Wednesday, 11 October 2017

लघुकथा और दूरगमन की इच्छाशक्ति से परिपूर्ण उसके निष्काम परिंदे / सुभाष नीरव

दिनांक 28 सितम्बर, 2017 को कान्ता राय जी के फेसबुक समूह ‘लघुकथा के परिन्दे’ पर हिन्दी के जाने माने कथाकार बलराम अग्रवाल ने विशेष अतिथि के रूप में लघुकथा लेखन से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर दिए। जिस तरह से लघुकथा विधा से जुड़े महत्वपूर्ण और 

सुभाष नीरव
बलराम अग्रवाल 
गौरतलब प्रश्न हो रहे थे और जिस प्रकार बलराम अग्रवाल सधे हुए उत्तर दे रहे थे, उसे पढ़-देखकर मैं लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों और उनके उत्तरों को कॉपी कर एक अलग फाइल में पेस्ट कर समेटता रहा। उक्त सभा दोपहर एक बजे से शाम आठ बजे तक चली। नयना-आरती कानितकर, बीना शर्मा, शेख शहजाद उस्मानी, ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश, सविता गुप्ताविभा रश्मि, कनक के हरलालका, चित्रा राणा राघव, डॉ॰ लता अग्रवाल, सुनीता त्यागी, कान्ता रॉय, अर्विना गहलोत, आनन्दबाला शर्मा, राजेश शॉशेख शहजाद उस्मानी, कपिल शास्त्री, प्रेरणा गुप्ता, सुनील वर्मा, मधु जैन, अनघ जोगलेकर, क्षमा सिसौदिया, रेखा श्रीवास्तवपवन जैन, राजेन्द्र राज, कुणाल शर्मा, जानकी वाही, उदयश्री ताम्हणेराहिला आसिफसुमित कुमार, कनक के हरलालकापूनम डोगरा, सीमा भाटिया, पूनम झा आदि ने लगातार जिज्ञासाएँ रखीं और तुरन्त ही उनका समाधान भी पाया। उस दिन मैं सवा सात बजे तक ही मैं ऐसा कर सका था। उस समय सम्भवत: तकनीकी कारणों से कुछेक महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित रह गए थे, यह अलग बात है; पर यह रू–ब-रू बहुत ही जानदार, शानदार और चमत्कृत करने वाला रहा! बाद में, सभी अनुत्तरित प्रश्न बलराम अग्रवाल को अलग से भेजकर मैंने उत्तर मँगाए और उक्त सेशन को पूर्णता प्रदान करने का प्रयास किया क्योंकि लघुकथा से जुड़े अनेक नये-पुराने लेखक जिन सामान्य जिज्ञासाओं से लगातार जूझते दिखाई देते हैं, काफी हद तक उनका समाधान इन जवाबों में मिल सकता है; या फिर यह कि यह बातचीत कुछ नये प्रश्नों को भी जन्म दे सकती है। दोनों ही स्थितियों में लघुकथा विधा के लिए यह एक आवश्यक ‘सवाल-जवाब’ सत्र था। जो मित्र उस समय वहाँ न उपस्थित न रह सके हों, देख-पढ़ न सकें हों; उनके लिए वह समूचा सत्र यहाँ प्रस्तुत है। जो प्रश्न अनुत्तरित रह गये थे और जिनका उत्तर बाद में जोड़ा गया है, उन सबको यहाँ पीले बैक ग्राउंड में दर्शाया गया है.                                   – सुभाष नीरव

Nayana-Arati Kanitkar कई बार हम क्षण विशेष को उठाकर घटना को रचना में फ्लेशबैक में उठाकर विवरण देते हैं। क्या वह क्षण विशेष भूतकाल का नहीं हो सकता?
Balram Agarwal नयना आरती कानितकर जी के माध्यम से सभी मित्रों को नमस्कार। आभार इस कार्यक्रम में शामिल करने के लिए। पूरी कोशिश रहेगी कि सवालों के जवाब उलझे हुए न देकर सीधी सामान्य भाषा में दूँ। फिर भी, कोई बात यदि समझ में न आए तो आप बार-बार पूछ सकते हैं। सबसे पहला सवाल आरती जी का यह ही है। लघुकथा में 'क्षण' सिर्फ समय की इकाई को ही नहीं कहते, संवेदना की एकान्विति को भी 'क्षण' कहते हैं। उस एकान्विति आप यों समझ लीजिए कि पात्र को उसकी तत्समय की चिंता से, भावभूमि से दूसरी चिंता में, दूसरी भावभूमि में प्रविष्ट नहीं करना चाहिए। आपको याद होगा, भोपाल वाली गोष्ठी में मैंने कहा था--लघुकथा में पात्र के चरित्र पर कथाकार का ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए। जीवन में पात्र के चरित्र में बदलाव की एक प्रक्रिया होती है, वह एकाएक नहीं बदलता। उस प्रक्रिया को लिखने के लिए हमें कहानी की विधा को अपनाना होता है।
Anagha Joglekar सर, एक प्रश्न--क्या लघुकथा भूत से होते हुए वर्तमान में नही आ सकती?  हमेशा फ्लेशबैक से ही भूतकाल में जाना आवश्यक है? इसमें भी तो अचानक बदलाव नही होगा यदि बहुत ही अधिक भूतकाल में न चले जाएँ तो। भूत वर्तमान आपस में जुड़े ही तो हैं।
Balram Agarwal फ्लैश बैक उस ‘क्षण’ से इस ‘क्षण’ को जोड़ने का ऐसा टूल है जो कथा में घटना-प्रस्तुति के प्रवाह को बनाए रखने में सहायक होता है। अगर कोई कथाकार ‘भूत से होते हुए वर्तमान में आने’ की शैली का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकता है तो उसे कर दिखाना चाहिए। अधिक नहीं, प्रयोग के तौर पर कुछ लघुकथाओं में आजमाकर देख लीजिए।
Nayana-Arati Kanitkar बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय। क्षण विशेष तो समझ गई लेकिन तत्समय की चिंता और भावभूमी से दूसरी चिंता में प्रवेश के लिए आपस में जोडने वाला एक पूल होना चाहिए ना, जब हम इस आधार पर कुछ विवरण या संवाद लिखते हैं तो इसे अनावश्यक विस्तार कहकर सिधे बात पर आने का सुझाव मिलता हैं ऐसी स्थिती में क्या योग्य होगा।
Beena Sharma हम लघुकथा से लेखकीय प्रवेश किस प्रकार रोके रख सकते है?
Balram Agarwal इसके लिए कुछ रचनाओं के उदाहरण देने होंगे जो यहाँ एकाएक सम्भव नहीं हैं। एक बार फोन पर बातचीत के दौरान डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने भाई जगदीश कश्यप के एक लेख का सन्दर्भ देते हुए मुझसे कहा था--बलराम, जगदीश ने जो अपने बारे में यह बात अपने लेख में लिखी है, यह बात तो आलोचक को कहनी चाहिए, उन्होंने स्वयं क्यों कही। बस, वहीं से मुझमें यह विचार पैदा हुआ कि लघुकथा में भी मैं यह सोचूँ कि कौन-सी वह पँक्ति है जो पात्र या नैरेटर की बजाय पाठक या आलोचक द्वारा कही जानी चाहिए। इस सूत्र के द्वारा आप स्वयं अपनी रचना में झाँकना सीख सकते हैं। 'सैल्फ एसेस्मेंट' से बड़ा न कोई अन्य आलोचक हो सकता है न गुरु।
Savita Gupta आदरणीय, किसी भी लघुकथाकार को अपनी खुद की रचना को उत्कृष्ट बनाने के लिए क्या करना चाहिए?
बलराम अग्रवाल : अपनी खुद की रचना को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसे यथेष्ट अन्तरालों के बाद बार-बार पढ़ना और संपादित करना चाहिए। बहुत-सी बातें एकाएक ध्यान में नहीं आ पाती हैं, उनको आने का अवसर देना चाहिए और बहुत-सी अपरिहार्य बातें पहले-दूसरे-तीसरे ड्राफ्ट में भी बनी रह सकती हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश मेरा सवाल यह कि आप की कौनसी लघुकथा सब से अधिक समय में लिखी गई थी ? उस की रचनाप्रक्रिया दिमाग में कितने दिन चली ? इस पर आप के विस्तार से विचार जानना चाहता हूँ.
Balram Agarwal इसका लेखा कभी रखा नहीं। एक लघुकथा थी--'बोलो चमनलाल' जिसका जिक्र 1985 के आसपास भाई जगदीश कश्यप ने मेरी लघुकथाओं में लिखे अपने एक लेख में भी किया था। यद्यपि उन्होंने प्रशंसा ही की थी, लेकिन मुझे लगातार लगता रहा कि जिस सम्वेदना को मैं उस रचना के माध्यम से सम्प्रेषित करना चाहता हूँ, उसका सामान्यीकरण अभी हो नहीं पाया है। यह सोचकर उस रचना को कभी प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। वह आज तक नहीं लिखी गयी।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश यही मुझे भी लग रहा था कि लेखक के मन में कुछ चीज़ या बात होती हैं जो कभी मुकाम नहीं पा पाती हैं. पाती है तो वह सवोत्कृष्ट रचना होती हैं. उसी सब से बढ़िया लघुकथा के बारे में जानना चाहता हूँ।
Balram Agarwal लेखक के मन की बात जब तक मुकाम नहीं पा लेती, रचना में पूर्णत्व नहीं आ पाता और रचनाकार बेचैन रहता है। इसलिए स्तरीय लघुकथाकार वह नहीं जो दस-बीस, सौ-दो सौ-चार सौ ‘वाह-वा’ सुनकर सन्तुष्ट हो जाता है। स्तरीय लघुकथाकार वह है जो अपनी लेखनी की कमियों को जानता है और उन्हें दूर करने के लिए रचना दर रचना प्रयत्नशील रहता है।
Savita Gupta आदरणीय बलराम जी, लघुकथा में सपाट बयानी से बचने हेतु क्या बिम्ब, प्रतीक, काव्यात्मक अलंकार, रस तत्व सशक्त भाव पक्ष होने जरूरी है ??
