हिन्दी लघुकथा के अनेक सवालों का जवाब देने की एक कोशिश
Wednesday, 23 December 2015
Sunday, 20 December 2015
पृथ्वीराज अरोड़ा को याद करते हुए--बलराम अग्रवाल
पृथ्वीराज अरोड़ा |
10 अक्टूबर, 1939 को पाकिस्तान के बुचेकी (ननकाना साहिब) में जन्मे, हिन्दी लघुकथा के महत्वपूर्ण स्तम्भों
में से एक आ॰ पृथ्वीराज अरोड़ा आज 20 दिसम्बर, 2015 को दोपहर 11:40
बजे
अपनी नश्वर देह को त्यागकर अनन्त में जा मिले। वे गत लगभग 3 साल से
शारीरिक-मानसिक अक्षमता से जूझ रहे थे। उनका इस तरह अक्षम हो जाना हिन्दी लघुकथा
की अपूरणीय क्षति थी। उनसे मेरी अन्तिम बातचीत सम्भवत: अक्टूबर 2012 में
उस समय हुई थी, जब मैं 'अविराम
साहित्यिकी' के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित करने हेतु
वरिष्ठ लघुकथा लेखकों से उनकी 'लघुकथा यात्रा' पाने का निवेदन
कर रहा था। अरोड़ा जी ने उस समय मुझे बताया था कि उनके डॉक्टर ने उन्हें कोई भी ऐसा
काम करने से मना किया है जिसे करने में उन्हें मानसिक श्रम करना पड़े; इसलिए
मैं तुम्हारा यह काम करने में असमर्थ हूँ। मैंने उनसे कहा--कोई बात नहीं। मैं
स्वयं आपके पास रिकॉर्डर लेकर आ जाऊँगा, आप बोलते रहना, बस। लेकिन
उन्होंने इस काम में भी अपनी असमर्थता साफ-साफ व्यक्त कर दी थी। और इस तरह,
हिन्दी
लघुकथा की शुरुआत का एक हिस्सा हम-सब के हाथ आने से रह गया, एक ऐसा हिस्सा
जो जीवंत इतिहास था। उस हिस्से की महत्वपूर्ण कड़ी, रमेश बतरा बहुत
पहले जा चुके थे। लेकिन उस दौर की कुछ महत्वपूर्ण कड़ियाँ अभी भी हमारे पास उपलब्ध
हैं, बशर्ते वो इस ओर श्रम करना जरूरी समझें--कमलेश भारतीय और सिमर सदोष और महावीर प्रसाद जैन। यद्यपि इन सभी ने अपनी-अपनी लघुकथा यात्रा 'अविराम साहित्यिकी' को उपलब्ध करा दी थी, तथापि, मैं समझता हूँ कि उसका बहुत-सा हिस्सा अभी भी लिखना बाकी है।
पृथ्वीराज अरोड़ा की रचनाओं के तीन संग्रह मेरे पास हैं--1 तीन न तेरह (1997, लघुकथा संग्रह) 2 पूजा (2003, कहानी संग्रह) तथा 3 आओ इंसान बनाएँ (2007, लघुकथा संग्रह)। इनके अलावा 'प्यासे पंछी' नाम की एक औपन्यासिक कृति का भी उल्लेख 'आओ इंसान बनाएँ' के पिछले कवर पृष्ठ पर किया है; लेकिन वह मेरे पास नहीं है।
पृथ्वीराज अरोड़ा जी से मेरी मुलाकातों का
सिलसिला बहुत बाद में शुरू हुआ—रमेश बतरा के निधन के बाद। रमेश बतरा के निधन से
पृथ्वीराज अरोड़ा बेहद आहत थे। दिल्ली में सम्पन्न रमेश बतरा की लगभग हर शोक सभा
में वे सम्मिलित हुए, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की, दु;ख में डूबे।
उनकी-मेरी मुलाकातें उनके दिल्ली
प्रवास के दौरान अनगिनत हुईं। उन्हें जब भी मौका मिलता, वे कश्मीरी गेट स्थित
दिल्ली जी॰पी॰ओ॰ की मेरी शाखा में आ बैठते थे। उनके कहानी संग्रह ‘पूजा’ (2003)
