Saturday, 7 December 2013

कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता-2013



चित्र : बलराम अग्रवाल
 कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता-2013 में पहले, दूसरे, तीसरे व सांत्वना पुरस्कार प्राप्त लघुकथाएँ क्रमश: यहाँ प्रस्तुत हैं। साथ ही प्रस्तुत है, उन लघुकथाओं पर सुकेश साहनी की आलोचनापरक विस्तृत टिप्पणी:                         







मुझमें मंटो / उर्मिल कुमार थपलियाल
मैंमंटो मियाँ। उस खूंखार दरिंदे दहशतग़र्द ने सड़क पारकर रहे एक छोटे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली मार दी। गोली बच्चे के करीब से निकल गई। ऐसा कैसे हुआ?
मंटोइसलिए कि गोली को पता था।
मैंक्या पता था?
मंटोकि वो बच्चा है।

छवियाँ ऐसे बनती हैं / सविता पाण्डेय

यह हमारा नया खेल था। पिताजी के बाहर जाते ही माँ पिता बन जाती थी। माँ पिता के कपड़े पहन कमरे से बाहर निकलती तो हम तालियाँ पीटने लगते। पिता बनी माँ के कंधों पर झूल जाते। जेबों में हाथ डाल टॉफियाँ ढूँढते। गोद में मचलते।कि एक दिन ऐन खेल के वक्त पिता घर वापस आ गये। अपने कपड़ों में माँ को देख बिफर पड़े। हमारी परवाह किये बिना माँ के कपड़े उतार दिये। माँ के पैरों में पिता के जूते भर बचे थे। हम सब आश्चर्य में डूबे थे। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि हमारी नजरों में माँ नहीं, क्यों नंगे हो रहे थे पिता??!!!
अंतिम चारा / खेमकरण सोमन
क्षेत्र में इस बार भी भंयकर सूखा पड़ा था और इसी सूखे से निजात पाने के लिए आज एक आम सभा का आयोजन किया गया था।
साथियो’, गाँव के एक आदमी ने कहा, ‘सूखे के आगे सरकार, नदी, नहर, और झरना सब चीजें पहले ही नतमस्तक हो चुकी हैं। अब अंतिम चारा हमारे गाँव की महिलाएँ ही हैं। यदि वे चाहें तो हम सबकी जानें बचा सकती हैं।
लोगों में जिज्ञासा बढ़ने लगी। सवाल पानी का था अर्थात जिंदगी का।
क्या मतलब’, तब एक बुजुर्ग व्यक्ति ने उपस्थित सभी लोगों के बीच से उठकर कहा, ‘आप आगे कहें जो भी कहना है?’
आगे यही कहना है कि’, पहले आदमी ने कहना शुरू किया, ‘यदि गाँव की महिलाएँ निर्वस्त्र होकर अपने-अपने खेतों में हल चलायें तो, इंद्र देवता प्रसन्न होकर बारिश कर सकते हैं। पिछली बार भी यही बात उठी थी लेकिन महिलाएँ तो हल चलाने के लिए तैयार ही नहीं हुईं, तो स्थिति देख ही रहे हैं आप।
सभा में भारी ख़ामोशी पसर गई। अंततः पेड़ बचाने की दुहाइयाँ, धरती बचाने की दुहाइयाँ, छोटे-छोटे बच्चों को बचाने की दुहाइयाँ, घर, मकान, जिंदगी और गाँव बचाने की दुहाइयाँ महिलाओं तक पहुँचाईं गयीं। फिर सभा द्वारा एक दिन निश्चित कर दिया गया कि अमुक दिन महिलाएँ निर्वस्त्रा होकर अपने-अपने खेतों में हल चलाएँगी। संकट सिर पर था अतः हल चलाने की तैयारियाँ तेज होने लगीं।
शाम को मोहन की बीबी, सरकार की बीबी से मिली और अचंभित होकर बोली, ‘दीदी! क्या सचमुच, इस तरह हल चलाने से बारिश हेागी और चारों तरफ हरियाली/खुशहाली छा जाएगी?’