Balram Agarwal असलियत यह है कि जिस शिल्प और शैली का ‘सपाट बयानी’ के नाम पर तिरस्कार या बहिष्कार करने की बात कही जाती है, वह वस्तुत; ‘सपाट लेखन’ है, ‘सपाट बयानी’ नहीं। सपाट बयानी का सही अर्थ है किसी बात को साहस के साथ साफ-साफ कहना, कबीर की तरह। सपाट बयानी का मतलब होता है—कथन-भंगिमा में दुराव-छिपाव या भेद-भाव का न होना। सपाट बयानी का मतलब अंधे की लाठी का घूमना है, अपने-पराए किसी का भी सिर फूटे, उसकी बला से। सिर फोड़ने के इस काम को जब हम आँखें खोलकर करते हैं तो कलात्मकता की दरकार होती है। वह नहीं होगी तो हम पकड़े जाएँगे क्योंकि अंधा खुद को मानेंगे नहीं। अत; लेखन का सपाट होना एक तरह से अपराध ही समझिए, स्वयं अपने साथ भी।
Anagha Joglekar लेखकीय प्रवेश पर मेरा भी एक प्रश्न है। पात्र को नाम देकर लेखक अपने मन की ही बात कहता है। लेखक स्वयं उन पात्रों को जीता है तभी लिखता है। तो क्या पात्र का नामकरण कर अपनी बात कहना लेखकीय प्रवेश है?
Balram Agarwal नहीं।
Anagha Joglekar एक और प्रश्न--लेखक को कैसा कथानक चुनना चाहिए और किस तरह कथा लिखनी चाहिए - स्वयं की दृष्टी से स्वयं के लिए, पाठक की दृष्टी से पाठक के लिए?
Balram Agarwal स्वयं की दृष्टि से स्वयं के लिए। साहित्य सदा ही--स्वांत; सुखाय होता है, कोई माने न माने। हाँ, इतना जरूर है कि लेखक का 'अंत;करण' जितना व्यापक होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही व्यापक होगी।
चित्रा राणा राघव लघुकथा में कथा तत्व की आवयश्कता को अब मैं समझती हूँ, परन्तु यदि मेरे लेखन का झुकाव विज्ञान, तर्क आदि है तो क्या वह भावनाओं, मार्मिक, रस से ओतप्रोत लघुकथा से कमतर ही रहेंगी या मानी जायेंगी? विज्ञान, वैश्विक समस्या पर आधारित लघुकथा में शब्दों के चयन को लेकर बहुत ही संशय है, भाषा वैज्ञानिक होते हुए भी क्लिष्ट नही होनी चाहिए। पर। क्या विज्ञान से संबंधित शब्दों के प्रयोगे के बिना इन विषयों पर लिखना संभव है? अगली पीढ़ी भावनाओं के सपनो से बाहर तकनीकी सपने देखती है, जीती है, उस ओर हमारी लघुकथा समूहों, गोष्ठियों, वरिष्ठ जनों का क्या सहयोग है? (संभवतः तभी अगली पीढ़ी में भी इसे सशक्त लेखन माना जायेगा।)
Balram Agarwal आपका प्रश्न बीच में मालूम नहीं कैसे छिपा रह गया, माफ करना। मैं अधिकतर बाहरी घटनाओं से कथानक नहीं उठाता। मेरे अन्दर एक विचार पैदा होता है और उसके चारों ओर मैं कथा को बुनता हूँ। यह मेरी रचना प्रक्रिया है, किसी अन्य कथाकार की भी यही हो, जरूरी नहीं है। इस आधार पर चलें तो विज्ञान, तर्क आदि पर लिखना सहज हो जाता है, आपको लिखना चाहिए। हाँ, कथारस का, पाठकीय जिज्ञासा को बनाए रखनी जिम्मेदारी लेखक की है। यह नहीं होंगे तो अच्छे परिणाम सामने नहीं आएँगे और लेखन का उद्देश्य भी सिद्ध नहीं होगा। विज्ञान के विषय, वैश्विक समस्या पर लिखने पर भी कथानक चयन और शब्द तो आपको उस परिवेश से ही लेने होंगे, जिसके लिए आप लिख रहे हैं। हमें अपने परिवेश को वैज्ञानिक दृष्टियुक्त करने, पुष्ट करने के लिए लिखना है, न कि विश्व साहित्य की भीड़ में एक रचना या एक किताब और जोड़ देने के लिए।
Vibha Rashmi मेरा प्रश्न । अगर कथा का स्वतःनकारात्मक अंत हो रहा हो तो क्या कथा कमज़ोर मानी जाएगी ? और सकारात्मक सुखद अंत वाली कथा को अधिक अंक मिलेंगे ?
Balram Agarwal लेखक का मूल उद्देश्य उद्बोधन और उत्प्रेरण है। वह अगर दुखान्त से आता है तो उसी से आने देना चाहिए।
Subhash Neerav चित्रा राणा राघव का भी प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। इसका उत्तर मैं भी तुमसे चाहता हूँ। जवाब अवश्य दो यार !
Sheikh Shahzad Usmani मेरी कुछ रचनाएं ऐसी हो जाती हैं, बल्कि ऐसी शैली में मुझे कई बार सुविधा महसूस होती है मौलिक सहज प्रवाह के साथ। सकारात्मक अंत करने की कोशिश तनाव देती है व अंत कृत्रिम सा हो सकता है। आपके उत्तर ने मुझे मदद की है लेकिन उदाहरण सहित उद्बोधन व उत्प्रेरण/विचारोत्तेजना को समझना चाहता हूं। सादर।
Balram Agarwal समकालीन लघुकथा में उद्बोधन और उत्प्रेरण भी निदानात्मक ही होता है प्रिय शहजाद जी। उदाहरण के लिए, अशोक भाटिया की ‘रंग’ या ‘कपों की कहानी’, सुभाष नीरव की ‘जानवर’ और ‘बारिश’ को पढ़िए।
Sunita Tyagi मेरा प्रश्न है कि एक लघुकथा को पूर्ण करने में व यह मानने में कि वह पोस्ट करने योग्य हो गयी है कम से कम कितना समय लगाना चाहिये ।
Balram Agarwal जितने समय में लेखक स्वयं आश्वस्त हो, उतना।
Sunita Tyagi लेकिन जब विभिन्न ग्रुप्स पर चलने वाली प्रतियोगितओं में समय सीमा होती है ।क्या तब भी लेखक कथा के साथ पूर्ण न्याय कर सकता हैं ।
Balram Agarwal समय सीमा के दबाव से संवेदन-तंतुओं को मुक्त रखें, मेरा मत तो यही है। तात्पर्य यह कि आप प्रतियोगिता के विषय पर लिखें अवश्य लेकिन भेजने की आतुरता से बचें। इस तरह लेखन भी अनवरत चलता रहेगा, रचना भी परिपक्व आएगी।
Kanta Roy सत्य घटनाओं का चित्रण और लघुकथा में अंतर क्या हैसत्य और यथार्थ को लेकर बहुत भ्रम हैं अभी भी। लघुकथा लेखन और 'साहित्य का प्रायोजन'..... इस पर भी हम सबको आपसे दृष्टिकोण चाहिए।
Balram Agarwal जिसे हम 'घटना' कह रहे हैं, उसके सच से कई बार अपरिचित होते हैं। एक व्यक्ति भीड़ में किसी अन्य को पीछे से चिकौटी काट ले, चिकौटी कटा व्यक्ति घूमकर पीछे जो नजर आए, उसको झापड़ रसीद कर दे और वहाँ खड़ा तीसरा व्यक्ति उस झापड़ और झगड़े की वीडियो बनाकर वायरल कर दे। इस तीसरे व्यक्ति को आप लेखक मान लीजिए। इस घटना में आप सत्य, यथार्थ और लेखकीय दायित्व को तलाशने की कोशिश कीजिए। समझ में न आए तो पुन; बात करेंगे।
चैतन्य चैतन्य क्या ऐसा नहीं हो सकता क़ि मैं अपने साथ घटी घटना को साक्षी बनकर देखूँ और स्वयं ही लेखक के रूप में प्रस्तुत करूँ।
Balram Agarwal एक सिद्धांतकार अथवा समाचार-प्रेषक/समाचार-वाचक की बजाय एक पात्र के रूप में हर लेखक यह कर सकता है।
चैतन्य चैतन्य मुझे लगता है कोरी कल्पना के वजाय अनुभव मिश्रित कल्पना लेखन को ज्यादा जिवंत बना सकती है बशर्ते की हम घटना को साक्षी होकर देख सकें।
Sumit Kumar खुशी हुई कान्ता जी आपने मुद्दा उठाया ।
Sheikh Shahzad Usmani मैं पूछना चाहता हूं कि अभी हाल की या नज़दीक के परिवेश की सच्ची घटना को लेखकीय कल्पना के साथ मुख्य समस्या को/विसंगति को उभारती हुईं लघुकथा को पाठक कब और क्यों पसंद नहीं करते, बल्कि कुछ पाठक उसे समाचार कहकर लघुकथा मानने से भी इंकार कर दिया करते हैं। कृपया कारण व कमियों का समाधान बताइयेगा।
Balram Agarwal : ‘नजदीक के परिवेश की सच्ची घटना’ को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखक यदि उसकी सत्यता अथवा प्रामाणिकता को ही पेश करने की कोशिश करता रहेगा तो पाठक को कथा के स्तर पर रचना से जोड़ने में नाकामयाब रह सकता है। लेकिन आपने अपने सवाल में अनायास ही कहा—‘लेखकीय कल्पना के साथ’; तो यहाँ आप रचनाशीलता की ओर अंशत: सार्थक कदम बढ़ाते प्रतीत होते हैं। अंशत: इसलिए कि अभी इसमें ‘लेखकीय दायित्व के साथ’ और जुड़ना शेष है। ‘कल्पनाशीलता’ और ‘लेखकीय दायित्व’, ये दोनों ही किसी सत्य घटना को समाचार प्रस्तुति से ऊपर कथा प्रस्तुति की ऊँचाई प्रदान करते हैं, अकेली कल्पनाशीलता ऐसा करने में असमर्थ रह जाती है।
Arvina Gahlot सर मेरा सवाल है क्या हम नवोदित लेखको को मार्केटिंग के दिसाब से लिखना चाहिए ।जिसे लोग ज्यादा पढ़ते है ऐसा बिषय चुने कभी कभी हम कथनानुसार लिखते है लेकिन ये ख्याल मथता रहता है क्या ये सही किया किसी के अनुसार अंत बदल दिया किसीने कहा तो शुरुरात बदल दी ।जिस बिचार बिन्दू से कथा शुरू की थी अब हम उसी से भटकन महसूस करते है ।
Balram Agarwal सबसे पहले तो भटकन से मुक्ति पाने की कोशिश कीजिए। कुछ दिनों के लिए लेखन को स्थगित करके प्रो धनंजय वर्मा, डॉ रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध की डायरी आदि कुछ आलोचना कार्य पढ़िए। उससे आपमें अपनी रचना के प्रति तर्कशीलता जागेगी और तब रचना परिपक्व होकर ही प्रकाशित कर पाओगे।
Sunita Tyagi भैया जी क्या इन लेखकों की आलोचनाएं गूगल पर उपलब्ध हैं।
Balram Agarwal  रॉयल्टी या कॉपी राइट आदि के बन्धनों के चलते सम्भव है अभी ये गूगल पर न हों, लेकिन पुस्तकालयों में ये मिल जाएँगी।
Anandbala Sharma संतोषजनक स्थिति कैसे आए--लघुकथा के संदर्भ में?
