 June 2018

एक सच्चे साधक की सच्ची साधना के अनुभवों से साक्षात्कार / मुन्नू लाल



मुन्नू लाल
'परिंदों के दरमियां' पुस्तक जिस लम्बे ऑनलाइन विमर्श का प्रतिफल है, उसकी प्रश्नोत्तरी को सच ही लघुकथाकार (श्रीमती) कान्ता जी ने 'लघुकथा कुंजिका' नाम दिया था। इसमें तकरीबन उन सभी जिज्ञासाओं के समाधान मौजूद हैं, जो लघुकथा-लेखन से पहले एक नवोदित लघुकथाकार के मन में उमड़ते-घुमड़ते हैं। वैसे तो आ. बलराम अग्रवाल सर अपनी प्रिय विधा लघुकथा के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी अच्छी दखल रखते हैं, उनकी लघुकथाएँ हम नये लेखकों के लिए प्रतिमान-स्वरूप तो हैं ही ,पर हकीकत में उनका आलोचक-रूप बहुत लुभाता है । लघुकथा छोटे कलेवर की रचना है, इसलिए अक्सर इस विधा की तकनीकी बारीकियों से अनभिज्ञ लोग इसे छोटी कहानी समझ लेते हैं। फेसबुक पर सामान्य पाठक, यहाँ तक कि कतिपय नवोदित लघुकथाकार भी (जानबूझकर या अनजाने ) भी 'अच्छी कहानी'/ 'कहानी नहीं बनी' जैसी टिप्पणियाँ कर देते हैं । ज्यादातर नवोदित लेखक सिर्फ लिखने पर ध्यान देते हैं, पढ़ते नहीं; ऐसे में अच्छी लघुकथाएँ तो पढ़ने से रह ही जाती हैं, लघुकथा में अब तक उत्तरोत्तर हुई प्रगति से भी वंचित रह जाते हैं। ऐसे में, इस किताब की बहुत जरूरत थी, जो कि शायद किसी भी विधा में इस तरह की पहली किताब है, जिसमें जिज्ञासाओं का समाधान इस तरह किया गया हो ।
अब तक खुद मै और शायद मेरे जैसे तमाम नवोदित लघुकथाकार भी यही जानते थे कि लघुकथा क्षण-विशेष की कथा है, पर पुस्तक में आ. बलराम अग्रवाल सर बताते हैं कि 'लघुकथा' में 'क्षण' सिर्फ समय की इकाई को नहीं कहते, 'संवेदना की एकान्विति' को भी क्षण कहते हैं।' पुस्तक में इसे समझाने के लिए कवि और कथाकार स्नेह गोस्वामी की लघुकथा 'वह जो नहीं कहा गया' उद्धृत की गई है जो पूरे दो दिन के कालखण्ड को समेटती है। इसके अतिरिक्त इसी तरह की तमाम जिज्ञासाओं का समाधान विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाओं को उद्धृत कर अच्छी तरह समझाया गया है। प्रसन्नता की बात है कि उद्धरित तमाम लघुकथाएँ नवोदित लेखकों की ही हैं। रोचक यह भी है कि एकाध रचनाकार की जिज्ञासा का समाधान उन्हीं की लघुकथा उद्धृत कर किया गया है। इससे विदित होता है कि नवोदित लेखकों में बहुत सम्भावनाएँ हैं, बस इन्हें खुद को माँजने की जरूरत है ।
उद्धृत की गई लघुकथाओं के लघुकथाकारों का विवरण निम्न है(क्षमा करेंगे,बिना श्री/श्रीमती या आदरणीय लगाये लिख रहा हूँ )—शोभना श्याम, कान्ता राय, अर्विना गहलोत, कमल कपूर, दीपक मशाल, डॉ. नीरज सुधांशु, कपिल शास्त्री, विजयानन्द विजय, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, बलराम अग्रवाल, सूर्य कुमार मिश्र, कमल चोपड़ा, सुनीता त्यागी, महेश दर्पण, डॉ. सतीश दूबे, मुन्नू लाल, जया आर्य, लता कादम्बरी, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, राहिला आसिफ, जानकी बिष्ट वाही, सुधीर द्विवेदी, अर्चना तिवारी, उषा भदौरिया व भगीरथ।
