Wednesday, 22 April 2015

कथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा से मुलाकात




'बेटी तो बेटी होती है', 'दया', 'कथा नहीं', 'रक्षा' जैसी कथ्य, भाषा, शैली, सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत लघुकथाओं का संग्रह 'तीन न तेरह' हर लघुकथा  प्रेमी के खजाने में होना चाहिए। उसके लेखक, कथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा पिछले कुछ सालों से बेहद अस्वस्थ चल रहे हैं। मस्तिष्क संबंधी किसी रोग के कारण उनके सिर का ऑपरेशन हुआ है और उनको स्मृति-भृंश हुआ है। यह सूचना फरवरी 2010 में सबसे पहले अशोक भाटिया ने मुझे दी थी। उसके बाद यह महसूस करके कि अब वे स्वस्थ हो चुके होंगे, 'अविराम साहित्यिकी' के लघुकथा विशेषांक 2012 का संपादन करने के क्रम में उनसे 'मेरी लघुकथा यात्रा' स्तम्भ के लिए उनकी अपनी लघुकथा यात्रा के उन कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालने का अनुरोध किया था, जिन्हें सिर्फ वही जानते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि डॉक्टर ने  ऐसा हर काम करने की मनाही की है जिसमें मस्तिष्क पर दबाव पड़ने की सम्भावना हो, इसलिए मैं अब कुछ नहीं लिख सकता। मैंने तभी उनसे वादा किया था कि लिखने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं इस विषय पर आपसे बातचीत को रिकॉर्ड करने आऊँगा। उन्होंने इस पर भी असमर्थता जताई थी इसलिए स्वयं मैंने भी उनके मानसिक स्वास्थ्य के मद्देनजर उनसे बातचीत करना उचित नहीं समझा। आज मैं करनाल गया था--अशोक भाटिया के पास। बातचीत के दौरान भाई पृथ्वीराज अरोड़ा के निवास भी जाना निश्चित हुआ। हम यानी अशोक भाटिया, मैं और मेरा बेटा आदित्य उनके घर गये। अरोड़ा जी जब तक सेवा में रहे, यूनियनिस्ट रहे। अपने किसी लिपिक अथवा सेवादार साथी पर किसी अधिकारी का अत्याचार देखा या सुना नहीं कि भिड़ जाते थे। अपनी शेर-जैसी दहाड़ से जालिम अधिकारियों को दहलाए रखने वाला वह जाँबाज आज अपने मुख के रास्ते भोजन खाने-पीने में असमर्थ है। भोजन के रूप में तरल पदार्थों को पेट तक पहुँचाने के लिए उनकी नाक के रास्ते एक लम्बी नली स्थाई रूप से लगी है। कमजोरी और स्मृति-भृंश के कारण कुछ बोल पाने में भी वे असमर्थ हैं। भाभी जी (श्रीमती कान्ता अरोड़ा) उनकी सेवा में लगी हैं।  पुत्र वधू घर का बाकी काम सँभाल रही थी। अरोड़ा जी के निकट पहुँचकर अशोक भाटिया ने पहले मेरा नाम उन्हें बताया, फिर अपना। हम दोनों को पहचान लेने के प्रमाण स्वरूप उनके गले से 'हाँ' जैसी ध्वनि आई। इससे अधिक वे कुछ न बोल सके, मात्र देखते रहे।  मन कुछ प्रसन्न हुआ यह देखकर कि स्मृति पूरी तरह क्षीण नहीं हुई है, मित्रों-परिचितों को पहचानते हैं; लेकिन अपने-आप को वे अब अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं, यह देखकर अपार दु:ख हुआ।  भाभी जी से अनुमति लेकर हमने उनके फोटो लिए। देखिए--पहले फोटो में वह अपने निकट खड़े अशोक भाटिया को ताक रहे हैं। दूसरे फोटो में, कैमरा हाथ में लिए सामने खड़े मुझको और तीसरे में, हम सबका सामूहिक फोटो खींच रहे आदित्य की ओर देख रहे हैं। मैं और भाटिया अधिक समय उनके समीप खड़े रह सकने की हिम्मत न जुटा सके। वहाँ से निकलकर बाहर वाले कमरे में आ खड़े हुए। भाटिया ने तो कुछ पल तक अपना सिर ही दोनों हाथों में थाम लिया। उदास-मन मैं चुपचाप उनकी उस दशा को देखता खड़ा रहा। जनगाथा के 28-2-2010 तथा 20-3-2010 अंक में उनकी लघुकथाएँ ‘नागरिक’, ‘भ्रष्ट’, ‘पति’, ‘प्रश्न’, ‘शिकार’ और ‘बुनियाद’ प्रकाशित की थीं। उनमें से ‘बुनियाद’ पाठकों के लिए यहाँ पुन: प्रकाशित है :

बुनियाद
से दुख हुआ कि पढ़ी-लिखी, समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहाक्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
जब उसका बेटा कार्यालय के लिए चला गया और पत्नी स्नान करने के लिए, तब उपयुक्त समय समझते हुए उसने पुत्रवधू को बुलाया।
वह आई,जी, पापा!
उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया। वह बैठ गई। उसने कहा,तुमसे एक बात पूछनी थी।
पूछिए पापा।
झिझकना नहीं।
पहले कभी झिझकी हूँ! आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।
थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मैंने तो अभी नाश्ता करना है! तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही? उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
उसका झूठ पकड़ा गया है, उसने अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली,पापा, हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माँएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े इसलिए हमें ऐसी ही सीख देती हैं। वह थोड़ा रुकी। भूत को दोहराया,भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक्त पर न हो पाया हो तो झूठ का सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक्त हो गया था। ये नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवाने की वजह से देर हो जाने की बात कह डाली। आपका जिक्र आते ही ये चुप हो गये। उसने विराम लिया। फिर निगाह उठाकर ससुर को देखा और कहा,सुबह-सुबह कलह होने से बच गई।और मैं क्या करती पापा?
ससुर मुस्कुराए। उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले,अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।
वह भी किंचित मुस्कराई,आभी लायी।
पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ साँस ली।
पृथ्वीराज अरोड़ा :
जन्म: 10 अक्टूबर, 1939 को बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान में)
प्रकाशित कृतियाँ:तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह), प्यासे पंछी(उपन्यास), पूजा(कहानी संग्रह), आओ इंसान बनाएँ(कहानी संग्रह)
मोबाइल नं:09255921912

Saturday, 4 April 2015

लघुकथा के सफ़र में वसन्त निरगुणे / बलराम अग्रवाल



समकालीन लघुकथा का सफर 1970 के बाद से स्वीकार किया जाता है। 1950 के आसपास यद्यपि हरिशंकर परसाई ने अनेक लघुकथाएँ लिखीं और उनका समय आजादी के बाद सपनों के टूटने का शुरुआती समय था; तथापि आजादी की लड़ाई से जुड़े अपने राजनेताओं के चरित्र पर संदेह करने का दूरदर्शी साहस उस समय के कथाकार समग्रता में नहीं जुटा पाये। शायद इसीलिए कथाकारों की एक बड़ी जमात परसाई-जैसी वक्र लघुकथाएँ साहित्य व समाज को देने में प्रवृत्त नहीं हो पाई। उनके समकालीन विष्णु प्रभाकर आदि जो अन्य कथाकार लघुकथा लेखन में प्रवृत्त हुए, उनकी भंगिमा में परसाई-जैसी तीक्ष्णता नहीं थी। अपनी लघुकथाओं में विष्णु जी बुद्ध, महावीर और गाँधी की पंक्ति के विचारक सिद्ध होते हैं। अश्क आदि के पास लघुकथा के लिए कहानी से अलग कोई अन्य कलेवर नहीं था। वे लोग अपने समय के कड़ुवे सच को कम से कम लघुकथा में तो अभिव्यक्त नहीं ही कर पा रहे थे। शायद यही कारण रहा कि उनमें से अनेक की लघुकथाओं के संग्रह तो प्रकाशित होते रहे; लेकिन वे प्रतिमान नहीं बन सके। बावजूद इस सब के, यह तो स्वीकारना ही पड़ेगा कि उस काल के कुछ कथाकारों ने कथा-कथन के पारम्परिक लघुकथापरक शिल्प को बचाए-बनाए रखा।