Balram Agarwal तुरन्त प्रकाशित और प्रशंसित होने की आकांक्षा से बाहर आ जाइए।
Kanak K. Harlalka अगर हम आलोचना और समीक्षा के मार्ग से नहीं गुजरेंगे तो परिवक्वता की मंजिल तक क्यों कर पंहुचेंगे ? .
Balram Agarwal : यह कथन वस्तुत; दो स्तरों पर सम्पन्न होता है—पहला, रचना की स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा के स्तर पर और दूसरा, उसकी बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा के स्तर पर। पहले स्तर पर आपका कथन शत-प्रतिशत सही है। जो रचनाकार स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा के मार्ग से गुजरने का अभ्यस्त नहीं है, परिपक्वता की मंजिल तक उसका पहुँचना संदिग्ध हो सकता है; साथ ही  बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा को समझने व सहने का विवेक उसमें नहीं पनप सकेगा, ऐसा मेरा मानना है।
Savita Gupta  आदरणीय, कहानी उपन्यास आदि में समीक्षकों की महती भूमिका रही है। लघुकथा के क्षेत्र में आप, जीतू जी, महादोषी जी आदि तीन-चार को छोड़ समीक्षकों का अभाव है एक अच्छे समीक्षक बनने के लिए आप क्या सुझाव देंगे।
Balram Agarwal : अच्छा समीक्षक बनने के लिए कथा-साहित्य की स्तरीय आलोचना और समीक्षा पुस्तकों का अध्ययन आवश्यक है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश आप की वह लघुकथा जिसे आप सब से अच्छी लघुकथा मानते हैं. केवल आप !
Kanta Roy  सबसे मुश्किल सवाल है यह। इस कठिन सवाल का सरल जवाब मैं भी सुनने की इच्छुक हूँ।
Balram Agarwal इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। मेरी ऐसी कोई लघुकथा नहीं, जिसे मैं सबसे अच्छी लघुकथा मानता हूँ। हाँ, कुछ लघुकथाएँ सन्तोषप्रद अवश्य हैं लेकिन उनके भी नाम मैं यहाँ नहीं बता सकता।
Savita Gupta हमें अपने आस-पास या समाज की नब्ज टटोलते कथानक लेने चाहिए , जो मन को कचोटे ... आस-पास तो दहेज़ ह्त्या ,बलात्कार, धार्मिक उन्माद, बुजुर्गों की उपेक्षा ही सर्वाधिक देखने में आती है, फिर इन पर पुराने विषय होने की मोहर क्यों ?
Balram Agarwal अगर आपकी कथन-भंगिमा में नवीनता है तो पुराने विषय भी 'दीवारें बोल उठेंगी' की तर्ज पा सकते हैं। वाल्मीकि के बाद तुलसीदास ने भी रामकथा लिखी, राधेश्याम कथावाचक ने भी और अब नरेन्द्र कोहली ने भी। कथन-भंगिमाएँ और स्थापनाएँ सबकी भिन्न हैं। इस भिन्नता को प्रस्तुत करने के लिए लेखक को अपनी दृष्टि के दायरे को बढ़ाना पड़ता है अध्ययन के द्वारा।
Subhash Neerav अच्छा प्रश्न और उतना ही अच्छा उत्तर !
Rajesh Shaw लघुकथा को भूमिकाविहीन रखने का सरल तरीका या कितना तक छूट है ? सादर।
Balram Agarwal भूमिकाविहीन रखने का सबसे सरल और प्रभावकारी तरीका है--लघुकथा को संवाद से शुरू किया जाए। उसे बोझिल होने से बचाने का प्रभावकारी तरीका है--उसमें नैरेशन को कम रखा जाए और मारक बनाने का तरीका है--उसमें द्वंद्व को स्थान दिया जाए।
Rajesh Shaw और छूट सर??
Balram Agarwal कैसी छूट?
Rajesh Shaw जो भूमिका देने से नहीं हिचकते, और लघुकथा की श्रेणी भी मिल जाती है कैसे ?
Balram Agarwal उनमें ‘भूमिका’ की भूमिका को पाठक/आलोचक अपरिहार्य मानकर स्वीकार कर चुका होता है।
Sheikh Shahzad Usmani कई बार नेरेशन में भी प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण बात बाख़ूबी उभर जाती है, मिश्रित शैली की लघुकथा में। फिर भी पाठक उसे लघुकथा के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? क्या विवरणात्मक शैली में केवल नेरेशन ही होगा या होता है या होना चाहिए?
Balram Agarwal : आप इस सवाल को दोबारा करें शहजाद। इसमें आप काफी कन्फ्यूज्ड नजर आ रहे हैं। मिश्रित शैली की लघुकथा से आपका तात्पर्य शायद उस लघुकथा से है जिसमें नैरेशन और संवाद दोनों होते हैं। अधिकतर लघुकथाओं में ये दोनों होते ही हैं। बहुत कम लघुकथाएँ हैं जिनमें केवल नैरेशन या केवल संवाद हों। आप ऐसी रचनाओं में ‘कई बार’ यानी ‘कभी-कभार’ केवल नैरेशन में ‘प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण’ बात के उभर आने की बात कह रहे हैं। ऐसी रचना को पाठक क्यों लघुकथा स्वीकार नहीं करता, यह रचना को देखे बिना नहीं बताया जा सकता। इस सवाल का दूसरा हिस्सा मेरी समझ में नहीं आ रहा।
Kapil Shastri "ब्रह्म सरोवर के कीड़े"में तो आपने शीर्षक से ही ब्राह्मण पंडितो को कीड़े कहकर उनकी बखिया उधेड़ दी थी।संभवतः पुस्तक के संदर्भ में इतनी त्वरित प्रतिक्रियाएँ या रोष प्रकट नहीं होता किन्तु फेसबुक पर तो लोग फौरन आग उगलने लगते हैं।आजकल माहौल भी बहुत गर्म है।कुछ समीक्षक भी अल्पसंख्यस्को व नारी सम्मान के पक्ष में आकर जोरदार दलीले देते हैं और लेखक को सख्त हिदायते की किसी भी पक्ष को आपकी लेखनी से ठेस नहीं पहुचनी चाहिए।ऐसी स्थिति में क्या लेखक को सिर्फ सूंदर,सार्थक संदेश देने वाली कथा ही लिखनी चाहिए या ज्वलंत विषयों पर वास्तविकता दर्शाती कथाएं।
Balram Agarwal 'ब्रह्म सरोवर के कीड़े' हमारे चारों ओर रेंग रहे हैं ऐसा मुझे लगातार लगता है। एक जाति-विशेष जिस आधार पर 'बुद्धि' पर अपना पेटेंट मान बैठी है वह आतंकित करता है। इसी साल मैं भगवान केदारनाथ दर्शन के लिए लाइन में खड़ा था। आप जिस तीर्थस्थान पर जाएँगे, कीड़े आपको चिपकना शुरू हो जाएँगे। उनसे मैं तो सावधान रहता ही हूँ अपने आसपास को भी सावधान करने की कोशिश करता हूँ। एक कीड़ा वहाँ पर मेरे आगे खड़े एक राजस्थानी श्रद्धालु से आ चिपका। टोका तो झगड़ा हो गया। वह लघुकथा आप जाति-विशेष की बजाय वृत्ति-विशेष पर है, लेकिन साधन तो किसी न किसी को चुनना ही था जो सर्व-सुलभ भी हो।
Kanta Roy  जितना सुन्दर प्रश्न उतनी ही अच्छी विवेचनात्मक उत्तर।
Kapil Shastri सही कहा।पंडो से सावधान रहना जरूरी है।इन्होंने तो भगवान का ही पेटेंट करा लिया है।
Sunita Tyagi वास्तव में ऐसी वृति के लोग कीड़े समान ही हैं ।जो एक बार जोक की तरह चिपक गये तो छुटने का नाम नहीं लेते।
Neena Singh Solanki सर, लघुकथा संवाद से प्रारंभ करना अधिक उपयुक्त होता है क्या ?