रचना को मुकम्मल बनाने में, एक वरिष्ठ रचनाकार को भी, कितनी काट-छाँट की जरूरत होती है, इसके उदाहरणस्वरूप सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन का एक अंश एक पूरे पेज पर उद्धृत किया गया है । 'समीक्षक की कसौटी' अध्याय के अन्तर्गत लघुकथाकार डॉ. लता अग्रवाल की आ. बलराम अग्रवाल सर से समीक्षा के सन्दर्भ में बहुमूल्य बातचीत दी गई है । इसके अतिरिक्त '21वीं सदी की 22 लघुकथाएँ' शीर्षक अध्याय के अन्तर्गत इस सदी के दूसरे दशक में लघुकथा-लेखन से जुड़े कथाकारों की लघुकथाएँ दी गई हैं व भविष्य में समीक्षा के क्षेत्र में उतरने के इच्छुक रचनाकारों से इनकी समीक्षा करने का आह्वान भी किया गया है। उपरोक्त विकास में कतिपय तथ्य या नाम छूटे हों, तो क्षमा चाहूँगा। 'परिन्दों के दरमियां' पुस्तक से महत्वपूर्ण सूत्र, जो मेरी समझ में आये, निम्न हैं (दावा नहीं कि मेरे ही वाक्य हैं, अंशतः या सम्पूर्ण आ. बलराम अग्रवाल सर के भी हो सकते हैं)—
(1) अनुशासन सीखें, साष्टांग बिछ जाना नहीं ।
(2) आत्म-अवलोकन (आत्म-निरीक्षण )से बड़ा कोई गुरु नहीं ।
(3) सपाटबयानी अग्राह्य है, पर सपाट-लेखन ग्राह्य है ।
(4) विचार में 'पैनापन' और दृष्टि में 'प्रगतिशीलता' हो ।
(5) यदि लघुकथा के अन्त में करुणा उभरती है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि रचना का सकारात्मक अन्त हो रहा है या नकारात्मक ।
(6) जल्दबाजी कतई न करें, कितना भी समय लगे ।
(7) घटी ताजा घटनाओं पर लिखते समय उनकी सत्यता और प्रामाणिकता देना ही पर्याप्त नहीं, जब तक पर्याप्त रचनाशीलता न दिखाई गई हो ।
(8) तय करें कि 'दाम' के लिए लिख रहे हैं या 'मूल्य' के लिए। ध्यान रखें कि 'दाम' के लिए लिखने वाले 'आने वाले कल के लिए' नहीं लिखा करते ।
(9) लेखन में कुछ खास करना है, तो तुरन्त प्रकाशित व प्रशंसित होने से बचें ।
(10) यदि आलोचना/समीक्षा की राह पकड़नी है, तो सर्वप्रथम स्व-आलोचना व स्व-समीक्षा के मार्ग से गुजरें ।
(11) बेहतर है, रचना संवाद से शुरू करें, नैरेशन कम रखें व द्वन्द्व को स्थान दें । (12)किसी के कहने पर तब तक न बदलाव करें, जब तक खुद न आश्वस्त हों ।
(13) 'अगले दिन' लिखने के बजाय पाठक को संवाद आदि किसी माध्यम से पता चले कि घटना अगले दिन घटित हुई ।
(14) शीर्षक-चयन में रचना की कथास्तु के साथ-साथ शीर्षक देखते ही पाठक के मन में उत्पन्न होने वाली जिज्ञासा का भी ध्यान रखें।
(15) 'विधा के विकास' के लिए प्रयोग करें न कि 'प्रयोग के लिए प्रयोग'
(16) सिर्फ लेखन से जुड़े रहकर बेहतर लेखन सम्भव नहीं, उच्चस्तरीय अध्ययन भी जरूरी ।
अन्तत: आ. बलराम अग्रवाल सर के शब्दों में ही कहना चाहूँगा कि 'स्थायित्व के लिए तप जरूरी है' (कथाकार सीमा जैन के साथ उनकी बातचीत, 'कथाबिंब' पत्रिका में) ।
                                    संपर्क—ग्राम-पुरुषोत्तमपुर, पोस्ट-सोनपुर वाया गैंसड़ी, जिला-बलरामपुर-271210 उप्र

Thursday, 21 June 2018

'परिंदों के दरमियां' मेरी नजर में / पवन जैन


'परिंदों के दरमियां' : 2018
पवन जैन, जबलपुर

28 सितंबर 2017 के दिन आदरणीय बलराम अग्रवाल, लघुकथा के परिंदों के साथ अनवरत सात घंटे तक रहे। इस दौरान चले विमर्श को उन्होंने पुस्तक का रूप दिया, और पुस्तक का नाम रखा 'परिंदों के दरमियां'