तथा लघुकथा संग्रह ‘आओ इंसान बनाएँ’ (2007) की रचनाएँ उन्होंने उसी दौर में लिखी
थीं। वे लघुकथा लिखकर लाते और मेरी शाखा में आकर उसके कथ्य के बारे में विमर्श
करते। उन दिनों मैं उनके अधिकतर कथ्यों से अपने आप को लगभग असहमत पाता था, लेकिन
वे विचलित नहीं होते थे। मेरे तर्कों से प्रभावित भी नहीं होते थे। मैं उनकी
लघुकथाओं का प्रशंसक था, इस बात से वे परिचित थे; और शायद अचम्भित होते थे कि मैं
उनके नवीन कथ्यों से असहमति क्यों जताता हूँ! मैं उन दिनों प्रेमचंद की उन लघु-आकारीय
कहानियों पर, जिन्हें लगातार ‘लघुकथा’ शीर्ष तले छापा जा रहा था, विमर्श आयोजित
कर रहा था। वे मेरे पास आकर बैठे तो उनसे भी सवाल कर दिया। बोले, ‘लघुकथा का कोई
विधान ही जब तय नहीं है बलराम भाई, तब आप किस आधार पर लघुकथापरक विचार आमन्त्रित
कर सकते हैं!’ मैं उनकी इस दलील से भी सहमत नहीं था। बहुत तर्क-वितर्क होता, लेकिन
वे आदतन गड़ा हुआ खूँटा पकड़े रहते। जो भी हो, मैंने उनसे कहा, ‘आप अपने इन्हीं
विचारों को लिखकर मुझे दीजिए, मैं इसी रूप में इन्हें छापूँगा।’ उन्होंने नि;संकोच
उन्हें लिखकर दिया और उन्हें पहले मैंने ‘द्वीप लहरी’ (2006) में तथा बाद में “समकालीन
लघुकथा और प्रेमचंद” शीर्षक पुस्तक में संकलित किया। यह सब लिखने का आशय सिर्फ यह
है कि लघुकथा संबंधी अपने विचार को वे अन्तिम मानकर चलते थे और उनमें सुधार की
गुंजाइश को अस्वीकार करते थे। उनका यही रूप हमने ‘मिन्नी’ द्वारा करनाल में आयोजित
अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन में भी उस समय देखा था जब वे लघुकथा में “कालदोष”
संबंधी अपनी अवधारणा को लेकर अड़ गये थे। यह ‘अड़ जाना’ उनके जुझारू व्यक्तित्व का
वह हिस्सा था जिसे उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की कर्मचारी यूनियन का
सक्रिय नेता रहते परिपक्व किया था।
वे बहुत-सी सामाजिक मान्यताओं के तो
बहुत-सी न्यायिक स्थापनाओं?निर्णयों से भी अपना विरोध दर्ज करते थे। वे सब विरोध
उनके लघुकथा-साहित्य में मौजूद हैं। उनके व्यक्तित्व का आकलन करने के लिए अब उनकी
रचनाएँ हमारे सामने हैं जो हू-ब-हू उनके व्यक्तित्व का आईना हैं, बिना किसी
बनावट के। उनकी सभी लघुकथाएँ उनके व्यक्तित्व को उनकी सम्पूर्णता में व्यक्त करने का दरवाज़ा हैं। उनकी सभी लघुकथाओं में उनका विद्रोही व्यक्तित्व झाँकता है, इसमें
सन्देह नहीं है। कल, 19-20 दिसम्बर की रात को मैंने उनके दोनों लघुकथा संग्रहों से कुछ लघुकथाओं का चुनाव किया था जो ये हैं--कील/पढ़ाई/दया/घर का ख्वाब/बेटी तो बेटी होती है/सरकार के द्वार/पल/अपनी अपनी सोच/एक गौरैया-सी/शाश्वत रिश्ता/योगाभ्यास/भूख/मिठास-भरा रिश्ता/युग-बोध/मेरा दर्द। अनुमान नहीं था कि अगले दिन ही मुझे उनके निधन की अप्रत्याशित सूचना को झेलना होगा।