Balram Agarwal ऊपर प्रिय राजीव शॉ को दिया उत्तर देखकर पुन: प्रश्न कर सकती हैं।
Prerna Gupta आदरणीय सर, किसी एक ही रचना को कोई विधा का ज्ञाता पास कर देता है और दूसरा उसे पास न करे, ऐसे में क्या करें ? सादर।
Balram Agarwal ऐसे में अपने अन्दर बैठे आलोचक पर विश्वास करें। उसे समय-समय पर सही खुराक देते रहें ताकि वह स्वस्थ बना रहे।
Neena Singh Solanki सर जो बात हम भूमिका से बताना चाहते हैं वही बात संवाद के बाद बता सकते हैं क्या ? आभार
Balram Agarwal दो बातें सामने आती हैं—पहली, रचना लिखते समय लेखक का मूड क्या है और दूसरी, उसके संपादन के समय वह उसके किस रूप को बेहतर मानता है।
Rajesh Shaw और सर लेखकीय प्रवेश की तरह भूमिका जानने का भी कोई सूत्र सुझाएँ !
Balram Agarwal अगर वह लेखक का अनर्गल प्रलाप/विद्वता प्रदर्शन/असंगत या अनावश्यक विवरण महसूस हो तो समझ जाइए।
Suneel Verma कभी कभी ऐसा होता है कि कथा में पात्र का दो तीन दिन का कर्म अनवरत लिखना होता है, और आखिरी वाले दिन कुछ ऐसा होता है जो चिंतन/संदेश की वजह बनता है| (जैसे गडरिये का रोजाना भेड़िया आया चिल्लाना और आखिरी दिन भेड़िये का सच में आ जाना) अक्सर इन परिस्थितियों में फ्लेशबैक तकनीक उतना प्रभावित नही करती, इस अवस्था में कथा को किस तरह कहा जाये..?... क्योंकि यहाँ चार दिन का कालखंड समेटना होता है|
Balram Agarwal चार दिन क्या, चालिस दिन भी समेटने की जरूरत पड़े तो आप समेटिए। सावधानी सिर्फ यह कि जिस संवेदन-बिंदु पर आप केन्द्रित हैं, उससे बिखरकर बीच-बीच में दूसरी, तीसरी संवेदना पर बात करते हुए पुन; पहली पर न आ जाएँ; यानी एक लघुकथा में आपने जिसका पल्लू एक बार थाम लिया है, अन्त तक उसी का बनकर रहना है। दूसरे पल्लू के लिए दूसरी लघुकथा।
Rajesh Shaw फिर लघुकथा मे 'अगले दिन' लिखा जा सकता है ?
Balram Agarwal  अच्छा तो यही होगा कि पाठक को संवाद आदि किसी अन्य माध्यम से पता चले कि यह 'अगले दिन' घटित हुआ।
Sheikh Shahzad Usmani बहुत बढ़िया सोदाहरण जवाब, मार्गदर्शक।
Anagha Joglekar सुनील सर, मैं भी इससे मिलता जुलता ही पूछना चाहती थी। क्या लघुकथा भूत से होते हुए वर्तमान में नही आ सकती? हमेशा फ्लेशबैक से ही भूतकाल में जाना आवश्यक है? इसमें भी तो अचानक बदलाव नही होगा यदि बहुत ही अधिक भूतकाल में न चले जाएँ तो। भूत वर्तमान आपस में जुड़े ही तो हैं।
मधु जैन कभी कभी किसी अन्य की रचना का विषय / कथ्य अच्छा लगने पर मन कहता है, कि हम इसी विषय कुछ अलग तरीके से लिख सकते हैं तो लिखना क्या यह चोरी के अंतर्गत आएगा?
Balram Agarwal हर लेखक पढ़ी हुई रचनाओं के भीतर से अंकुरित होते विचार-बिंदुओं को पकड़ता है और पालता-पोसता भी है। अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ और ट्रीटमेंट भिन्न है तो चोरी नहीं कहा जाना चाहिए। वैसे यह तो कथाकार के कौशल पर निर्भर करता है कि 'चोरी' करने में वह कितना सिद्धहस्त है। कई लोग चोरी किए बिना भी चोर सिद्ध हो सकते हैं, कई उसे एकदम मौलिक की तरह निकाल सकते हैं।
Kanta Roy अच्छी सिद्धहस्तता है यह.
Anagha Joglekar सर एक और प्रश्न--लेखक को कैसा कथानक चुनना चाहिए और किस तरह कथा लिखनी चाहिए - स्वयं की दृष्टी से स्वयं के लिए, पाठक की दृष्टी से पाठक के लिए?
Balram Agarwal स्वयं की दृष्टि से स्वयं के लिए लिखिए, दूसरे किसी के लिए नहीं।
Kshama Sisodia आदरणीय प्रणाम। सर्वप्रथम आप मेरा अभिनंदन स्वीकारें । 1-मेरा पहला प्रश्न है कि लघुकथा एक सार्थक संदेश प्रदान करने का श्रेष्ठ साहित्य है । तो क्या इस विधा में श्रृंगार रस में लिखना उचित है ?
उदाहरणार्थ- नारी शरीर का वर्णन यदि आवश्यक ही हो तो सिर्फसां केतिक भाषा का प्रयोग हो । 2- दूसरा प्रश्न यह है कि लघुकथा लिखने का सही मापदंड क्या ? कभी-2 दिग्भ्रमित दिशा और दशा हो जाती है कथाकार की । कृपया मार्गदर्शन करें ।
Balram Agarwal 1-भरत मुनि ने नौ रस बताए हैं। उन सभी में साहित्य रचा जा सकता है। आपको देखना यह है कि आप जिस युग में जी रहे हैं, उस युग की दिशा क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपके चिंतन-मनन की दिशा अपने युग से भिन्न किसी दूसरी ओर जा रही है। अगर आप 'श्रंगार' के माध्यम से आज के युग की विसंगतियों को व्यक्त करने में स्वयं को अधिक अनुकूल महसूस करती हैं तो अवश्य उस रस को अपनाइए। 2-इस सवाल का जवाब प्रकारान्तर से ऊपर कहीं दिया जा चुका है। देख लें।
रेखा श्रीवास्तव लघुकथा क्या सिर्फ सीमित कालखण्ड की रचना बनने में ही सार्थक होगी ।
Balram Agarwal विषय-बिंदु के संघटित रखने की दृष्टि से ऐसा करना अनायास ही आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
Pawan Jain लघुकथा में पात्र की सोचने की बातों को कथा में समाहित किया जा सकता है जैसे :-
1- वह पत्नी के कटु शब्द सुन कर कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा इससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये ,वह मन ही मन योजना बनाने लगा।
2- उसकी सीट के आगे दो लडकियां बैठी थी ,वे आपस में बात कर रहीं थीं ।वह उनकी बातें सुन रहा था, वह सोचने लगा यह पीढ़ी सिर्फ नेट और मोवाइल की बातों में व्यस्त रहती है।
3- मैं पार्क में बैठा बैठा सोच रहा था कि जीवन नष्ट कर दिया ,अभी तक कुछ कर नहीं पाया।
लघुकथा स्वप्न में घटित घटना के रूप लिखा जा सकता है।
Balram Agarwal लघुकथा को स्वपन में घटित घटना का प्रयोग करते हुए अनेक प्रभावशाली लघुकथाएँ लिखी जा चुकी हैं। ऊपर वाले 3 बिंदु आपने किस उद्देश्य से लिखे हैं, माफ करना, समझ नहीं पाया।
Arvina Gahlot सर द्वारा बताए गए तीन बिंदुओं में लेखक स्वयं सोच रहा है। कथा के मानक में स्वयं मतलब लेखकीय प्रवेश माना जाता है ।क्या ये सही है सर
Balram Agarwal 1- वह पत्नी के कटु शब्द सुन कर कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा इससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये ,वह मन ही मन योजना बनाने लगा।----इस पंक्ति को यहां पढ़ने पर लेखक का प्रविष्ट होना महसूस नहीं हो रहा। सामान्य नैरेशन को लेखक की प्रविष्टि नहीं मानना चाहिए।
2- उसकी सीट के आगे दो लडकियां बैठी थी ,वे आपस में बात कर रहीं थीं ।वह उनकी बातें सुन रहा था, वह सोचने लगा यह पीढ़ी सिर्फ नेट और मोवाइल की बातों में व्यस्त रहती है।---यह भी नैरेशन ही है। लेखक की उपस्थिति नहीं।
3- मैं पार्क में बैठा बैठा सोच रहा था कि जीवन नष्ट कर दिया ,अभी तक कुछ कर नहीं पाया।---यह आत्मकथात्मक शैली का वाक्य है। इसे भी लेखक का उपस्थित होना नहीं मानना चाहिए।
Sunita Tyagi एक बार किसी विद्वान ने कथा में सोचने वाली बात पर कमैंट किया था कि उसने क्या सोचा ये आपको कैसे पता चल गया। क्या आप अन्तरयामी हैं।
Balram Agarwal  कथा-लेखक समूची कथा का यानी कथा में वर्णित पात्रों का, उनके सर्वकोणीय चरित्र का, वातावरण और स्थितियों-परिस्थितियों सब का ‘सर्जक’ है। कथा लिखते समय वह सामान्य व्यक्ति न होकर रचयिता यानी अन्तरयामी ही होता है।
Kanta Roy प्रश्न यह है कि क्या पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिया को 'क्षण विशेष में घटनाक्रम के घटित होना' मान सकते हैं?