ख़ाक’, सरकार की बीबी झल्ला पड़ी, ‘अब इन पुरुष जातों की क्या कहें! खुद ही सभा की और खुद ही सब कुछ तय कर दिया। यदि उन्हें बारिश की इतनी ही चिंता है तो वे सारे खुद ही नंगे होकर खेतों में हल क्यों नहीं चलाते? बताओ
छीछीदीदी कैसी बातें करती हो!मोहन की नई नवेली बीबी शरमा गई।
बस्सतुम तो इतने में ही शरमा गईं…’ सरकार की बीबी ने कहा-जो काम ये हमसे अगले इतवार करवाना चाह रहे हैंबहन वो काम तो हम महिलाएँ न जाने कितनी बार कर चुकी हैं ,तो बताओहम कितनी बार शरमाईं? …लेकिन हुआ क्या? दुख है कि हर कोई हम महिलाओं को नंगी ही देखना चाहता है। चाहे भगवान हो, बादल हो या इंसान हो।
अब मोहन की दसवीं पास बीबी हतप्रभ थी।
दूसरे दिन ही पुरुषों की सभा में ये बातें पहुँचाई गईं कि महिलाएँ निर्वस्त्रा होकर हल नहीं चलायेंगी। पुरुषों की सभा अब चिंतित थी। बहुत बौखलाई हुई थी।
इसी बात को लेकर इधर पुरुषों की सभा चल रही थी और उधर महिलाओं की।
फ़र्क / जयमाला
माँ बताया करती थीं कि जब भैया चार साल के थे, तब उनके टखनों से घुटनों तक पीब भरे घाव हो गए थे। माँ उनके घावों को अपने आँसुओं से धोया करतीं, उनकी चीखों को हृदय में भर-भर कर, उनपर शीतल स्पर्श का मलहम लगाया करती थीं। दसवीं की परीक्षा से लेकर नौकरी हो जाने तक माँ भी आधी नींद सोती थीं।
नौकरी मिली तो माँ को लगा, कि उनकी साधना पूरी हो गई। माँ से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वाले भैया, पहले हर तीन महीने में माँ से मिलने घर आया करते थे। फिर छह महीनों में, फिर हरेक साल, फिर ……
कई-कई बीमारियों से जूझती-हाँफती अकेली माँ को अपने पास रखकर मैं उनका इलाज करवाती, खयाल रखती। स्वस्थ महसूसते ही माँ वापस चली जातीं।
एक दिन मैंने माँ से पूछा ‘‘माँ! जब आपने मेरी पढ़ाई-लिखाई और बाकी परवरिश में, मुझमें और भैया में कोई फर्क नहीं किया तो, मेरे साथ रहने में आपको क्या तकलीफ है?’’
‘‘
बेटा और बेटी में फर्क नहीं है तो क्या हुआ, बेटा और दामाद में तो है न?मैं अपने दामाद के घर ज्यादा दिन कैसे रह सकती हूँ?’’
‘‘दामाद का घर?फिर मेरा…?’’
 माँ / डॉ॰ पूरन सिंह
 मेरे घर के सामने स्त्री-पुरुष के लड़ने की तेज-तेज आवाजें आ रही थीं। मैंने दरवाजा खोला तो देखा एक सुंदर सी स्त्री जिसकी गोद में एक दूध पीती बच्ची भी थी अपने पति से लड़ रही थी और पति भी कम नहीं पड़ रहा था। पति अपनी पत्नी को जो भी गाली देता तो बदले में ठीक वैसी ही गाली पत्नी भी उसे दे रही थी। मुझे देखकर पति का गुस्सा तेज हो गया तो उसने अपनी पत्नी पर हाथ उठा दिया। पत्नी ने भी अपने पति को थप्पड़ जड़ दिए। मैंने देखा कोई किसी से बिल्कुल भी कम नहीं पड़ रहा था। उसका पति दो मिनट तक शांत रहा फिर न जाने उसे क्या हुआ कि उसने अपनी पत्नी की गोद से दूध पी रही मासूम सी बच्ची को छीन लिया था और उस बच्ची को लेकर अपने घर की ओर यह कहते हुए चल दिया था, ‘देखता हूँ अब कैसे नहीं घर चलेगी।थोड़ी देर पहले शेरनी बनी पत्नी अब भीगी बिल्ली की तरह अपने आदमी के पीछे-पीछे चली जा रही थी मानो कोई बिन डोर के ही खिंचा चला जा रहा हो।
स्मृति संध्या / अनुपम अनुराग
आज उसकी पहली बरसी थी। देश के लिए शहीद हुआ था वह। उस दिन तिरंगे में लिपटा हुआ उसका शव किसी देव-प्रतिमा का आभास दे रहा था। उसके चेहरे पर कहीं भी सात गोलियों के दर्द का निशान नहीं था, एक अदृश्य मुस्कुराहट थी। सारा शहर उमड़ पड़ा था उसकी विदाई में। औरतों ने उसकी राख को ताबीजों में भरकर अपने बच्चों के गले में पहनाया था। बड़े-बूढ़ों ने याद किया था कि बचपन से ही कितना देशभक्त था वह।
आज एक साल बीत जाने पर शहर के उत्साही नवयुवकों ने उसकी स्मृति-संध्या के बहाने शहर को देशभक्ति की फुहार में फिर से भीगने का कार्यक्रम बनाया था। टाउन हॉल खचाखच भरा था, तमाम गणमान्य अतिथि तथा नागरिक आए थे, तिल रखने की जगह नहीं बची थी। सभी को मुख्य अतिथि के ,जो कि इसी क्षेत्र के विधायक तथा राज्य सरकार में नगर विकास मंत्री थे - आने का इंतजार था,जिनके भाषण से ही कार्यक्रम का आरंभ होना था।
थोड़ी देर में हॉल में गर्मजोशी बढ़ गई। सबकी नजरें एक ही ओर थीं। मंत्री जी आगमन गेट से प्रवेश कर मंच की ओर बढ़ रहे थे। सफेद कुर्ता-पजामा पहने, कंधे पर तिरंगा गमछा डाले मंत्री जी बड़े प्रभावशाली लग रहे थे। उनके मंच पर पहुँचते ही कार्यक्रम संचालक ने औपचारिक रूप से उनके आगमन की सूचना दी तथा भाषण के लिए उन्हें आमंत्रित किया। हॉल में शांति छा गई।
‘‘सुनोइस शहीद का पूरा नाम क्या था?’’ तभी माइक पर मंत्री जी की आवाज गूंजी। सबके सब अवाक् रह गए। दरअसल मंत्री जी संचालक से यह सवाल करते समय माइक पर हाथ रखना भूल गए थे।
महँगी भूख / संतोष सुपेकर

मम्मी भूख!’’ ‘‘बस दो मिनट!’’ टेलीविजन की विशाल दुकान की विशाल स्क्रीन पर नूडल्स का विज्ञापन चालू था कि बाहर से छिपकर निहारते दो फटेहाल बच्चों में से एक ने उसे देखकर मुँह बिचकाया।
‘‘क्या हुआ राधू?’’ देखकर बड़ा बच्चा पूछ बैठा।
‘‘ये अमीरों वाली भूख तो भोत चुभती है मेरे को! भोत मेंघी पड़ती है ऐसी भूख!’’ राधू का स्वर संजीदा हो उठा और एक हाथ स्वयंमेव अपने गाल पर चला गया, ‘‘एक दफा इसकी देखादेखी मैं भी घर जाके ऐसे ही अम्मा पे चिल्लाया था-मम्मी भूख!’’