इस किताब का किस्सा बतौर भूमिका उन्होंने चार पृष्ठों में दिया है। जब भी इस पुस्तक को उठाता हूँ, स्मृतियों में खो जाता हूँ। वास्तव में यह पुस्तक नहीं है, बडे भाई की मित्रवत् सीख है, जहाँ न गुरुता है न ही इस आयोजन हेतु कोई पूर्व तैयारी। वे सवालों, जिज्ञासाओं का समाधान सरल सहज भाषा में करते गये। इस आयोजन के समापन के तुरंत बाद ही एक दस्तावेज तैयार होकर सामने आ गया, यह कैसे हुआ भूमिका में स्पष्ट किया गया है। देश-विदेश में बैठे सैंतीस लघुकथाकार कहें या नवोदित, शायद जिज्ञासु ज्यादा उचित शब्द होगा, ने अपने सवाल रखे और सवालों से सवाल निकलते गये तथा कुल एक सौ एक सवालों के पूर्ण रूप से परिवर्द्धित समाधान इस पुस्तक में संजोये गये हैं। समझने में किंचित भ्रांति न रहे इसलिए चौंतीस लघुकथाकारों की अड़तीस लघुकथाएं उदाहरण स्वरूप समाविष्ट की गई हैं तथा छः लेखों, लेखांशों को संदर्भित किया गया है। इस पुस्तक में पूछे गये सवालों को उसी क्रम में संग्रहित किया गया है, जो इसकी स्वाभाविकता है। इस दौरान आई बारह टिप्पणियों को भी ज्यों का त्यों समाहित किया गया है।
लघुकथा विधा पर विभिन्न जिज्ञासाओं, तकनीक से जुड़े सवालों, जैसे—क्षण विशेष, कालखण्ड दोष, सपाट बयानी, भूमिकाविहीनता, लेखकीय प्रवेश एवं लेखन के दौरान आ रही व्यवहारिक समस्याओं, जैसे—कथानक चयन, शैली, कथातत्व, पुराने विषय, नकारात्मक - सकारात्मक अंत, आंचलिक भाषा का प्रयोग, कथा में काव्य एवं श्रृंगार का मिश्रण, दृश्य चित्रण, पात्रों की संख्या, पात्रों के नाम, अपवादों पर लेखन, आदि विभिन्न जिज्ञासाओं का निराकरण इस पुस्तक में किया गया है। समीक्षक बनने हेतु सुझाव,सार्थक लघुकथा की परिभाषा, लघुकथा के संदर्भ में संतोषजनक स्थिति कैसे आये? लघुकथा लेखन का और रचना का उद्देश्य क्या है?  यथार्थवाद पर ही चलना या सत्य को उजागर करना जैसे महत्वपूर्ण सवालों के जबाव भी इस पुस्तक में समाहित हैं। इस दौरान किया गया सवाल—‘गर मंटो सबका ही प्रिय लघुकथाकार है तो फिर पचास साल बाद भी दूसरा मंटो पैदा क्यों नहीं हुआ? या मंटो जैसा।’ का भी बहुत खूबसूरती से जबाव दिया गया है। बलराम अग्रवाल जी से किये गये व्यक्तिगत सवाल कि ‘वह कौन सी कथा है जिसे आप सबसे अच्छी मानते हैं’ का जवाब भी समाहित है; तथा ‘आपकी वह कौन-सी कथा है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाई है’ का जवाब भी।  पुस्तक के दूसरे भाग 'समीक्षक की कसौटी' के अंतर्गत लघुकथा समीक्षा पर केंद्रित कुछ बिंदुओं पर डॉ॰ लता अग्रवाल से बातचीत को जोड़ा गया है। तीसरे भाग में ‘इक्सवी सदी की बाईस लघुकथाएँ’ संग्रहित की गई हैं। मुझे लगता है कि यह एक प्रतीकात्मक शीर्षक है यह दर्शाने का कि इक्कीसवीं सदी के लघुकथाकार कुछ कम नहीं हैं। नवोदितों में उनका यह विश्वास प्रणम्य है। नवोदित समीक्षकों को इन लघुकथाओं की समीक्षा में हाथ अजमाने का आह्वान भी समाहित है।  
अन्तर्राष्ट्रीय चित्रकार के.रवीन्द्र का सुंदर आवरण चित्र पुस्तक के नाम को सार्थक अभिव्यक्ति देता है। पुस्तक के अंत में गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई के माध्यम से उसको व्याख्यायित करने का भी प्रयोग किया गया है जो सुन्दर लगता है।