कुल मिलाकर, वे बहुत प्यारे इंसान थे--हमेशा मुस्कुराते रहने वाले। जिन बातों का वे बुरा मान जाते थे, उन्हें भी दिल में नहीं रखते थे। याद रखते थे, सिर्फ दोस्ती। खूबसूरत इतने थे कि मैं जब भी उन्हें देखता, उनके रूप में मुझे कैनेडी की छाया नजर आती थी।
कुल मिलाकर, वे बहुत प्यारे इंसान थे--हमेशा मुस्कुराते रहने वाले। जिन बातों का वे बुरा मान जाते थे, उन्हें भी दिल में नहीं रखते थे। याद रखते थे, सिर्फ दोस्ती। खूबसूरत इतने थे कि मैं जब भी उन्हें देखता, उनके रूप में मुझे कैनेडी की छाया नजर आती थी।
एक बात और। रचनाओं से अलग अपने आप को
प्रदर्शित करने में वे काफी संकोची रहे। इस बात का प्रमाण उनके संग्रहों में दिया
गया उनका वह परिचय है जिनमें उन्होंने अपने जन्म की तारीख तक देना जरूरी नहीं
समझा…वह परिचय है जिसमें अपनी ताजातरीन फोटो देने की ओर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया।
बहरहाल, उनकी स्मृति को शत-शत नमन।
भावभीनी श्रृद्धांजलि।
Thursday, 29 October 2015
रुटीन विषय अब सामयिक नहीं रहे—सुभाष नीरव
कथाकार-अनुवादक सुभाष नीरव से डॉ (श्रीमती) नीरज शर्मा की बातचीत
कथा साहित्य
के बीच लघुकथा की
वर्तमान स्थिति, स्थान व उसके
उन्नयन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर
वरिष्ठ कथाकार
व पंजाबी-हिन्दी अनुवादक श्री सुभाष नीरव
जी से
वनिका पब्लिकेशन्स की वरिष्ठ संपादिका डॉ (श्रीमती) नीरज
शर्मा ने एक लम्बी बातचीत रिकॉर्ड की। यहाँ प्रस्तुत हैं उस वीडियो रिकॉर्डिंग के कुछ
महत्वपूर्ण अंश :
सुभाष नीरव |
डॉ॰ नीरज शर्मा |
नीरज शर्मा—नीरव जी, आठवें दशक को
लघुकथा का
स्वर्ण काल
कहा जाता
है। उस
काल की
तुलना में
आप आज
की लघुकथा
को कहाँ
खड़ा पाते
हैं?
सुभाष नीरव—मैं पाता हूँ
कि वर्तमान में जो लघुकथाएँ लिखी जा
रही हैं
वे अपने
नए समाज,
नए समय
के दबाव
के मद्देनज़र
लिखी जा
रही हैं।
जब समय
में बदलाव
आता है तब समाज और जीवन से जुड़े यथार्थ में
भी बदलाव
आता है।
पहले की तुलना में
यथार्थ अब
जटिल हुआ
है,
बल्कि जटिलतर होता जा
रहा है।
जब रचनाकार की हैसियत से मुठभेड़ जटिलतर होते जा रहे इस यथार्थ से
होती है,
तो हमारी
रचनाओं में
एक दबाव
होता है,
जो रचना
के आकार,
प्रकार, सोच, मंतव्य में
भी अंतर
लाता है।
आज के
हिसाब से
देखेंगी तो उस दौर
की लघुकथाओं
में से
आप कई
लघुकथाओं को
निकालकर बाहर कर देंगी।
आज की
विसंगतियाँ चुनौती
बनकर खड़ी
हैं हमारे
सामने। वैश्वीकरण,
भौगोलिक परिस्थितियाँ,
बाज़ारवाद, आर्थिक मंदी जैसे
भीमकाय विषयों
का दबाव
है आम
आदमी पर
व एक संवेदनशील लेखक
पर भी।
अब नए
विषय हैं
, रुटीन विषय
सामयिक नहीं रहे।
जटिल यथार्थ
को यदि
आप पुराने
फ्रेम में
कहना चाहेंगे
तो फ्रेम
छोटा पड़ेगा।
नीरज शर्मा—आपने
क्या प्रयोग
किए हैं
इन जटिल
विषयों को
लघुकथा में
ढालने सम्बन्धी…?