‘‘
तो?’’
‘‘
तो क्या? अम्मा ने बदले में दो जोरदार लाफे (चांटे) मार के गाल सुजा दिया था मेरा, अब तक निसानी है।’’
‘‘हा, हा’’ दूसरा, ‘बच्चा हँसने लगा, ‘‘तो ये बोल नी कि इनकी (अमीरों की) भूख, भूख-भूख चिल्लाते ही पिलेट (प्लेट) में सजके आती है और अपण ऐसा करो तो करमजली गाल पे आती है।’’
सुनकर संजीदा राधू भी अब मुस्कुरा पड़ा।

 सुंदरता / रंजीत कुमार ठाकुर
बड़ी व्रत का मेला और संध्याकालीन बेला। मैं पान की दुकान के सामने खड़ा होकर अपने साथियों की राह देख रहा था कि दृष्टि उस तरफ गई-कामाख्या-स्थान-मैदान की तरफ जाने का यह नया रास्ता खुल गया था। भीड़ अधिक हो तो कई नए रास्ते खुल ही जाते हैं। सड़क से कुछ दूरी पर एक फूस का घर था, जिसके करीब से नया रास्ता बना हुआ था।
रास्ता छोड़कर वह खड़ी थी। घूँघट लंबा था। गोद में बच्चा था-ढेढ़-दो साल का।
अचानक बच्चे ने घूँघट परे सरका दिया। बिजली की गति से उसने फिर घूँघट निकाल लिया। बच्चे ने घूँघट फिर सरकाया। इस पर घूँघट निकालने से पहले उसने आँख कड़ा करके बच्चे की तरफ देखा। मगर बेकार। विवश होकर उसे घूँघट छोटा करना पड़ा। यह उस बच्चे की माँ पर पहली जीत थी। दूर से भी ऐसा लगा, मानो बच्चे के होठों पर मुस्कराहट हो-माँ भी मुस्काई, एकदम संयमित-सी मुस्कान, मानो सिर्फ बच्चे के लिए हँसी हो। बच्चा प्रफुल्लित होकर मचलने लगा। माँ ने उसके नाक में अपनी नाक सटा दी फिर जाने क्या मंत्र फूँका-बच्चा शांत हो गया। अब उसका नन्हा-सा हाथ माँ के चेहरे पर था। यह लो उस नन्हें से हाथ में माँ का कान आ गया और अब कान की बाली।
माँ जो अब निश्चिंत-सी हो गई थी और किसी के आने की राह देख रही थी, असहज हो उठी। सावधानी से बच्चे के हाथ से बाली को मुक्त किया और डराने के लिए एक बार पुनः कठोर नेत्रों से उसकी तरफ देखने लगी।
नहीं माता! तेरा बच्चा डरपोक नहीं है। देखो तो फिर से बाली लेना चाहता है।
माँ झल्लाई। बच्चे का हाथ अपने बाँह से दबा दी।
बच्चा जानता था कब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना है। अब लगा वह रोने और माँ लगी उसे चुप करने। मुँह चूमकर कुछ कह भी रही थी। यही कह रही होगी न-मेरा राजा बेटा, प्यारा बेटा, चुप हो जाया फिर, ‘आने दो पापा को, बताती हूँ-बहुत बदमाश हो गया है। चुप हो जा-पापा बहुत डाँटेंगे।
किंतु बच्चा चुप न हुआ। उलटे माँ को देखकर हुलस-हुलस कर रोने लगा। तब माँ ने उसके गालों को चूमा, होठों को सहलाया, फिर आँचल में छिपाकर स्तन से लगाया।
अरे, कृष्ण-कन्हैया, अब तो चुप हो जा। नहीं, तू भी तो जिद्दी ठहरा। देखो तो दूध पीने से इनकार कर दिया।
अब क्या करोगी मैया-सँभालो तो अपने लल्ले को।
माँ ने उसके चेहरे पर से आँचल हटा लिया। थोड़ी देर तक नटखट बच्चे को प्रसन्नचित्त देखती रही, फिर हार मान ली। अपना कान उसके आगे कर दिया। बच्चे ने हाथ बढ़ाकर बाली पकड़ ली, फिर खींचा।
बच्चा बाली खींचता-माँ दर्द से की-सी आवाज करती और बच्चा खिलखिलाकर हँस पड़ता। बड़े प्रयत्न से यह देखना संभव हो पा रहा था कि माँ के होंठों पर भी मुस्कुराहट थी।
इतना शीतल, इतना आनंददायक मेले में कुछ और न था।
                                         
दहेज / मनोज अबोध
क्या हुआबहुत रिलैक्स लग रहे होक्या निधि के होनेवाली ससुराल में कुछ ज्यादा वैलकम हो गया’’ सरिता ने बनावटी ईर्ष्या का भाव व्यक्त करते हुए विनय से पूछा।
‘‘हाँ सरितावाकई रिलैक्स्ड हूँऔर कपूर साहब ने आवभगत भी खूब कीअपनी निधि तो लकी-चैंप है।’’