लघुकथा विधा से जुडाव रखने वाले हर रचनाकार को यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
पवन जैन,जबलपुर
 jainpawan9954@gmail.com

Thursday, 14 June 2018

हिंदी लघुकथा बुनावट और प्रयोगशीलता / डॉ॰ अशोक भाटिया

अर्चना तिवारी


डॉ॰ अशोक भाटिया
‘हिंदी लघुकथा बुनावट और प्रयोगशीलता’ विषय पर ‘बीज वक्तव्य’ के रूप में डॉ० अशोक भाटिया ने ‘अखिल भारतीय क्षितिज लघुकथा सम्मेलन, इंदौर’ में 3 जून, 2018 को लगभग 24 मिनट लम्बा महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया था जिसे मैंने अपने कैमरे में संजोया और यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिया। उस वीडियो के एक-एक शब्द को नोट करने के लिए लखनऊ निवासी सुश्री अर्चना तिवारी ने बार-बार रिवाइंड किया, सुना, लिखा। इसे पढ़कर राजेश उत्साही ने लिखा—वीडियो के वक्‍तव्‍य को लिपिबद्ध करने का यह काम सराहनीय है।मैंने कहा—यह काम परहिताय है। साहित्य-सेवा इसी तरह समाज-सेवा का दायित्व वहन करती है। आपके श्रम की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। और जवाब में अर्चना जी बोलीं‘परहिताय है तो अच्छा ही है, किन्तु इसको लिखने में वीडियो को जितनी बार रिवाइंड किया उससे मुझे यह लाभ हुआ कि अशोक भाटिया जी के एक-एक शब्द मेरे मस्तिष्क में बस गए. हमारी लघुकथाओं में जो सपाटता आ रही थी उसके क्या कारण है, इस पूरे वक्तव्य से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो गया. इसके लिए अशोक भाटिया जी के आभारी हैं हम।’
         अब, वह वक्तव्य अर्चना तिवारी जी के श्रम से उद्भूत आलेख के रूप में आप सब के समक्ष है।                                                            —बलराम अग्रवाल


हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि हिंदी लघुकथा जितनी चर्चित है उतनी ही विवादस्पद भी है। चर्चित किन के बीच में है? थोड़ा सा इस बारे में भी विचार करें।
हम लेखकों के बीच में चर्चित है या कुछ साधारण पाठकों तक पहुँचती है तो वह पढ़ते हैं और थोड़ी बहुत चर्चा करते हैं। विवादस्पद इसलिए है कि साहित्यिक खम्भों में इसे उपेक्षा से देखा गया है और इसपर सवाल खड़े किये गए हैं। वो सवाल 1980 से पहले से चले आ रहे हैं, और आज भी उन सवालों में दम है।
जैसे मृणाल पांडे कहती हैं कि लघुकथा जो है वह एक इंस्टेंट किस्म की लघुकथाएं हैं जो कथा साहित्य पर भारी खतरा हैं।
दूसरी बात काव्य है। हमेशा संक्षिप्तता और सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है। यहाँ संक्षिप्तता का अर्थ यह नहीं है कि वह बहुत कुछ छोड़ जाता है। कवि इतना कुछ सोचता है लेकिन इतनी सी कविता में वह बात कहता है। गद्य इससे उलट विस्तार मांगता है।
अपनी बात की पुष्टि के लिए ‘पहल’ में छपी दो पंक्तियाँ सुना रहा हूँ। वह पंक्तियाँ है, “सारे अमरुद खा लिए हैं, जो लग सकते थे इलाहाबाद के पेड़ों पर।”
इन दो पंक्तियों में कवि कितना कुछ कह रहा है। वह संक्षिप्त होता है, वह सूक्ष्म होता है और वह अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाने का प्रयास करता है।