जहाँ तक लघुकथात्मक अभिव्यक्ति का सवाल है, भारतीय जनमानस में अपने राजनेताओं, समाजसेवियों और धर्मगुरुओं के चरित्र से मोहभंग गत सदी के सातवें दशक के मध्य से स्पष्ट, साहसपूर्ण और सघन अभिव्यक्ति पाने लगता है। ये दोमुँहे नेता राजनीति, धर्म और समाज—सभी में समान रूप से सक्रिय थे। नेतृत्व इनके लिए जनसेवा नहीं, व्यवसाय मात्र था। यही वह समय है जहाँ से पारम्परिक लघुकथा का समकालीन लघुकथा में रूपान्तरण अपनी सघनता और बहुलता में प्रारम्भ होना दिखाई देने लगता है। यह रूपान्तरण अनायास शुरू नहीं हुआ। यह कुछेक दिनों, हफ्तों या महीनों में भी सम्पन्न नहीं हुआ है। पकने में इसे वर्षों तथा निज स्वरूप में स्थित होने में दशकों लगे। आज की स्थिति तक पहुँचने के लिए इसने कथ्य, भाषा, शिल्प आदि के स्तर पर अनगिनत प्रयोग किये। नये कथाकारों की एक बड़ी जमात द्वारा लघुकथा लेखन से आ जुड़ने के कारण यद्यपि 1970-71 को समकालीन लघुकथा का प्रस्थान बिंदु मान लिया जाता है; तथापि रूपान्तरण की प्रक्रिया से जूझते, अवहेलना तथा संक्रमण झेलते और किसी एक रूप पर न टिक पाने पर झल्लाते ‘समकालीन लघुकथा’ को आठवें दशक के मध्य तक आसानी से देखा-परखा जा सकता है। यों नवें दशक के अंत तक इसका स्वरूप कुछ-कुछ स्पष्टता पा गया; लेकिन, अंतिम दशक तक भी कायान्तरण की इसकी प्रक्रिया जारी रही। इस प्रकार, समकालीन लघुकथा का आज का स्वरूप एक संयुक्त प्रयास है। इसको सँवारने में सातवें दशक के मध्य से लेकर दशवें दशक के अंत तक अनेक लघुकथाकारों तथा लघुकथा-विचारकों का विशिष्ट योगदान स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
वसंत निरगुणे आठवें-नवें दशक के विशिष्ट लघुकथाकार रहे हैं। वे निमाड़ी-मालवी के चर्चित कवि, लोक-अध्येता तथा प्रतिष्ठित भित्ति-चित्रकार भी हैं। यों तो पूरा देश ही उनके अध्ययन का क्षेत्र है; लेकिन मध्यप्रदेश की आदिवासी जातियों की पारम्परिक कलाओं, कथाओं और रीति-रिवाजों पर शोध करते हुए उन्होंने ‘लोक प्रतीक’, ‘कथावार्ता’, ‘निमाड़ी लोककथाएँ’ आदि अनेक पुस्तकें साहित्य व संस्कृति से जुड़े अध्येताओं व पाठकों को दी हैं। मुख्यत: आठवें दशक के बाद से ही वे अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ आदिवासी बहुल क्षेत्र की लोक-परम्पराओं के अध्ययन में लगे हुए हैं। उस दिशा में उनका वह कार्य अनेक दृष्टि से आवश्यक और उल्लेखनीय है।
सम्भवत: 2010 की बात है। किसी कार्यवश मैं आलेख प्रकाशन के कार्यालय में गया। एक सज्जन पहले से ही वहाँ बैठे थे।
“आइए भाईसाहब, इनसे मिलिए…वसंत निरगुणे जी…” मेरे पहुँचते ही उमेश अग्रवाल जी ने उनके नाम से परिचित कराते हुए मुझसे कहा। हम दोनों एक-दूसरे को ‘भाईसाहब’ सम्बोधित करते हैं; हालाँकि उम्र में बड़े अग्रवाल जी हैं।
“अरे भाई रे!” यह सुनते ही अपनी दोनों बाँहें पंखों की तरह फैलाकर मैं निरगुणे जी की ओर बढ़ा तो अग्रवाल जी ने चौंककर पूछा, “आप जानते हैं इन्हें?”