‘‘अब कुछ आगे भी बोलोलेन-देन कितना फाइनल हुआ’’ सरिता ने सोफे पर बैठते हुए पूछा। तब तक निधि और छोटी बेटी अक्षिता भी ड्राइंगरूम में आ चुके थे। दरअसल, विनय ग्रेवाल अपनी बड़ी बेटी निधि की शादी की बात पक्की करने एकान्त कपूर के घर गए थे। लड़के-लड़की का एक दूसरे को पसन्द करना और दोनों परिवारों में शुरुआती बातचीत पहले ही हो चुकी थी। एक नज़र सभी के उत्सुक चेहरों पर डालकर विनय से कहना शुरू किया, ‘‘रीयली सरिताकपूर फैमिली के बारे में जैसा सुना था, वे तो उससे भी बढ़कर हैं। कपूर साहब ने स्पष्ट कह दिया है कि उन्हें दान-दहेज के नाम पर एक पैसा भी नहीं चाहिए। बोले-ग्रेवाल साहब, आज के समय में बच्चों को हायर एजुकेशन दिलाना और कैरियर पर्सन बनाना कितना महँगा और बड़ा काम है, हम अच्छी तरह से जानते हैं। हमने निधि बिटिया को पसंद किया है, उसकी हायर एजुकेशन और नेचर देखकरबाकी किसी भी तरह का दान-दहेज हमें नहीं चाहिए।मैं तो देखता रह गया कपूर साहब को। मिसेज कपूर ने तो यहाँ तक कहा कि मैरिज फंक्शन में भी बहुत ताम-धाम की ज़रूरत नहीं’’
‘‘बट पापाआय कान्ट एडजस्ट विद ऑल दिसआय वॉन्ट एवरीथिंग माय ओन’’ ग्रेवाल दम्पती की प्रश्नवाचक निगाहें निधि पर थीं।
‘‘याकपूर फैमिली नहीं, मुझे अपनी शादी में दहेज चाहिए,…ज्वैलरी के अलावाकार, आरओ, एसी, होम थियेटर, मेगाफ्रिजसबकुछएक्सक्लुसिव और मेरी पसंद कामैं भुक्खड़ों की तरह एक सूटकेस लेकर ससुराल नहीं जाने वाली’’
विनय और सरिता चुपचाप अपनी हाय-एजुकेटेड बेटी को देखते रह गए।
                        
मजूरी / डॉ॰ सुलेखा जादौन
‘‘का रे हरिया आजऊ तैने एकई किरिया नराई। ससुर के नाती, रुपिया तौ तोय पूरे सौ चइयें, काम के लइयाँ गोड़ टूटि जात हैं।’’ मदन सिंह चाचाजी की क्रोध भरी आवाज सुनकर मेरे पैर ठिठक गए। देखा तो हरिया और उसकी पत्नी दोनों निराई करने के बाद चाचाजी से अपनी मजदूरी माँग रहे थे। मैं भी उसी तरफ चल दी। हरिया ने मक्का की फसल की एक क्यारी ही निराई थी और उसमें भी खरपतवार छोड़ दिया था ; किंतु उसकी पत्नी ने डेढ़ क्यारी से ज्यादा निराई थी और काम भी बहुत सफाई से किया था। चाचाजी की प्रशंसापूर्ण दृष्टि से अभिव्यक्त हो रहा था कि उन्हें भी हरिया की पत्नी का काम अच्छा लगा था। हरिया तो बीच-बीच में बैठकर बीड़ी पी लेता था ; किंतु उसकी पत्नी अनवरत अपना काम करती रहती थी। यही कारण था कि वह हरिया से कहीं ज्यादा और कहीं बेहतर काम करती थी। उसके द्वारा निराई गई साफ-सुथरी क्यारियाँ देखकर मुझे इस सत्य का अनुभव हो रहा था कि परिश्रम कहीं भी उत्कृष्टता ला सकता है ; फिर चाहे वो मक्के के खेत की क्यारियाँ ही क्यों न हों। साथ ही प्रसन्नता हो रही थी ये देखकर कि यह एक स्त्री का काम था। गर्वमिश्रित आश्चर्य हो रहा था भारतीय स्त्रियों की उद्यमशीलता पर। परंतु मेरे गुमान का किला धराशायी हो गया जब मैंने चाचाजी को मजदूरी के पैसे देते हुए देखा। हरिया को सौ रुपए मिले थे ; जबकि उसकी पत्नी को केवल सत्तर रुपये। उन दोनों के जाने के बाद मैंने चाचाजी से इस विषय में बात की तो उन्होंने कहा-‘‘लाली तू हमैं ज्ञान मति बाँटै। बैयरबानी कूँ आदिमी की बरब्बर मजूरी कहूँ सुनी है का। मोते कही तौ कही, काऊ और ते मति कहि दइयो नाय तो पंचायत तक बात और पौंचि जाएगी। सिगरौ गाम जि कहैगौ कै फलाने सिंग की छोरी अँगरेजी की माट्टन्नी का है गई, बड़े बूढ़ेन कूँ अकलि सिकावति है।’’
इक्कीसवीं सदी के भारत में भी स्त्री की ऐसी विवशता। उसकी हाड़-तोड़ मेहनत का ऐसा मूल्यांकन। मेरे महान देश का ये कड़वा यथार्थ न जाने कब बदलेगा।
                        
पुरुष मन / कस्तूरीलाल तागरा

उनका विवाह हुए अभी कुछ ही सप्ताह बीते थे कि एक दिन पति ने पत्नी को अंतरंग क्षणों में अपनी पूर्व गर्लफ्रैंड के बारे में चटकारे लेते हुए विस्तार से बताया।