गद्य हमेशा विस्तार मांगता है। आपने किसी एक पात्र की स्थिति से जुड़ी कोई स्थिति ली है, आप उस स्थिति को कहेंगे, उसका बयान करेंगे। अलग-अलग तरीके से करेंगे बयान, लेकिन बयान तो आपको करना होगा। आप उसे दो पंक्तियों में खत्म नहीं कर सकते। तो गद्य जब विस्तार मांगता है और साथ में यह कहा जाता है, बीसियों सालों से कहा जाता है कि इसमें संक्षिप्तता होनी चाहिए, यह बड़ा खतरनाक शब्द है गद्य के लिए। संक्षिप्तता शब्द ठीक नहीं है, इसमें यदि आप कहते कि अनावश्यक विस्तार नहीं होना चाहिए तो ठीक था। लेकिन जब आपने कहा कि संक्षिप्तता होनी चाहिए, तो मान लीजिए आपकी कोई रचना तीन पेज की चार पेज की सहज भाव से जा रही है आपने कहा कि इसको संक्षिप्त करके हम लघुकथा बना दें, उसको खींचा तीन पेज पर, फिर ढाई पेज पर, फिर दो पेज पर क्योंकि आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ लघुकथा ही लिखनी है और उसके पीछे कोई दबाव है, कोई छपने का, कोई लाइक्स का, कोई कमेंट्स का, तो यह छपने का दबाव है, यह फिर उसको तोड़ता मरोड़ता है। रचना की सहजता खत्म, रचना संक्षिप्त तो हो गई लेकिन वह रचना कहाँ रही? उसमें रचनात्मकता कहाँ रही, वही तो खत्म हो गई जिसकी हमें जरूरत है।
अब सवाल यह है कि एक तरफ लघुकथा का लघु आकार है और हमें विस्तार भी चाहिए, तो लघु आकार में विस्तार कैसा? या तो फिर लघु आकार को छोड़ दीजिए या फिर विस्तार को छोड़ दीजिए। यह विमर्श की बात है। हमें इन सवालों से टकराना होगा, सवालों से टकराए बिना कोई विमर्श नहीं होता और कहीं कोई निष्कर्ष पर हम नहीं पहुँचेंगे। उसको विस्तार दें या कि उसके आकार में रहकर अपनी बात कहें। अब दोनों बातें सम्भव हैं। क्या कुछ ऐसा सम्भव नहीं है कि हम उसको बाहरी आकार का थोड़ा सा विस्तार दे दें, लेकिन हम उसमें ऐसे प्रयोग करें कि वो लगती तो एक पेज की है लेकिन उसमें अर्थ दो पेज का, तीन पेज का, चार पेज का, आठ पेज का है, क्या यह सम्भव है? यह सवाल है। अगर यह सम्भव नहीं है तो लघुकथा क्या अपने समाज के यथार्थ को पूरी तरह से कहने में सक्षम नहीं है? और अगर सक्षम नहीं है तो फिर लघुकथा पर हमें गर्व किसलिए? फिर जो लघुकथा के आलोचक हैं वे ठीक आलोचना कर रहे हैं कि यह विवादस्पद विधा है।
बात दरअसल कुछ और है। बात यह है कि हमने लघुकथा के लिए लगभग एक सरल सा, निश्चित, बना-बनाया, रेडीमेड रास्ता बना लिया है। हमने कदम भी तय कर लिए हैं दो कदमों के बीच इतनी-इतनी दूरी होगी और लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट करते जाइए और पहुँच गए। हिंदी की अधिकतर लघुकथाएँ इसी वर्णात्मकता पर कदमताल करते हुए औंधे मुँह गिरी जा रही हैं। ये पिछले तीस-पैंतीस बरस की बात कर रहा हूँ, बिलकुल स्पष्ट कह रहा हूँ किसी को बुरा लगे, अच्छा लगे अपने को उससे विलगना नहीं है। ऐसा नहीं है कि वर्णात्मकता से अच्छी रचना नहीं हो सकती। अभी बृजेश कानूनगो ने जो रचना आपके सामने रखी उसमें वर्णन ही तो था लेकिन यह कल्पना भी तो थी। क्या हमारी लघुकथाओं में ऐसी रचनात्मकता है? यह एक बड़ा सवाल है।