“आप मेरा नाम इन्हें बताइये, फिर देखिए।” मैंने कहा।
निरगुणे जी इस बीच मेरे आह्वान पर अपनी कुर्सी से उठकर खड़े हो चुके थे और सीने से भी आ मिले थे। मेरा वाक्य सुनकर उन्होंने उत्सुकतापूर्वक अग्रवाल जी की ओर देखा।
“ये बलराम अग्रवाल हैं।” उन्होंने निरगुणे जी को बताया।
यह सुनते ही निरगुणे जी के आलिंगन में कसाव आ गया। उस कसाव को भाँपकर अग्रवाल जी समझ गये कि दोनों व्यक्ति एक-दूसरे के नाम से पूर्व परिचित हैं। वस्तुत: एक-दूसरे के लेखन के माध्यम से परिचित दो व्यक्ति लगभग तीन दशक बाद पहली बार रू-ब-रू थे। अभिवादन-आलिंगन के बाद हम कुर्सियों में धँस गये और लेखन व जीवन से जुड़ी बातों पर चर्चा चल निकली।
“मैंने तो अपने-आप को पूरी तरह आदिवासी लोक-परम्परा के अन्वेषण, रख-रखाव और बचाव के काम में झोंक दिया है।” उन्होंने बताया; फिर पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?”
“लघुकथा लिखना बिल्कुल ही छोड़ दिया?” उनके सवाल को नजरअन्दाज करते हुए मैंने पूछा।
“बिल्कुल नहीं, करीब-करीब…।” वे बोले, “दरअसल, लोक-कलाओं के जिस काम में रुचि जाग गई है, वह किसी दूसरी विधा में काम करने के लिए अवकाश देता नहीं है।”
“कोई बात नहीं,” मैंने कहा, “आप आठवें दशक के चर्चित लघुकथाकार रहे हैं। अपनी उन रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कराने का समय तो निकाल ही लीजिए।”
उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया; परिणामत: ‘बिके हुए लोग’ की पांडुलिपि अग्रज कथाकार आदरणीय डॉ॰ सतीश दुबे द्वारा समकालीन लघुकथा के कुछ स्वयं से तो कुछ इतिहास से सम्बद्ध पन्नों को खोलती महत्वपूर्ण भूमिका ‘अतीत के गवाक्ष से…’ के साथ मेरे हाथों में है।
इस संग्रह की लघुकथाएँ आठवें दशक और उसके समीपवर्ती कालखंड में विशेषत: ग्रामीण अंचल के जनजीवन के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं। उस दौर का आदमी आर्थिक त्रासदी के जिस दावानल में  घिरा झुलस रहा था, उसे जानने-समझने को इस संग्रह की ‘सहानुभूति’ बहुत ही मारक और उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके साथ ही ‘भूख’, ‘कथा’, ‘हमदर्द’, ‘एक प्याली चाय का दर्द’ और ‘चाकरी’ का नाम भी लिया जा सकता है।
अपने समय के राजनीतिक दोगलेपन और सिद्धांतहीनता को दर्शाने में निरगुणे जी विशेष रूप से सिद्ध हैं। उनकी ‘संयोग और समाजवाद’, ‘पुनर्जन्म’, ‘बिके हुए लोग’, ‘उदारता’, ‘गणित’, ‘एडाप्टेशन’, ‘पहचान’, ‘अवमूल्यन’, ‘पोल’, ‘दृष्टिकोण’, ‘पानदान’, ‘समय’, ‘थप्पड़’, ‘कुर्सी’, ‘रामभक्त हनुमान’, ‘बहुरूपिया’, ‘दूध और पानी’, ‘अंधा और लँगड़ा’, ‘गायें और ग्वाले’, सूखा पत्ता आदि लघुकथाओं में तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ के लगभग दहला देने वाले चित्र देखने को मिलते हैं; कभी गम्भीर मुद्रा में तो कभी व्यंग्य की चुटकी के साथ। ये लघुकथाएँ वसंत निरगुणे को तत्कालीन राजनीतिक धरातल की लघुकथा का अग्रणी हस्ताक्षर सिद्ध करती हैं।