पत्नी कुछ दिन आक्रोश से भरी रही। लंबा अबोला चला। और उसके बाद मान मनुव्वल का दौर शुरू हुआ। अन्ततः इस शर्त के साथ समझौता हो गया कि पति आईन्दा ऐसी गलती नहीं दोहराएगा। पत्नी के प्रति सदैव वफादार रहेगा।
दोनों की जिन्दगी एक बार फिर ठीक से चलने लगी थी कि एक दिन पत्नी ने यूँ ही लाड़ जताते हुए पति से कहा-‘‘आपने मुझसे तो कभी पूछा ही नहीं कि मेरा भी कभी किसी से प्रेम-प्रसंग रहा है कि नहीं।’’
पति ने तुरंत पत्नी के मुँह पर अँगुली रख दी-‘‘हो भी तो कभी मुझे बताना नहीं। हम मर्दों के पास तुम औरतों जितना बड़ा दिल नहीं होता।’’
पति के ऐसे बड़प्पन भरे व्यवहार से पत्नी के मन में पति के प्रति आदर बढ़ गया। लेकिन उस दिन के बाद से पति एक जासूस में तब्दील हो गया।

लघुकथा के निकष पर पुरस्कृत लघुकथाएँ : सुकेश साहनी
गत वर्ष की तुलना में इस बार प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं की संख्या काफी अधिक थी, परन्तु इनमें से कुल तीस (प्राप्त लघुकथाओं का लगभग 0.024 प्रतिशत) लघुकथाओं को निर्णायकों ने विचार योग्य पाया। प्रथम दृष्टया इन रचनाओं का स्तर भी बहुत उत्साहित करने वाला प्रतीत नहीं हो रहा था। इस दषा पर  हरिनारायण जी काफी निराश दिखे। पिछले कईवर्षोंसे लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित कर लघुकथा के विकास एवं प्रचार प्रसार में उन्होंने अविस्मरणीय योगदान किया है। उन्होंने सच्चे मन से यह बात शेयर की कि अन्य पत्रिकाओं में छप रही लघुकथाओं की संख्या देखकर अक्सर उनके भीतर प्रश्न उठता था कि कहीं रचनाओं के चयन हेतु उनके द्वारा प्रयुक्त स्केल (sieve)बहुत उच्च (fine) तो नहीं। उन्होंने इस दृष्टि से भी समय-समय पर प्राप्त होने वाली रचनाओं की पड़ताल की और इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि लघुकथा के क्षेत्र में अच्छी रचनाओं का संकट आज भी  बना हुआ है।
मैं हरिनारायण जी से सहमत हूँ। लघुकथा डॉट कॉम के सम्पादन में मुझे और काम्बोज जी को भी इस संकट का सामना करना पड़ता है। स्तरीय लघुकथाओं के सामने न आने के पीछे, जहाँ एक और इसमें सक्रिय युवा पीढ़ी की अगम्भीरता,जल्दबाजी उत्तरदायी है तो वहीं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के असावधान सम्पादक भी कम जिम्मेदार नहीं। मुझे लगता है बड़े पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक फिर लघुकथा को फिलर के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। देश के प्रसिद्ध दैनिक के 16 सितम्बर 2013 के साहित्यिक पृष्ठ पर लघुकथाएँ भेजने हेतु आमंत्रण देखने को मिला-लघुकथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय विधा है। युवा कथाकारों से नावक के तीर की तरह मर्मभेदी,अर्थपूर्ण और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी मौलिक लघुकथाओं की अपेक्षा है़।इसी पृष्ठ पर पदोन्नतिलघुकथा प्रकाशित की गई है:
पहले वो घर की बहू थी, बहू अर्थात् घर की लक्ष्मी। धीरे-धीरे समय बीतता गया। फिर वो सास बनी यानी सिर्फ समाज की नजर में घर की बड़ी बुजुर्ग। और आज...आज वो घर की आया है, काम वाली आया।
देश की जानी मानी पत्रिका के अगस्त 2013 के अंक में लघुकथा (गया काम से) के नाम पर चुटकला छापने के पीछे संपादक मण्डल की क्या मजबूरी हो सकती है-
शहर के व्यस्त चौराहे पर एक कविनुमा व्यक्ति खादी का कुर्ता पैजामा पहने, काँधे पर शबनमी झोला लटकाए जा रहा था। अचानक पीछे से मोटरसाइकिल वाला आदमी आया और उसका झोला छीनकर भाग गया। लोगों ने उसे पकड़ना चाहा ; पर वह हाथ न आया। कुछ लोग सहानुभूति जताने  के लिए उसके पास गए। लोग कुछ कहते इसके पहले ही वह व्यक्ति ,जिसका झोला झपटमार ले भागा था, जोर से हँसने लगा। लोगों को आश्चर्य हुआ, कैसा आदमी है, एक तो उसका झोला छीना गया, इस पर वह हँसता है।लोगों ने पूछा-‘‘क्या बात है, हँसते क्यों हो?’’ उसने वैसे ही हँसते हुए कहा, ‘‘साला गया काम से, झोले में मेरी कविता की डायरी थी।’’