अब बुनावट और प्रयोगशीलता पर भी प्रश्न है। यह दोनों अलग-अलग नहीं हैं। आप जब किसी एक रचना को बनाना चाह रहे हैं और मन में उसे भुन रहे हैं, बुन रहे हैं, तोड़ रहे हैं, जोड़ रहे हैं, नहीं बन पा रही है, महीना हो गया, दो महीने हो गए, फिर तोड़ा, फिर जोड़ा, जैसे मिट्टी होती है बच्चे नहीं बनाते मिट्टी से खिलौने, एक से नहीं बना तो टांग दूसरी लगाओ।
छोटा बच्चा भी जनता है कि खिलौना बनाने के लिए जोड़-तोड़ करना पड़ता है। लेकिन हमारे बहुत सारे लघुकथाकार इतनी कोशिश करने के लिए भी, इतना कष्ट करने के लिए भी तैयार नहीं। फिर लघुकथा में काहे की बनावट और काहे की प्रयोगशीलता। फिर तो इस विषय पर बात ही मत कीजिए। लेकिन फिर लघुकथा का सिर्फ.......(अस्पष्ट शब्द) लेकर उड़ने का भी कोई फायदा नहीं है।
तो फिर क्या किया जाए। हमारी सोच जो वर्णात्मक सांचे में ढल गई है यह सरलता के लिए बिखर गई लगती है। उससे हम यथार्थ के अन्य आयामों को देख नहीं पा रहे जिन पर लघुकथा लिखते हुए हमें इस वर्णात्मक पद्धति को छोड़ना पड़ेगा, नई बुनावट की जरूरत होगी। हम उस तक जाना नहीं चाहते, यह सुविधाजनक मार्ग है तो फिर मुझे आप ज़रा यह भी बता दीजिए कि हिंदी लघुकथाओं में कहा जाता है कि गागर में सागर है, कौन सा सागर है फिर मुझे यह भी बता दें। गागर में तो गागर जितना भी जल नहीं होता कई बार। अधजल गगरी छलकत जाय वाली बात चलती है। और हम इसको स्वीकार करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं, क्योंकि हमारा कर्म लघुकथा संग्रह है, हमें उसे जमाना है, उसे स्वीकार कराना है, इसको छोड़ दीजिए।
रचना का उद्येश्य क्या है, रचना किसलिए, लिखना कोई विलास की वस्तु नहीं है, विलास के और भी बड़े मार्ग हैं इसे छोड़ दीजिए। लिखना कोई बैमानी की वस्तु नहीं है कि झट से सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँच गए। परसाई जी का कथन है कि लोग साहित्य को सीढ़ियाँ मानकर न जाने कहाँ-कहाँ पहुँच गए और मैं छज्जा मानकर एक ही जगह बैठा रह गया। साहित्य कोई सीढियाँ भी नहीं है। साहित्य सामाजिक चेतना का जीवंत एक मार्ग है। एक लेखक दूसरे लेखक की रचना नहीं पढ़ रहा, दूसरा पहले की नहीं पढ़ रहा, क्यों नहीं पढ़ रहा? अगर उसमें सौन्दर्य है, अगर उसमें कल्पना है, और इस वजह से उसमें अपनी बुनावट है, उसके अपने प्रयोग बने हुए हैं तो रचना सुंदर होगी वह बार-बार पढ़ी जाएगी।
हम प्रेमचंद को बार-बार क्यों पढ़ते हैं, क्यों पढ़ते हैं मोहन राकेश की ‘मलबे का मालिक’, क्यों पढ़ते हैंकफ़न’ बार-बार, क्यों पढ़ते हैं ‘बड़े भाईसाहब’ तीन पेज की बार-बार क्या कारण है? रचना हर दृष्टि से पूर्ण, सुंदर और कल्पना है। मैं कई बार यह कह चूका हूँ मंच पर कि ‘कफ़न’ खानी कहीं घटित नहीं हुई होगी, कोई इस तरह कर नहीं सकता कि कफ़न के पैसे से शराब पी ले। लेकिन सामजिक सम्वेदनहीनता को दिखाने का इससे उपयुक्त मार्ग कोई नहीं था। रचना में कल्पना का प्रयोग होता है लेकिन काल्पनिक कुछ नहीं होता, रचना यथार्थ पर आधारित होती है। हम सब अपने दिलपर हाथ रखकर देखें, हमने अपनी लघुकथाओं में कितना प्रयोग किया कल्पना का, हमने कितना उसे सुंदर बनाने का प्रयोग किया? क्या हम हर एक रचना को चुनौती रूप में मानते हैं कि अगली रचना उससे बेहतर हो?