Balram Agarwal  देखना यह होगा कि पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिया जिस ‘कालखण्ड’ को समेट रही है, वह ‘कालखण्ड’ तत्सम्बन्धी लघुकथा की अन्तर्वस्तु के अनुरूप ‘क्षण’ को रच पा रहा है या समयावधि को ही व्यक्त कर रहा है। लघुकथा में ‘क्षण’ को हमें यानी लेखक और समीक्षक दोनों को, कथा-घटना की अन्तर्वस्तु से जोड़कर देखने का अभ्यस्त होना पड़ेगा।
Usha Bhadauria नमस्कार सर । मेरा प्रश्न है कि कहा जाता है कि संवाद , किसी भी रचना की जान होते हैं ...ऐसे में अगर कोई रचना बिना संवाद के ही लिखने में ठीक लग रही हो तो ये कहाँ तक उचित होगा ?
और साथ ही vice versa ... अगर सिर्फ संवाद में ही लिखी जाए तब ?
Balram Agarwal प्रथमत; तो सिर्फ नैरेशन पाठक को कितना कथारस दे सकता है--यह देखना जरूरी है। सिर्फ नैरेशन लेखकीय वक्त्व्य जैसा भी किसी बिंदु-विशेष पर पहुँचकर लग सकता है। इसलिए जरूरी है कि कथा को संवादों के माध्यम से पूर्णता देने पर ध्यान दिया जाए। सिर्फ संवादों में भी कथा को पूर्णता प्रदान की जा सकती है। शर्त यही है कि उनके समापन में भी अधूरापन पाठक को न लगे।
Sheikh Shahzad Usmani यहां लघुकथा की विवरणात्मक शैली के संदर्भ में इस सवाल का जवाब देने की कृपा कीजिए।
Balram Agarwal  विवरण उपलब्ध कराने वाला कथाकार ही है। कथा का स्त्री पात्र भी वह है, पुरुष पात्र भी वह है, बच्चा-बूढ़ा-जवान सब-कुछ वही है। वही कुत्ता है, कौआ है, पेड़ भी है। गरज यह कि कथा लिखते समय वह मात्र एक इंसान नहीं, पूरी दुनिया है। विवरण देने के कार्य को नाटक में "सूत्रधार" के माध्यम से नाटकीय ढंग से सम्पन्न किया जाता है, इस तरह नहीं जैसे लेखक अपनी विद्वता दिखाने को कुछ स्पष्टीकरण देने को खड़ा हो गया हो। यदि कभी आपने रंगमंचीय नाटक देखा-पढ़ा हो तो आप आसानी से इस बात को समझ पाएँगे। कथा में यही कार्य कथाकार के भीतर बैठा 'सूत्रधार' करता है। उस समय वह एक इंसान नहीं रहता, रचियता होता है, सर्जक। यदि कथ्य प्रेषण के लिए आवश्यक/ सम्बन्धित विवरण को अपनी व्यक्तिगत हस्ती से अलग 'सूत्रधार' के रूप में नहीं प्रेषित कर पाता है तो यह उसकी कमजोरी कहलाएगी, इस शिल्प पर उसे और श्रम करना चाहिए।
Suneel Verma 'शीर्षक चयन' बहुत उलझाता है| हाँलाकि..यह कथा के स्वभाव/संदेश पर निर्भर करता है..परंतु कोई विशेष बिंदु हो तो बतायें जिन पर विचार करके सटीक शीर्षक चुना जा सके|
Balram Agarwal शीर्षक मुझे भी उलझाता है। हर उस कथाकार को उलझा सकता है जो विचार को कथा-घटना में ढालता है। जो कथाकार घटना को कथा में ढालते हैं, उनके लिए शीर्षक चुनना अपेक्षाकृत आसान होता है।
Usha Bhadauria किसी गाँव या किसी अन्य जगह से रिलेटेड रचना लिखने पर , क्या ग्रामीण /आँचलिक भाषा का ही प्रयोग कर लिखना चाहिए या फिर ऐसे विषयों पर लिखना ही नहीं चाहिए ? क्योंकि सामान्य भाषा में लिखी गयी रचनाएँ उतनी प्रभावी नहीं लगती ...
Balram Agarwal : लघुकथा में ग्रामीण अंचल की भाषा का प्रयोग संवाद-प्रस्तुति में किया जा सकता है, अक्सर किया भी जाता है। ऐसा करते समय मुख्यत: जो सावधानियाँ जरूरी हैं, वे हैं—1. आंचलिक भाषा का प्रयोग आवश्यक होने पर ही किया जाए और इस अनुपात में कि रचना हिन्दी की बजाय उक्त आंचलिक भाषा/बोली की ही होकर न रह जाए। 2. प्रयुक्त भाषा/बोली पात्र और समय के अनुकूल हो यानी वह पात्रों और परिस्थितियों पर थोपी गयी प्रतीत नहीं होनी चाहिए; तथा, 3. लेखक स्वयं उक्त आंचलिक भाषा या बोली का जानकार यदि नहीं है तो उक्त भाषा/बोली के किसी अच्छे जानकार से उन संवादों का अनुवाद प्राप्त करके ही उनका प्रयोग रचना में करे। ग्रामीण अंचल की घटनाओं और पात्रों से जुड़ी लघुकथाएँ सामान्य भाषा में उतनी प्रभावी नहीं लगतीं—यह कथन अंशत: ही सही है, पूर्णत: नहीं। श्रेष्ठ रचनाएँ अनुवाद के जरिए ही विश्वभर में पढ़ी जाती हैं और कोई भी अनुवादक स्रोत अंचल की भाषा को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में प्रस्तुत नहीं कर सकता, उसे वह ध्येय भाषा के ही प्रचलित शब्दों में प्रस्तुत करता है, उसके आंचलिक शब्दों में नहीं। उदाहरण के लिए, मालवी बोली में, पंजाबी भाषा में लिखे/बोले गये संवादों का अंग्रेजी में अनुवाद अंग्रेजी शब्दों के माध्यम से होगा, मालवी या पंजाबी शब्दों के माध्यम से नहीं। दूसरी बात, आंचलिक बोली और भाषा के संवादों का ‘रस’ उस अंचल की बोली/भाषा के जानकार को जितना मिलता है, गैर-जानकार को नहीं।
Suneel Verma  समूह के एडमिन होने के नाते बहुत बार हमें समूह में इस विधा में प्रयासरत नवागतों से लघुकथा के वास्तविक स्वरूप पर चर्चा करनी होती है|
लघु कहानी और लघुकथा में फर्क पर आपका दृष्टिकोण जानना चाहूँगा..क्योंकि इन दिनों सिर्फ कथानक की रोचकता को केन्द्र में रखकर बहुत कुछ कहानी जैसा 'कम शब्दों में' लिखकर उसे लघुकथा का नाम दिया जा रहा है|
Balram Agarwal : ‘लघुकथा’ और ‘कहानी’ में जो अन्तर है; वही अन्तर ‘लघुकथा’ और उस रचना में है जिसे आप ‘लघु कहानी’ रेखांकित कर रहे हैं। मैं आपके इस कथन से सहमत हूँ कि बहुत-सी रचनाएँ कम शब्दों में लिखी कहानी ही सामने आ रही हैं। ‘लघुकथा’ जिस वर्णनात्मकता का निषेध करती है, उसमें वह निषिद्ध नहीं रहती, यही मुख्य अन्तर है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश आप शीर्षक का चुनाव कैसे करते हैं ? ये लघुकथा के कथातत्व से सम्बंधित होता है या अन्य पर ?
Balram Agarwal अधिकतर तो यह लघुकथा की अन्तर्वस्तु पर केन्द्रित होता है।
Neeta Saini शीर्षक चुनाव भी लघुकथा की रोचकता बढ़ाता है । लेकिन यह समस्या मेरी भी है ।
नेहा नाहटा पहला प्रश्न--सभी कहते हैं रचना को लिखकर भूल जाएं, खूब वक्त दे, फिर पोस्ट करें। इससे दो बातें निकल कर आती है, प्रतियोगिता में समय सीमा होने से ‘चट लिखो पट डालो’ वाली स्थिति आ जाती है। दूसरा, कोई रचना एक बार में ही सटीक लिखी जाती है, सबकी तारीफ मिलती है जबकि कोई एक रचना दसों बार सुधार के बाद भी संतुष्टि नही देती है।  2 .. आसपास या हमारे अपने बीच से घटित किस्सा या घटना पर हम लघुकथा लिखते है, बस उसमे थोड़ा काल्पनिक मसाला डालकर। फिर उसे यह कहकर नकार दिया जाता है कि सत्य घटना है यह तो मात्र या इससे समाज को गलत मेसेज जायेगा।  और जब विसंगति पर लिखते है तो कहा जाता है अंत पोसिटिव हो। लेकिन कई विसंगतिया नेगेटिव रिजल्ट भी तो देती है ।
Balram Agarwal नेहा जी, ‘चट लिखो, पट डालो’ की स्थिति तक पहुँचने के लिए एक लघुकथाकार को कितनी साधना की जरूरत है आप अच्छी तरह समझ सकती हैं। ‘सबकी तारीफ मिल जाना’ आपकी नजर में लघुकथा की उत्कृष्टता का पैमाना है, तारीफ न मिलने पर आप रचना को सुधारने बैठ जाती हैं यानी रचना के बारे में अपने विवेक का प्रयोग आप नहीं कर रही हैं। वस्तुत; हमें यह भी जरूर देखना चाहिए कि तारीफ करने वालों का आलोचकीय-विवेक और स्तर क्या है। 2- सपाट लेखन करेंगी तो अधिकतर स्थिति यह होगी कि रचना नकार दी जाएगी। पाठक कथा पढ़ने के लिए आपकी रचना को उठाता है, खबर पढ़न के लिए नहीं। लघुकथा का अंत नेगेटिव हो या पॉजिटिव, उसकी स्थापना नैगेटिव नहीं होनी चाहिए। शहर के बीच अगर किसी की हत्या हो जाए तो आप व्यवस्था के निकम्मेपन पर सवाल उठा सकती हैं; लेकिन अगले ही पल आपको पता चले कि मरने वाला आतंकवादी था तो व्यवस्था के खिलाफ आपका मन्तव्य बदल जाएगा। बस, इसी के मद्देनजर तय कीजिए कि आपको किस तरह लिखना है यानी लघुकथा का आदि, मध्य, अन्त कैसा रखना है।
Rupendra Raj लघुकथा बहुत दुविधा के दौर से गुज़र रही है। जो मानक तय हैं उन्हें बहुत कम लोग जानते हैं। जब किसी अन्य गैर लघुकथा मंच अथवा पटल पर (आनलाइन) एक लघुकथाकार अपनी कथा प्रेषित करता है तो उसे ऐसे समीक्षकों की समीक्षा से गुजरना होता है जिन्हें इस विधा का ज़रा भी ज्ञान नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में उन्हें विधा का ज्ञान देना कितना उचित है? पता नहीं ये प्रश्न कितना सार्थक है किन्तु ऐसी समस्या से हमें दो चार होना पड़ता है, उस स्थिति में बाज़दफ़ा मनोबल भी गिरता है।
Balram Agarwal जब आप यह जानती या महसूस करती हैं कि उक्त टिप्पणीकार/'समीक्षक को इस विधा का जरा भी ज्ञान नहीं है', तब उससे विचलित ही क्यों होती हैं? आगे यह आपको स्वयं तय करना है कि आपने कलम लघुकथा लिखने के लिए उठाई है या 'विधा का ज्ञान' देने के लिए।
Usha Bhadauria Actually, ऐसे लोग समीक्षक नहीं सिर्फ पाठक ही होते हैं ..जो सिर्फ रचना पढ़कर.. सिर्फ विषय के आधार पर अपनी टिपण्णी करते हैं ...विचलित क्या ..उनको विधा का ज्ञान भी देने को आवश्यकता नहीं ....