आकारगत लघुकथा के कारण आभासी संसार में लघुकथा पोस्ट करने में सुविधा रहती है, दूसरे आप कुछ भी प्रकाशित करने के लिए स्वतंत्र है। छोटी रचना को लोग पढ़ भी लेते हैं। कुछ गंभीर प्रयासों को छोड़ दिया जाए ,तो यहाँ भी चुटकलों, खबरों ,सच्ची घटनाओं का बोलबाला है। बिना किसी स्क्रीनिंग से गुजारे अपनी रचनाओं की प्रस्तुति/पोस्टिंग की स्वतंत्रता के चलते अस्तरीय रचनाओं को बढ़ावा मिलता है ; क्योंकि बिना पढ़े लाइककरने वालों की यहाँ  कमी नहीं है। पिछले दिनों फेसबुक पर एक लेखिका की लघुकथा पढ़ने को मिली ; जो किसी भी कोण से लघुकथा नहीं थी। उस पोस्ट पर उनके मित्रों के कमेंट्स देखने लायक थे-वाह! क्या बात हैं.’...‘लाजवाब!’ ‘स्पीचलैस!’ ‘मार्मिक!’ ‘हिलाकर रख दिया’ ‘बहुत खूब!’ ‘संग्रह कब आ रहा?’ ‘जोरदार!आदि आदि। और लेखिका शुक्रिया! धन्यवाद! कहते नहीं थक रही थीं।
इन विपरीत परिस्थतियों के बीच कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता जैसे आयोजन ताजी हवा के झोंके की तरह महसूस होते  हैं। बरेली,पटना समेत विभिन्न शहरों में समय-समय पर आयोजित लघुकथा -पाठ और उसपर विमर्श ने इस विधा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संगमनकी तरह ही लघुकथा को लेकर मिन्नीत्रैमासिक, अमृतसर द्वारा अंतर्राज्यीय लघुकथा लेखक सम्मेलन आयोजित किया जाता है। इस सम्मेलन का प्रमुख आकर्षण होता हैजुगनुओंके अंग-संग। इसमें देश के जाने माने लेखकों द्वारा भाग लिया जाता है। रात्रि -भोजन के बाद सभी कथाकार बड़े से गोलदायरे में बैठ जाते हैं,एक कथाकार अपनी लघुकथा का पाठ करता है और दूसरे बारी -बारी से उस रचना की खूबियों/खामियों पर अपने विचार प्रकट करते हैं। इसकी एक विषेषता यह भी है कि इसमें सम्बन्धित लेखक को अपनी रचना पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं होता। यह कार्यक्रम रात भर चलता है। इस कार्यशाला का उद्देश्य लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर व्यावहारिक निष्कर्षों पर पहुँचना रहा है। कहना न होगा कि इन कार्यशालाओं से लघुकथा के निकष को लेकर छाया धुंधलका छटा है। इस कार्यक्रम के एक सूत्रधार श्याम सुंदर अग्रवाल इस बार के निर्णायकों में से एक हैं। लघुकथा के निकष पर पुरस्कृत लघुकथाओं की चर्चा से पूर्व स्पष्ट करना जरूरी लगता है कि लघुकथाओं पर चर्चा का उद्देश्य भी जुगनुओं के अंग-संगजैसी कार्यशालाओं की तरह लघुकथा लेखन के लिए बेहतर जमीन तैयार करना हैं न कि किसी रचना की कमज़ोरी गिनाना।
हम सभी मानते हैं कि लघुकथा को लघुहोना चाहिए और उसमें कथाहोनी चाहिए। कथा की अनिवार्यता पर इसलिए बल दिया जाता है ; क्योंकि कथा का चुम्बक हमारे दिल और दिमाग को रचना की ओर खींचता है और हम पात्रों से एकात्म होकर पूरी रचना को सही रूप में ग्रहण कर पाते हैं। आकारगत लघुकथा के कारण यहाँ कथाके लिए सीमित अवसर ही है। यह लेखक के रचना-कौशल पर निर्भर  है कि वह कैसे इनका संयोजन कर मुकम्मल रचना का सृजन कर पाता है।
उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा मुझमें मंटोको लघुकथा की कसौटी पर कसा जाए तो प्रथम दृष्टया इसमें (1) कथा नहीं है (2) शीर्षक कमज़ोर है, कथ्य को सम्प्रेषित नहीं करता (3) मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है, जैसी कमियाँ मालूम पड़ती  हैं। लघुकथा में बात इतनी- सी है कि दहशतगर्द ने सड़क पार कर रहे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली चला दी ; मगर गोली बच्चे के करीब से निकल गई। इसमें लेखक ने मंटो से संवाद स्थापित किया है, मंटों अपने अंदाज में जवाब देते है कि बच्चा इसलिए बच गया ; क्योंकि गोली को पता था कि वह बच्चा है। इसमें गोली के रूप में मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है। विभिन्न लघुकथा गोष्ठियों में चली लम्बी बहसों के बाद हम सभी ये मानते हैं कि लघुकथा में मानवेतर पात्रों का प्रयोग कम से कम किया जाना चाहिए ;क्योंकि इनका इस्तेमाल उसे अपनी विकास यात्रा में फिर नीति/बोधकथा की ओर धकेलता है। मानवेतर पात्र का उपयोग वहीं किया जाना चाहिए ; जहाँ रचनाकार को लगे कि ऐसा करने से वह रचना को और प्रभावी बनाने में सफल होगा। प्रष्न उठता है इस लघुकथा में ऐसी क्या बात है; जिनकी वजह से प्रथम स्थान पर रही है।
मुझमें मंटोपर आगे चर्चा से पूर्व यहाँ प्रस्तुत है मंटो की लघुकथा ‘‘बेखबरी का फायदा’’-
लिबलिबी. दबी। पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली। खिड़की में से बाहर झाँकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।
लिबलिबी थोड़ी देर बाद फिर दबी-दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली। सड़क पर माशकी की मशक फटी। औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मशक के पानी में मिलकर बहने लगा।
लिबलिबी तीसरी बार दबी-निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज्ब हो गई। चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख भी न सकी और वहीं ढेर हो गई। पाँचवी-छठी गोली बेकार गई। न कोई हलाल हुआ, न जख्मी।
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया। दफअतन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता दिखाई दिया। गोलियाँ चलाने वाले ने पिस्तौल का मुँह उस तरफ मोड़ा।
उसके साथी ने कहा, ‘‘यह क्या करते हो?’’
गोलियाँ चलानेवाले ने पूछा,‘‘क्यों?’’
‘‘गोलियाँ तो खत्म हो चुकी हैं।’’
‘‘तुम खामोश रहो। बच्चे को क्या मालूम!’’
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स्याह हाशिएके अन्तर्गत भारत- पाक विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई इस रचना में मंटों ने दंगों के दौरान दहशतगर्दों का मखौल उड़ाते हुए उनकी मानसिक स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है।
वर्तमान संदर्भों में थपलियाल जी की लघुकथा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण एवं अर्थगर्भी है। जब हम इसका रचनात्मक विश्लेषण करते हैं ; तो पाते हैं किगोलीके रूप में मानवेतर  पात्र का उपयोग लघुकथा की जरूरत है। इस रचना के माध्यम से लेखक यह संदेश देने में सफल रहा है कि संवेदनाएँ कभी नहीं मरेंगी, वे अपना गुण-धर्म निभाती रहेंगी, मनुष्य की क्रूरता को परास्त करती रहेगी। खूंखार दरिंदें दहशतगर्द का सड़क पार कर रहे छोटे बच्चे पर निशाना साधना और दन्न से गोली चलाना यानी दहशतगर्द की बच्चे के प्रति संवेदना का लोहे की तरह कठोर हो जाना। यहाँ गोली को (जब तक दरिंदे के कंट्रोल में है) दहशतगर्द की बच्चे की प्रति संवेदनहीनता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है परन्तु दहशतगर्द की चंगुल से छूटते ही संवेदना अपना गुण-धर्म निभाती है और बच्चे की रक्षा करती है। यही रचनाकार का संदेश है। यहाँ लेखक ने जानबूझकर मंटो से संवाद किया है ताकि रचना को विभाजन की त्रासदी के बाद आधुनिक संदर्भों में रेखांकित किया जा सके। मुझमें मंटोंसकारात्मक सोच के साथ मानवोत्थान की अभिलाषा की कथा है। मानवेतर पात्र के उपयोग से रचना का प्रभाव कई गुना बढ़ गया है। मानवेतर पात्रों के प्रयोग से प्रभावशाली बन पड़ी अन्य लघुकथाओं में जानवर भी रोते है (जगदीश कश्यप), अतिथि कबूतर (राम पटवा) तोता (सु.सा) एवं पुल (फ्रांजं काफ्का) जैसी अनेक लघुकथाओं को देखा जा सकता है।