दूसरी बात बुनावट प्रयोगशीलता से ही आएगी। अब प्रयोगशीलता कैसे आएगी? प्रयोगशीलता बाहरी चीज या सजावटी चीज नहीं है। इससे रचना नहीं बनेगी। इससे रचना की सुन्दरता जो है वह भी खत्म हो जाएगी। रचना चमत्कार की भी चीज नहीं है कि आपने उसे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा किया कि पाठक कहे वाह क्या बात है।
प्रयोगशीलता वह है जो पाठक जब उसे पढ़े तो विचार के लिए उद्वेलित करे, उसकी चेतना को दस्तक दे, उसकी संवेदनाओं को झकझोरकर रख दे, उसको संवेदनात्मक विस्तार दे। हमारी रचना पाठक के मन पर सम्वेदना का विस्तार कैसे देगी? पहले हमार अंदर सम्वेदना का विस्तार होगा तब पाठक को सम्वेदना का विस्तार देगी। अगर हम ही कृत्रिम ढंग से लिख रहे हैं, हम ही बनी बनाई सम्वेदनाओं से लिख रहे हैं तो पाठक क्यों पढ़ेगा? पाठक क्यों उसकी प्रशंसा करेगा? क्यों उसका दीवाना बनेगा? क्यों उसको काटकर अपने पास रखेगा? क्यों किसी को सुनाएगा? लघुकथा को लोकप्रियता देनी है तो इन सब मुद्दों पर सोचना होगा।
प्रेमचंद की एक पंक्ति आपको सुनाता हूँ। उन्होंने कहा था, “खरा साहित्य वही है जो गति दे, संघर्ष दे, जो हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न करे, हमें सुलाए नहीं।” अगर आपको समाज के बड़े यथार्थ को व्यक्त करना है तो उसके लिए बैठकर ठंडे दिमाग से सोचना पड़ेगा। जल्दबाज़ी का काम नहीं है साहित्य, कि संवेदना का कुआँ है या अंध चेतना का कुआँ है, अपनी बाल्टी डालिए उसमें और दो-चार बार (ऊपर नीचे) कर खींच कर ऊपर लाइए तब जाकर बात बनेगी। और प्रयोग करने के बाद भी रचना में ठंडापन आ जाए ऐसा भी नहीं होना चाहिए। रचना में प्रयोग करते हुए आपके अंदर जो आक्रोश, भावना या संवेदना है वह वैसे के वैसे रहनी चाहिए, यह एक और चुनौती है। इस द्वन्द में से रचना गुज़रेगी और उसमें वही तड़प और और बेचैनी का माद्दा होगा उस रचना में तब वह रचना पूरी सफल है। प्रयोग के नाम पर ठंडापन स्वीकार नहीं। वह रचना फिर ठन्डे बस्ते में जाएगी ही जाएगी आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों।
अब आप कहेंगे कि बात तो कर ली, प्रयोग है कहाँ? कैसे करें? कुछ उदाहरण देता हूँ। हम जो मर्जी प्रयोग कर लें लेकिन सीधी-सीधी बात है पाठक कहानी माँगता है और पाठक रोचकता के साथ कहानी माँगता है। यह नहीं कि आप कुछ भी लिख दें। आप लिखिए, आप बुनिए लेकिन जरा पाठक बनकर भी अपनी रचना को देखिए कि आपको कितनी अच्छी लगती है? क्या आप अपनी रचना के पाठक बन सकते हैं? बड़ा मुश्किल काम है। आप दूसरों को पाठक बनाने चले हैं पहले अपनी रचना का पाठक बनकर देखिए कि उसमें क्या है और क्या नहीं।
मैं आपको थोड़े से उदाहरण देता हूँ। पहला प्रयोग अंडर स्टेटमेंट, हिंदी में इसे कहते हैं न्यूनोक्ति यानी जो बात हम कहना चाहते हैं लघुकथा में वही नहीं कहना है उसको एकदम अंत में जाकर कहना है। उसे छिपाकर रखना है, उस रास्ते से जाना है कि किसी को पता ही ना लगे।