सुभाष नीरव—मेरी एक लघुकथा
है
–‘मकड़ी’ । जब मैंने
यह लिखी
तब मुझसे
कहा गया
कि इतने
विस्तृत विषय
को लघुकथा
वहन नहीं
कर पाएगी।
मैंने कहा
प्रयोग करने
में क्या
हर्ज़ है!
मैंने प्रयोग
किया व
आधुनिक क्रेडिट
कार्ड जैसे
बड़े बाज़ारवाद
के विषय
को सफलतापूर्वक
लिख पाया
लघुकथा के
फ्रेम में।
तात्पर्य यह
है कि
आज के
जटिल विषयों
को लघुकथा
में शामिल
करने के
लिए प्रयोग
करने की
हिम्मत करना
ज़रूरी है।
लघुकथा यही
प्रयोग आज के समय में माँग रही है। वहाँ
यह नहीं
देखना है
कि लघुकथा
अधिक शब्दों
में लिखी
है या दो खंडों की
बात क्यों
आ गई । मैं मानता हूँ
कि लघुकथा—संक्षिप्तता व सूक्ष्मता में बड़ी
बात संवेदना
के स्तर
पर प्रगट
करना है।
जब नए
दबाव आते
हैं तब
यदि आप
इन विषयों को सहजता से
लघुकथा में
कह सकते
हैं तो
अवश्य प्रयोग
करना चाहिए। नए लोग यदि
इस काम
को करते
हैं तो
नाक—भौं नहीं
सिकोड़ना चाहिए,
आलोचना नहीं
करनी चाहिए;
बल्कि उन्हें
स्वीकार करना, प्रोत्साहित करना चाहिए।
तभी हम
भविष्य की
लघुकथा में
नया चेहरा,
नई शक्ल,
व नए अर्थ तलाश
पाएँगे।
नीरज शर्मा—आपने
पंजाबी व
हिन्दी की
लघुकथा का
तुलनात्मक अध्ययन किया
है। पंजाबी
लघुकथा के सामने हिन्दी
की लघुकथा
को आप
कहाँ खड़ा
पाते हैं?
सुभाष नीरव—मेरी “मां बोली”
पंजाबी है।
जब मैंने
लिखना शुरू
किया तब
पंजाब में
ऐसे समर्पित
लेखक थे
जो केवल
लघुकथा ही
लिख रहे
थे व
लघुकथा के
हित की
बात ही
करते थे।
वे स्तंभ
कहलाते थे
पंजाबी लघुकथा
के। डॉ
श्याम सुन्दर
दीप्ति , श्याम सुन्दर अग्रवाल,
हमदर्द वीर
नौशहरवी, सुलक्खन मीत,
शरण मक्कड़
वगैरह। ये
सिरमौर थे
लघुकथा विधा
के। उन्होंने
समर्पित भाव
से नई
पीढ़ी तैयार
की लघुकथा
के क्षेत्र
में। वहीं हिन्दी
में यदि
पिछले दस
साल में
देखें तो
मुझे दो
लघुकथाकार बड़ी
मुश्किल से
मिलते हैं
जिनके अपने
एकल लघुकथा
संग्रह आए
हों। यथार्थ
के धरातल
पर नए
लघुकथाकर तैयार
करने के
लिए कोई
खास काम
नहीं हो
रहा है।
पंजाब में लघुकथा
को लेकर
राज्य, जिला व शहरी स्तर पर
कार्यशालाएँ आयोजित
की जाती
रही हैं,
जिसका हिन्दी
में अभाव
देखने को
मिलता है।
यहाँ हिन्दी
लघुकथा पंजाबी
लघुकथा से
कहीं पीछे
है।
हिन्दी में नए
लेखकों ने
पुराना लेखन
पढ़ा नहीं
है,
इसलिए वो
बहुत अच्छा
नहीं लिख
पा रहे
हैं।
नीरज शर्मा—क्या आप मानते
हैं, आजकल सोशल
मीडिया ब्लॉग
व फेसबुक के माध्यम
से बाढ़-सी
आ गई है लघुकथा
लेखन में?