Balram Agarwal जब आप यह जानती या महसूस करती हैं कि उक्त टिप्पणीकार/'समीक्षक को इस विधा का जरा भी ज्ञान नहीं है', तब उससे विचलित ही क्यों होती हैं? आगे यह आपको स्वयं तय करना है कि आपने कलम लघुकथा लिखने के लिए उठाई है या 'विधा का ज्ञान' देने के लिए।
Rupendra Raj लघुकथा लिखने के लिए ही आदरणीय, किंतु हम इस विधा का हर संभव प्रचार भी चाहते हैं, और यह भी कि इसे भी गद्य की अन्य विधाओं के जैसा प्रतिसाद मिले।
Balram Agarwal मुझे लगता है कि रचना-लेखन में पारंगत लोगों को रचनाशीलता पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए। आलोचना की प्रकृति भावपरक नहीं है और वह रचनात्मक मानसिकता के विकास से अलग है। आलोचना में उतरकर कथाकार रचनारत अक्सर नहीं रह पाता, बहसों में ही उलझकर रह जाने का खतरा बन जाता है। इसलिए बजाय लघुकथा का हित होने के आप अनायास ही अपने रूप में उससे एक लेखक कम कर देने का अपराध कर सकते हैं।
Kanta Roy  बिलकुल सही! हम सबके लिए प्राथमिकता सिर्फ लेखन होना चाहिए।
Rupendra Raj इसका अर्थ यह भी निकलता है आदरणीय कि जिस प्रकार के पाठक हों, उन्हें वैसा ही साहित्य परोसें। हम केवल सीमित दायरे में रह जाएं?
Kanta Roy  नहीं, इसका मतलब यह है कि हम अपनी समझ के अनुसार सदा बेहतरी के लिए प्रयास करें। कोई और जाने ना जाने, चूंकि हम जानते हैं कि हमारे लिए कि हम क्या हैं और क्या हो सकतें हैं, इसलिए दूसरों की परवाह किए बगैर अपने कर्म के प्रति सचेत रहना जरूरी है।
Balram Agarwal सामान्य पाठक नहीं जानता कि उसे क्या पढ़ना चाहिए। उसकी इस अबोधता का लाभ व्यवसायिक लेखक और प्रकाशक बखूबी उठाते हैं। प्रबुद्ध लेखक वह है जो पाठक की रुचि को परिष्कृत करने की मुहिम चलाता है। कहानी के क्षेत्र में यह काम प्रेमचंद ने किया। ‘चन्द्रकांता’, ‘चन्द्रकांता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ की धारा को उन्होंने जनोपयोगी बनाया, लोगों में लूट, अन्याय, अत्याचार और अंधविश्वास आदि के खिलाफ सोचने का बीज बोया।
Sheikh Shahzad Usmani फिर फेसबुक पर सीखने सिखाने की प्रक्रिया कैसे चल सकेगी???
Kanta Roy  जितना प्राप्य है उसमें से नहीं सीखा जिसने, उसको आगे भी नहीं सीखा सकता है कोई।
Savita Gupta  विधा के विकास के लिए प्रयोग किये जाने को कहा जाता रहा है। इस विधा में कुछ लेखक एक पंक्तिय लघुकथा, काव्यात्मक लघुकथा, अमूर्त शिल्प की पैरवी करते हैं। कहानी में भी अनेकोनेक प्रयोग और आंदोलन चले जिनमें से अधिकतर हास्यास्पद हो कर अल्पजीवी हो कर भुला दिए गए। प्रश्न है - लघुकथा के मानकों पर ही जब मतैक्य में भ्रम है, ऐसे में प्रयोग की सीमाएं और दिशा क्या रहे ?
Rupendra Raj सविता जी आपका प्रश्न मेरे प्रश्न का भी समर्थन कर रहा है।
Subhash Neerav सविता का प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसका जवाब भी दिया जाना चाहिए।
Balram Agarwal विधा के विकास के लिए प्रयोग; और सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग—ये दो अलग बातें हैं। सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग विधा को कभी भी ऊँचाई प्रदान नहीं कर सकते। अणुकथा और लप्रेक आदि के रूप में ये होते रहे हैं, आगे ही होते रहेंगे। प्रयोगशीलता अपनाने का मतलब अराजक हो जाना नहीं है। लघुकथा कथा-साहित्य की विकासशील विधा है, कोई प्रयोगशाला नहीं है। कहानी के आंदोलनों का आपने हवाला दिया जो उचित ही है; लेकिन लघुकथा की स्थिति कहानी जैसी सुदृढ़ अभी नहीं है। लघुकथा के मानकों पर मतैक्य न होने के बावजूद लघुकथा-विचारकों के बीच अराजक स्थिति नहीं है। स्कूल अलग-अलग अवश्य हैं, उद्देश्य अलग नहीं हैं। लघुकथा का पाठक-वर्ग इतना सजग और विवेकशील है कि समय और साहित्य के सरोकारों से इतर रचना को घोर प्रचार के बावजूद भी नकार देता है। लघुकथा में प्रयोग की कोई सीमा मैं नहीं मानता; हाँ, ‘दिशा क्या रहे’ के उत्तर में कहना चाहूँगा कि वे अपने समय की प्रवृत्तियों से भिन्न न हों, भिन्न हों तो पतनशील न हों।
Beena Sharma आदरणीय क्या एक ही शीर्षक से अन्य लघुकथा लिखी जा सकती है
Balram Agarwal मंत्र शीर्षक से प्रेमचंद की दो कहानियाँ है, दो कहानियाँ परिक्षा शीर्षक से हैं। अशोक भाटिया ने एक ही शीर्षक से पाँच, सात, दस लघुकथाएँ लिखी हैं। उसके बावजूद, मेरा मानना है कि हर लघुकथा को अलग शीर्षक दिया जाए। हम नौ भाई-बहन हैं और सभी के नाम पिताजी-माताजी ने अलग-अलग रखे हैं। एलिजाबेथ-प्रथम, एलिजाबेथ-द्वितीय, एलिजाबेथ-तृतीय जैसी परम्परा भारत में नहीं है।
Neeta Saini आपकी लघुकथा और मेरी लघुकथा का शीर्षक एक हो सकता है ? क्योंकि सबकी रचनाओं के शीर्षक तो हमे याद नहीं रहते ।
Kunal Sharma चित्र आधारित या विषय आधारित लघुकथाएं लघुकथाकारों या लघुकथा पर किस हद तक सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव छोड़ रही है सर ?
Balram Agarwal अभ्यास के लिए बुरा क्या है
Arvina Gahlot चित्र से एक खाका खिच जाता है लिखना आसान हो जाता है
Sheikh Shahzad Usmani मुझे तो बहुत सुविधा होती है चित्र से । शीर्षक पढ़कर कथानक नहीं सूझते!!
Kshama Sisodia सर, लघुकथा की आवश्यकता हो तो कथा में काव्य का सम्मिश्रण किया जा सकता है ?
2- किसी शीर्षक पर जब कथाकार कथा लिखता/लिखती है तो कथा में शीर्षक का अर्थ आना ही चाहिए ,तभी वह सही अर्थ रखता हुआ सही कथा की श्रेणी में आएगा न ?