उदाहरण – रमेश बतरा की ‘बीच बाजार’ लघुकथा में क्या है एक विद्या है उसकी बेटी है सरोज वो कैबरे डांसर हो गई है। मोहल्ले की औरतें उसका विरोध करती हैं। “इस विद्या को जरा सी लाज ना आई अपनी बेटी को कोठे पर बिठा दिया।” फिर एक औरत बोलती है “तुझे ज़रा भी शरम ना आई, तूने अपनी बेटी को कैबरे डांसर बनवा दिया, कोठे पर बिठा दिया, लानत है तेरे को।” विद्या सुनती-सुनती कहती है, कि “काश मेंरी एक नहीं पांच बेटियां होतीं। मेरा घर देखो उसी ने घर भर कर रख दिया।” औरतें सुनती हैं और कहती हैं कि “कहाँ से सीखा कैबरे, तेरे तो ठाठ हो गए। एक औरत कहती है—“मेरी बेटी कह रही थी कि अपनी सरोज से मुझे भी सिखवा दे ना कैबरे।” यह लघुकथा का अंत है। किसी ने भी नहीं सोचा कि लघुकथा का यह अंत होगा। यह है अंडरस्टेटमेंट का उदाहरण।
दूसरा उदाहरण युगल की लघुकथा ‘मातम’ एक पत्रकार इंटरव्यू के लिए मंत्री जी के पास जाता है, वहां का माहौल गमगीन है , बीच में एक कपड़े से ढकी लाश पड़ी है, उसे अनुमान हुआ कि उसके बेटे या बेटी की होगी। मंत्री जी से पत्रकार भी अफ़सोस प्रकट करता है ‘जो आया है उसे जाना है” पत्रकार कहता है कि आप इसकी फोटो दे दें तो मैं इसकी रिपोर्ट बना कर अखबार में दूंगा। उसे फोटो मिलती है और आखिरी वाक्य क्या है, “रोशो अच्छी नस्ल का एक कुत्ता था।”
क्या रमेश बतरा ने या युगल ने या ऐसे लेखकों ने पहले ऐसे कहीं सोचा या पढ़ा कि इस तरह का भी होता है स्टेटमेंट? इस तरह से जब यथार्थ का दबाव होगा तो अपने आप से कोई न कोई मौलिक प्रयोग निकल आएगा।
दूसरी – व्यंग्यात्मक बुनावट में हरिशंकर परसाई की लघुकथाएँ, ‘संस्कृति’ और जाति’। अब बात यह है कि व्यंग्य रचना को बुनता है या रचना व्यंग्य को बुनती है, यह आपको सोचना है।
इसी तरह विष्णु नागर की ‘ईश्वर की कहानियाँ’ पूरी किताब व्यंग्य, हास्य और रोचकता से भरी है। यह पढ़ने वाली किताब है कि किस तरह से रचना में व्यंग्य हो सकता है।
मुकेश वर्मा की लघुकथा ‘मुक्त करो’ अगर भाषा की सुन्दरता देखनी है, भाषा में नीचे-नीचे अंडरकरंट जो बाद में सामने आकर खड़ा हो जाता है। यह इस लघुकथा में मिलेगा।
मेरे पास नौ तरह के प्रयोग की सूची थी। मैं बाकी सिर्फ सूची पढ़ रहा हूँ।
तीसरा है वैचारिक बुनावट। इसके केंद्र में विचार होता है, जैसे भगीरथ की ‘अँधेरे के द्वीप’, चौथा तार्किक बुनावट परसाई की ‘संस्कृति’, भगीरथ की ‘हड़ताल’।
एक समन्वेशी बुनावट है जिसपर आजकल चर्चा हो रही है, जिसमें कविता को लेकर बुनावट, काव्यात्मक व्यवहार है।  इसी तरह से नाटकीय बुनावट, डायरी पर बुनावट, प्रतीक का प्रयोग या फेंटेसी का इस्तेमाल, फैंटेसी का बहुत कम प्रयोग हुआ, सुकेश सहनी की ‘गोश्त का गंध इसका उदाहरण है’।
प्राचीन सन्दर्भों को लेकर लघुकथा… एक पुराना सन्दर्भ, एक नया सन्दर्भ लेकर… पृथ्वीराज अरोड़ा की 'दुःख' और 'दया' इसका उदाहरण हैं।
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