सुभाष नीरव—मैं ऐसा नहीं
मानता। जो
बाढ़ अस्सी
के दशक
में थी,
वो आज
नहीं है।
पत्रिकाएँ भी
मददगार थीं
उन दिनों।
आधुनिक प्लेटफॉर्म
को देखकर
लगता है
कि बाढ़-सी
आ गई है,
किन्तु वह
बाढ़ नहीं
है,
वह लेखन
का स्तर
नहीं है।
यह ऐसा
माध्यम है
जहाँ कोई
संपादक ही
नहीं है।
फेसबुक पर
ऐसा नहीं
है कि
अच्छी लघुकथाएँ
नहीं आ
रही हैं
, पर बहुत
कम संख्या
में अच्छी
लघुकथाएँ आ
रही हैं।
नीरज शर्मा—क्या
उनके पास
अच्छे लेखन
के लिए
पैमाने नहीं
हैं या
वो उन्हें
जानते नहीं
हैं?
सुभाष नीरव—हम यह नहीं
कह सकते
कि नए
लेखकों के
पास लेखन
के लिए
कोई पैमाने
नहीं है।
लघुकथा ने इतनी
लम्बी यात्रा
की है,
इतने पैमाने
बन चुके
हैं, मापदंड तय
हो चुके
हैं कि
यदि किसी
में लेखन
का जज़्बा
है तो
उसे बरकरार
रखने के
लिए उसे
इतिहास में
जाना जरूरी
है। वर्तमान के आगे भविष्य व पीछे अतीत है।
पीछे इतिहास
है व
भविष्य की
ओर जाना
है। वर्तमान में जीते
व्यक्ति को
यह जानना
भी जरूरी
है कि
हमें विरासत
में क्या
मिला है।
नए लघुकथाकारों
के पास
पैमाने हैं,
पर वो
उन्हें जानना
ही नहीं
चाहते। वो
तुरत-फुरत बस लिख डालना
चाहते हैं।
नीरज शर्मा—नए
लघुकथाकारों के लिए
आप क्या
संदेश देना
चाहेंगे?
सुभाष नीरव—नए लोगों में
कम उम्र
ही नहीं
पचास-साठ की उम्र
के व्यक्ति
भी हैं।
साहित्यकार राजेन्द्र
यादव जी
कहा करते
थे कि साहित्य की दुनिया
में प्रवेश
के लिए
दरवाज़ा बहुत
छोटा होता
है,
इसमें झुककर
ही निकलना
पड़ता है,
पर नई
पीढ़ी सीधा
निकलना चाहती
है, झुकना नहीं चाहती।
वो नहीं
चाहती कि
कोई अग्रज
उन्हें रोकें,
टोकें। उनमें
धैर्य या
संयम नहीं
है। यदि
वो अपने
अंदर यह
माद्दा पैदा
कर लें,
थोड़ा पिछला
इतिहास पढ़
लें,
अग्रजों की
बातों का
संज्ञान लें,
तो मुझे
उनकी रचनात्मकता
में कोई
संदेह नहीं
है।
नीरज शर्मा—लघुकथा
लेखन में
सुधार के
लिए क्या
किया जाना
चाहिए?
सुभाष नीरव—इसके लिए नियमित
रूप से,
देश के
विभिन्न प्रांतों
में,
कार्यशालाओं का
आयोजन किया
जाना चाहिए।
यहाँ विस्तार
से लघुकथा
लेखन के
पैमानों, मापदंडों के बारे
में विचार
साझा किए
जाने चाहिए।
लघुकथा की
पुस्तकों के
प्रकाशन को
प्रोत्साहित किया
जाना चाहिए।
नए लेखकों
को अग्रजों
द्वारा उचित
मार्गदर्शन मिले
तो कई
अच्छे लघुकथाकार
तैयार हो
सकते हैं।
साभार : 'अविराम साहित्यिकी' (लघुकथा विशेषांक, अक्टूबर-दिसम्बर 2015)
सम्पर्क : डॉ॰ (श्रीमती( नीरज शर्मा, सरल कुटीर, आर्य नगर, नई बस्ती बिजनौर-246701 मो-09412713640
सुभाष नीरव, आर. ज़ेड. एफ, 30ए, दूसरी मंज़िल, प्राचीन काली
माता मंदिर के पीछे, नाला पार, सृष्टि
केमिस्ट के ऊपर, वेस्ट सागरपुर, नई दिल्ली – 110046
मो-09810534373