राजनीतिक गिरावट मानवीयता और नैतिक चरित्र से विहीन समाज का निर्माण करती है और ईमानदार व कर्मठ सामाजिक में हताशा और निराशा का वातावरण पैदा करती है। इस संग्रह की ‘तस्वीर’, ‘कोल्हू का बैल’, ‘चिलमची’, ‘अशोक’, ‘कसाई’ उस वातावरण के मार्मिक चित्र पाठक के सम्मुख रखती हैं। समाज व्यक्ति से बनता है; लेकिन व्यक्ति के बाद परिवार समाज की आवश्यक इकाई है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में सातवें दशक के उत्तरार्द्ध तक नये शासन तंत्र में विकसित हो चुके वैयक्तिक भौतिकवाद और नैतिकताविहीन नयी शिक्षा पद्धति ने विशिष्ट ही नहीं, आम भारतीय को भी संयुक्त पारिवारिक बंधनों से मुक्त हो जाने की ओर उन्मुख कर दिया था। संग्रह की ‘दर्द का मर्ज़’, ‘खिलौना’ और ‘परिवारनामा’ पारिवारिक विघटन को छूती हैं; लेकिन ‘सह-अस्तित्व’, ‘माता-पिता और लड़का’ जैसे परिवार को जोड़े रखने की भावना वाले सकारात्मक कथानक भी आशा की किरण के रूप में प्रस्तुत हैं।
संग्रह की ‘लोकप्रिय’, ‘संध्या और सूरज’, ‘दूध और पानी’, ‘अंधकार’, ‘आदमी और दीमक’, ‘जाने के बाद’ शीर्षक लघुकथाएँ दृष्टांत शैली में लिखी गयी हैं तो ‘परवेशी संस्कार’, ‘अनुकंपा’, ‘बदनीयत’, ‘अच्छा आदमी’ ग्राम्य-जीवन अथवा ग्राम्य-संस्कार के कथाविहीन उदात्त चित्र हमारे सामने रखती हैं। ‘कफन का कपड़ा’, ‘जिसने क्रम तोड़ा था’, ‘दो आँखें’, ‘शिकायत’, ‘अच्छा आदमी’, ‘भिखारी’, ‘समय’ शीर्षक लघुकथाएँ सदियों से दबे-कुचले दीन और विवश मनुष्य के चेतनशील हो उठने के कारण ध्यानाकर्षित करती हैं। ‘पेट-पूजा’, ‘आचरण’ और ‘पुरुषार्थ’ में परस्पर विश्वास और प्रेम से परिपूर्ण मानवीय रिश्तों पर अमानवीय भोग-लिप्सा के हावी हो जाने का चित्रण हुआ है। ‘आकाश’ और ‘पीढ़ियाँ’ में जेनेरेशन गेप को देखा जा सकता है।
‘बिके हुए लोग’ की लघुकथाएँ आठवें दशक के ग्राम्य समाज के, उसको त्रस्त करने वाली आर्थिक बदहालियों के, राजनीतिक और सामाजिक दोगलेपन तथा राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों की निर्लज्ज गिरावट को झेलते सीधे-सादे जन की असहाय स्थिति के कटु यथार्थ के साथ हमारे सामने उपस्थित हैं। ये लघुकथाएँ अपने समय का सच तो हैं ही, समकालीन लघुकथा के आठवें-नवें दशक का जीवन्त दस्तावेज़ भी हैं।