Balram Agarwal 1- कथा में काव्य का नगण्य उपयोग होना चाहिए, काव्य-तत्वों का उपयोग उस नगण्य से थोड़ा ज्यादा, इतना कि वह कथा पर हावी न हो जाए, कर सकते हैं, करना चाहिए। 2- तात्विक दृष्टि से शीर्षक कथावस्तु का प्रतिनिधित्व करता है।
Sheikh Shahzad Usmani मैंने ऐसी रचना कहने का अभ्यास किया था। आपकी राय चाहूंगा।
Janki Wahie आ.सर जी , मेरा प्रश्न है कि दृश्य-चित्रण की लघुकथा में कितनी उपयोगिता है और हम कैसे दृश्य चित्रण के साथ साथ लघुकथा का आकार भी संक्षिप्त रख सकते हैं।
Balram Agarwal सवाल के पिछले हिस्से का जवाब पहले, शुरू के हिस्से का बाद में दे रहा हूँ__मेरी अधिकतर लघुकथाओं का आकार संक्षिप्त नहीं है, फिर भी मुझे क्यों लघुकथाकार माना जाता है, यह बात मेरी समझ से बाहर है। अब, शुरू का हिस्सा--दृश्य-चित्रण हर कथा-विधा की जान है।
Janki Wahie हार्दिक आभार सर जी, महत्वपूर्ण जिज्ञासा शांत हुई।
Janki Wahie और एक राह भी मिली।
Janki Wahie सर जी, सर, समाचार पत्र में साथी लघुकथाकारों की कथा देख उत्साहित हो हमने भी भेज दीं, किन्तु सम्पादक महोदय ने डेढ़ पृष्ठ का आकार देख बिना पढ़े ही निरस्त कर दी ।इस लिए आकार का प्रश्न मन में उठा।
Usha Bhadauria एक प्रश्न जो बहुत दिनों से मेरे मन में हैं ...क्या लघुकथा लेखन को as a career option चुना जा सकता है ? अगर हाँ तो कैसे ?
Balram Agarwal अगर आपको ऐसे व्यवसायिक संसाधन, जो कथा के बदले धन दे सकें, उपलब्ध हैं तो अवश्य चुना जा सकता है।
Uday Shri Tamhane आदरणीय अग्रवाल जी नमस्कार ! लघुकथा मे यदि पात्रो के नाम के अलावा, शहर, बाजार आदि के नाम भी अंकित किए गए तो उससे लघुकथा कितनीऔर कैसे प्रभावित होगी ?
Balram Agarwal भाई ताम्हणे जी, आपका सवाल नि;सन्देह उपयोगी है। मैं बहुत-सी ऐसी लघुकथाएँ पढ़ता हूँ जिसमें पात्र का नाम यों लिखा जाता है--''उसने अपने बेटे अंशुल से कहा।'' या ''अपनी बहू रंजिता से वह बोला…'' आदि। ऐसी लघुकथाओं में यदि 'अंशुल' या 'रंजिता' किसी सन्दर्भ-विशेष को प्रभावित करने वाले हों तो ठीक, अन्यथा मात्र 'अपने बेटे' या 'अपनी बहू' लिखकर ही कथ्य को आगे क्यों न बढ़ाया जाए।
Uday Shri Tamhane जी ! आभार !
Subhash Neerav बलराम यार, उदय श्री पूछ रहे हैं कि लघुकथा मे यदि पात्रो के नाम के अलावा, शहर, बाजार आदि के नाम भी अंकित किए गए तो उससे लघुकथा कितनी और कैसे प्रभावित होगी ?
Balram Agarwal लघुकथा में निष्प्रयोजन कुछ नहीं होता, इस तथ्य को सभी लघुकथा-आलोचक स्वीकारते हैं। रचना में शहर का, बाजार का नाम रचना की वस्तुस्थिति के किस प्रयोजन को सिद्ध करता है, यह देखना होगा। कई बार पात्र का, स्थान का चरित्र रचना में नकारात्मक प्रभाव देने वाला होता है। मान लीजिए ‘उस नगर के सभी लोग अंधे हैं’ में कथाकार भावना-विशेष के वशीभूत उक्त नगर का नाम भी लिख देता है तो सार्वजनिक रूप से यह एक आरोप नहीं कहलाएगा, जब तक कि कथाकार उसे ‘व्यंजना’ न सिद्ध कर दे। व्यक्तियों के, जातियों के, स्थानों के नाम सप्रयोजन ही प्रयुक्त होने चाहिए।
Uday Shri Tamhane 'खईके पान बनारस वालाछोरा गंगा किनारे वाला' ऐसे प्रयोग लघुकथा मे भी होना चाहिए ?
Balram Agarwal विषयानुरूप हर प्रयोग किया जा सकता है, किया जाना चाहिए।
Rahila Asif आदरणीय सर जी!,मेरा प्रश्न ये है कि यदि लघुकथा को कसने के फेर में उसकी रोचकता खत्म हो रही हो, लेकिन बात पूरी हो रही हो तो क्या करना चाहिए?
Balram Agarwal वीणा के तारों को, तबले या ढोलक की डोरियों को उनमें स्वर की तीव्रता और तीक्ष्णता को बल देने की दृष्टि से कसा जाता है, कसने के क्रम में उन्हें तोड़ डालने से लय-ताल आदि का उद्देश्य कैसे पूरा होगा।
Subhash Neerav बहुत बढ़िया जवाब !
Sumit Kumar लघुकथा का उद्देश्य क्या है बलराम जी यथार्थवाद पर ही चलना या सत्य को उजागर करना ?
Balram Agarwal 'सत्य' हर व्यक्ति, हर समुदाय का भिन्न है। कुछ सत्य ऐसे हैं जिनका उद्घाटन करने को खतरा उठाना कह सकते हैं। इस बारे में आप ऊपर भाई कपिल शास्त्री को दिया मेरा जवाब देख सकते हैं। यही हाल 'यथार्थ' का भी है। मेरी दृष्टि में लेखन के केन्द्र में "मानवीयता" रहनी चाहिए और उसका निर्वाह दायित्व और साहस के साथ किया जाना चाहिए।
Kanak K. Harlalka आदरणीय , क्या लघु कथा की कथावस्तु सामाजिक विसंगतियों का आधार लेकर ही चलनी चाहिए ।क्या मनोवैज्ञानिक , दार्शनिक, आधात्मिक ,बोधात्मक आधार वाली कथावस्तु लघुकथा का कथानक नहीं बन सकतीं ?
Balram Agarwal सामाजिक विसंगतियाँ ही तो आपको लिखने के प्रेरित करती हैं। आधार कुछ भी लिया जा सकता है अपने युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुरूप।
Usha Bhadauria अपवादों पर लिखना कहाँ तक उचित है क्योंकि ऐसे विषयों पर पाठक अचानक से भड़क उठते हैं ..पर अपवाद भी तो लोगों के सामने आने ही चाहिए ...
Balram Agarwal अगर आप शिद्दत से यह महसूस करती हैं कि 'अपवाद भी तो लोगों के समाने आने ही चाहिए' तो लोगों के भड़क उठने के खतरे से तो टकराना ही होगा। या फिर चुप हो बैठे रहिए--'आँसू न बहा फरियाद न कर' की तर्ज पर।
Usha Bhadauria अरे नहीं सर...हम तो लिख ही देते हैं जो हमे लिखना होता है ...नो आँसू...
Sumit Kumar पोर्नोग्राफी से हिन्दी लेखक बचते हैं वरिष्ठ लेखक ऐसा न करने की सलाह देते हैं उन सब की यह सलाह क्या यह साहित्य के हक में हैं ?
Balram Agarwal क्या पोर्नोग्राफी हमारे समाज और समय की मूल चिंता है।
Sumit Kumar नहीं ! समस्या है मन मस्तिष्क में उठे विचारों के परिपक्वता की । बहुत सी कामयाब रचनाओं को बस इसलिए नोक पर रखा है क्योंकि उनमें प्रयुक्त शब्द आम तो हैं मगर झिंझौड़ने वाले हैं । ऐसा क्यों ?
Balram Agarwal कथ्य की गहनता भी देखनी होती है।
Sumit Kumar गहनता तो बनती है न सर । मैंने कहा कामयाब रचनाएँ ।
Balram Agarwal भाई, 'गहनता' यौनावेग की बनती है या विचार की। 'परिपक्वता' के आपके अर्थ अलग हैं, मेरे अलग। दूसरे, किसी कामयाब रचना का नाम बताएं तो आगे विचार हो।
Sumit Kumar मंटो मेरे प्रिय लघुकथाकार हैं । कुछ (साहित्यिक पुरोधाओं) के लिए फुहड़ बदतमीज आदमी । अब क्या कहें ? मैं तो उनको चुन चुका ।
Balram Agarwal  मंटो की किस लघुकथा में आपने पोर्न पढ़ा
Sumit Kumar मसलन 'नंगी आवाजें' और 'ऊपर नीचे और दरमियाँ' और भी हैं । मैं नहीं कहता वह विवरण बुरा है, मगर कुछ के लिए धर्म भ्रष्ट करने वाला सामान भर ।
Balram Agarwal  ये मंटो की लघुकथाएं नहीं कहानियाँ हैं।
Kapil Bhardwaj एक प्रश्न छोटा सा....गर मंटो सबका ही प्रिय लघुकथाकार है तो फिर 50 साल बाद भी दूसरा मंटो पैदा क्यों नहीं हुआ ? या मंटो जैसा।
Balram Agarwal दूसरा 'राम' पैदा हुआ, 'कृष्ण’, 'महावीर' कौन पैदा हुआ। हर बार नए रूप में जन्म होता है, दोहराव नहीं होता। कहा भी गया है न—हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
Sumit Kumar लघुकथा की सही सही शब्दसीमा बताएँ । मैंने बहुत बड़ी बड़ी लघुकथाएँ देखी हैं ।
Balram Agarwal मैंने कभी शब्दसीमा का ध्यान नहीं रखा, सिर्फ यह विचार किया कि जिस संवेदन-बिंदु को मैंने कथ्य बनाया है, वह कागज पर कब पूर्णता पाता है।
Sumit Kumar आप एक समृद्ध लेखक हैं । बात नवलेखकों की है जी जिन्हें बार बार नियम बताए जाते हैं ।
Subhash Neerav नये को भी शब्द सीमा की परवाह नहीं करनी चाहिए। रचना को अपना आकार लेने देना चाहिए।
Usha Bhadauria कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर गम्भीरता से लिखने पर भी, पढ़ने पर वे सिर्फ मज़ाक / जोक से लगते हैं.. बहुत सारे लोगों ने लिखा है व लिखते हैं नारी उत्पीड़न , पत्नी को टॉर्चर करते हुए ।
पर जब एक पति को इसी रूप में दिखाते हैं तो वो उतना सीरियस नहीं बन पाता। एक जोक सा हो जाता है ... फिर महिलाओ पर तो लोग खूब लिखते हैं तो पुरुषों पर क्यों स्वीकार नहीं कर पाते?
Balram Agarwal वर्जनाओं से समाज में स्त्री, निर्धन और अस्पृश्य को गुजरना ही पड़ता है। इन वर्जनाओं के खिलाफ ही तो साहित्यकार खड़ा होता है। देखना सिर्फ यह है कि कोई साहित्यकार दुर्भावनावश या शक्ति के मद में चूर होकर स्त्री, निर्धन और अस्पृश्य के खिलाफ ही तो कलम उठाकर खड़ा नहीं हो गया है। हमारी दृष्टि ऐसे छद्म लेखक पर सदा बनी रहनी चाहिए। प्रगति के नाम पर द्वेष और दमन फैलाने की इजाजत किसी को नहीं मिलनी चाहिए।
Poonam Dogra कभी कभी कोई लघुकथा शुरू किसी और तरह से होती है परन्तु अंत तक आते आते बदल जाती है. लघुकथा का प्रारम्भ और अंत में 'कुछ' अलगाव सा हो जाता है परन्तु लेखक को लगता है अपने भाव प्रदर्शित करने के लिए ऊपर वाला हिस्सा भी निहायत आवश्यक है, परन्तु पाठक की दृष्टि इस भटकाव को पकड़ लेती है. इस लोभ से बचने का कोई मंत्र बताइये.
Balram Agarwal केवल एक मंत्र है---रचना को तुरन्त प्रकाशित कराने के लोभ से बचें। कुछ दिनों के लिए उठाकर रख दें, इतने दिनों के लिए कि उसे भूल ही जाएँ, उससे अलग किसी अन्य रचना पर काम करने लगें। ऐसा करने से उस रचना के पूर्व प्रभाव से लेखक बाहर आ जाएगा और नए सिरे से सोच पाएगा। लघुकथा में कथ्य की, विषय की और पात्र के चरित्र की एकान्विति को मैं आवश्यक मानता हूँ।
Poonam Dogra  एकान्विति ?
Balram Agarwal दूसरे शब्दों में कथ्य की एकसूत्रता ही मान लीजिए।
Sheikh Shahzad Usmani सवाल (व मेरा भी यही सवाल) के जवाब में आप के दिये उत्तर से हमारे अनुभव सदैव सहमत नहीं होते। कुछ दिनों का अंतराल देने पर उस रचना की मूलभूत परिकल्पना/ मूड/भाव जा चुका होता है या उसमें मेहनत करने में रुचि कम हो जाती है मुझे।
Balram Agarwal शहजाद, मेरे भाई, वस्तु-प्रेषण… आसान शब्दों में समझिए कि जो बात आप लघुकथा के जरिए कहना चाहते हैं वह, जब तक रचना में मुकम्मल नहीं आ जाएगा, लेखक को बेचैन किए रखेगा। मूड या भाव के चले जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। रचना तो अपनी औलाद-जैसी होती है, उस पर मेहनत करने में किसी भी माँ-बाप की रुचि कम कैसे हो सकती है।
Poonam Dogra लघुकथा शिक्षाप्रद अर्थात उपदेशात्मक होनी चाहिए या किसी भी विसंगति की ओर सिर्फ संकेतात्मक. कई बार सुना है कि यह आपने क्यों लिखी, इसका क्या उद्देश्य था?
Balram Agarwal लघुकथा को मैं संकेत की सफल विधा मानता हूँ। संकेत को लिखना ही नहीं, समझना भी कला है। खुद में इसका विकास करना चाहिए।
Poonam Dogra एक 'सार्थक' लघुकथा की परिभाषा क्या होगी ?
Sumit Kumar वाह।
Balram Agarwal पूनम जी, मैं परिभाषाएँ लिखने में विश्वास नहीं करता। लघुकथा के सम्बन्ध में मेरे वक्तव्यों से ही कोई परिभाषा निकलती हो तो देखें।
Sumit Kumar बार बार प्रयोग होने की वजह कुछ शब्द मात्र शब्द रह गए हैं जो कि हादसा होते हैं मसलन बलात्कार कत्ल खून आदि । इनके पीछे की संवेदना विलुप्तप्राय है । क्या मैं इसे लेखक के फैलियर समझूँ ? या पाठक की संवेदनहीनता ?
Balram Agarwal मैं आपके इस सवाल को शायद समझ नहीं पा रहा हूँ इसलिए सहमति नहीं बन पा रही। प्रेम के, श्रद्धा के, ममता और स्नेह के पीछे की संवेदना नहीं मरी तो इनके पीछे की संवेदना कैसे मर सकती है।
सीमा भाटिया आदरणीय, अब बहुत से लोग लेखन से जुड़े हैं सोशल मीडिया के प्रचार प्रसार के कारण। अब कई बार दो रचनाकारों की लघुकथा का विषय अकस्मात काफी मिलता जुलता हो सकता, क्योंकि ये विषय हमारे आसपास के परिवेश या समाज से ही सम्बंधित रहते। तो जब टिप्पणी आती है तो आमतौर से सुनने को मिलता कि इस विषय पर तो म़ै लिख चुका/ चुकी। जो रचनाकार अपनी तरफ से नवीनतम विषय पर ही लिख रहा होता, ऐसी बातों से हतोत्साहित भी होते। नवीनतम विषयों की तलाश निस्संदेह रहती है सबको, पर फिर भी सामाजिक विषमताएं या पारिवारिक मुद्दे तो सदैव रहते दिमाग में कहीं न कहीं। ऐसे में और नवीन विषयो़ का चयन कैसे किया जाए?
Balram Agarwal सिर्फ लेखन से जुड़ा रहकर कोई बेहतर लेखन कर सकता है, मेरी बुद्धि को स्वीकार नहीं है। उच्च स्तरीय अध्ययन से जुड़े बिना कोई भी व्यक्ति उच्च स्तरीय लेखन नहीं कर सकता, ऐसी मेरी धारणा है, जो गलत भी हो सकती है। ऊपर एक प्रश्न के जवाब में मैंने लिखा है कि नवीन प्रस्तुतियाँ पुराने विषयों में नवीनता भर देती हैं। जो व्यक्ति यह कहता है कि अमुक विषय पर तो उसने काफी पहले लिख दिया था, उसमें आपको, यदि आप विचलित होते हैं तो, देखना मात्र यह है कि दोनों की प्रस्तुति में बेहतर कौन है--वह या आप। अपने आप को बेहतर बनाए रखने के प्रयास जारी रखिए, बस।
सीमा भाटिया सहमत हूँ आदरणीय, बेशक अध्ययन आवश्यक है सुधार के लिए, फिर भी कितना कुछ छूट जाता है पढ़ने से। 
Sheikh Shahzad Usmani पड़ाव/पड़ताल व अन्य लघुकथा संग्रह/संकलनों में विभिन्न शैलियों में कही गई लघुकथाओं की शैली का अनुकरण करते हुए नवलेखक को लघुकथा लेखन अभ्यास करना चाहिए या नहीं और क्यों? क्या सीखते समय उस पर किसी को शैली के अनुकरण का आरोप लग सकता है/लगाया जाना चाहिए। जब तक कि वह नवलेखक कुछ प्रयोग/अभ्यास करते हुए अपनी स्वयं की शैली समझ/विकसित न कर ले???
Balram Agarwal सब किसी न किसी शैली का अनुकरण ही कर रहे हैं। नई शैली कहाँ से आएगी???
Anagha Joglekar मेरा एक प्रश्न और है। हमेशा लिखने से पहले पढ़ने पर जोर दिया जाता है जो लाज़मी भी है । जब हम बहुत सारा पढ़ते हैं तो उनमे से किसी 1 या 2 की शैली सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। ऐसे में अपनी कथा या कहानी पर उस विशेष शैली की छाप न पड़े उसके लिए क्या करना चाहिए?
Balram Agarwal लिखते-लिखते रचनाकार की अपनी शैली का विकास हो जाता है।
Poonam Jha मेरा एक सवाल है अक्सर इसतरह की लघुकथा पढने को मिलती है जिसमें छेड़-छाड़, बलात्कार और निजी संबंधों को बड़े ही खुले तरीके से लिखी होती है और ऐसी लघुकथा को खूब वाहवाही भी मिलती है | मैं ये जानना चाहती हूँ कि इसे बेबाकी की संज्ञा देकर अमर्यादित भाषा को बढ़ावा नहीं देते ? क्या ये अश्लीलता में नहीं आता ? कृपया मेरे सवाल का जवाब देने का कष्ट करें |
Balram Agarwal पूनम जी, साहित्य लेखन में किसी भी विषय को अछूत नहीं माना जाता। हाँ, भाषा और प्रस्तुति मर्यादित रहनी चाहिए। कोई वस्तु किसी को देते समय हम जिस-जिस तरह से कह सकते हैं, वे हैं--ले (यानी किसी को अपने से हेय मानकर) लो (थोड़ा लिहाज करते हुए, इसमें बड़ा अथवा अभिजात्य होने का अहंकार भी शामिल है); लीजिए (इसे सम्मानपूर्वक देना कह सकते हैं) ; ग्रहण कीजिए (इसमें सम्मान के साथ-साथ श्रद्धा भी शामिल है)।