सविता पाण्डेय की लघुकथा छवियाँ ऐसे भी बनती हैविषय की नवीनता के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही है। लघुकथा में जटिल पारिवारिक सम्बन्धों की कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। लघुकथा के चरमोत्कर्ष -हमारी नजरों में माँ नहीं,’ क्यों नंगे हो रहे थे पिता??!! पर पहुँचकर एक सवाल बहुत देर और दूर तक पाठक का पीछा करता रहता है, ‘ माँ को बच्चों के लिए पिता क्यों बनना पड़ता था?’ इस रचना के माध्यम से लघुकथा में नेपथ्य के महत्त्व को रेखांकित किया जा सकता है।
खेमकरण सोमनकी लघुकथा अंतिम चाराअपने कांटेट के कारण तीसरा स्थान पाने में सफल रही हैं। शीर्षक अंतिम चाराजहाँ अंतिम विकल्प के तौर पर प्रयोग किया गया है, वहीं रचना पाठ के दौरान वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में विभिन्न स्तरों पर महिलाओं के चारे के रूप में इस्तेमाल की ओर भी हमारा ध्यान खींचता है। आज भी बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में यह मान्यता है कि भयंकर सूखे के दौरान महिलाएँ निर्वस्त्र होकर हल चलाएँ तो भगवान इन्द्रदेव प्रसन्न होकर वर्षा कर देते हैं।  लघुकथा में इस अंधविश्वास के खिलाफ आवाज बुलन्द करती महिलाओं की व्यथा है-‘‘दुख है कि हर कोई हम महिलाओं को नंगी ही देखना चाहता है,चाहे भगवान हो, बादल हो, या इंसान हो।’’ लघुकथा अंत में आकर अपनी बुनावट में ढीली पड़ जाती है। कथा वहीं समाप्त हो जानी थी, जहाँ पुरुषों की सभा में बात पहुँचा दी जाती है कि महिलाएँ निर्वस्त्र होकर हल नहीं चलाएँगी। अंतिम पंक्तियों की उपस्थिति लघुकथा की प्रकृति के विपरीत है।
जो लोग लघुकथा में एक ही विषय पर कई कई लघुकथाएँ लिखते हैं; उन्हें रंजीत कुमार ठाकुर की लघुकथा सुन्दरतापढ़नी चाहिए, जिसमें लेखक अतिसाधारण-सी घटना पर रोचक लघुकथा लिखने में सफल रहा है। यहाँ लघुकथा को और कसने की जरूरत थी। प्रथम अवतरण अनावश्यक हैं। सुलेखा चौहान की मजूरीमें पुरुष से अच्छा और अधिक काम करने वाली स्त्री को पुरुष से कम मेहनताना देने की परम्परा पर चोट की गई हैं। अंत में लेखकीय टिप्पणी किसी निबंध का उपसंहार मालूम पड़ती है और रचना को कमजोर करती है।
अनुपम अनुराग की स्मृति संध्यापूरन सिंह की डोर और जयमाला की फर्कअपने आप में मुकम्मल उद्देश्यपूर्ण लघुकथाएँ हैं और लघुकथा के निकष पर खरी उतरती हैं। फर्कजैसी बहुत सी रचनाएँ लिखी गई हैं ; परन्तु समापन बिंदु पर बेटी द्वारा उठाए गए मार्मिक सवाल के कारण लघुकथा चौथा स्थान पाने में सफल रही है। डोरकी नारी पुरुष के साथ बराबरी पर खड़ी है और ईंट का जवाब पत्थर से देने भी सक्षम हैं ,पर यहाँ भी पुरुष उसके षोषण के लिए नित नए हथकंडे अपनाता है और मातृत्व जैसी प्रकृति प्रदत्त देन को उसके खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से गुरेज़ नहीं करता। स्मृति संध्यामें शहीदों के प्रति हमारे राजनेताओं के सोच को बेनकाब किया गया है।
संतोष सुपेकर की महंगी भूख’, कस्तूरी लाल तागरा की पुरुष-मनएवं मनोज अबोध की दहेजलघुकथा की परिभाषा पर खरी उतरती हैं।
पिछले वर्ष की भाति इस वर्ष भी प्रतियोगिता हेतु प्राप्त अनेकों लघुकथाओं में विषयों का दोहराव देखने को मिला है। पिछले वर्ष खलील जिब्रान (ऊँचाई), विष्णु प्रभाकर (फर्क),रतनसिंह (सरहद), श्यामसुन्दर दीप्ति (सीमा) की लघुकथाओं की प्रस्तुति के साथ विषयों के दोहराव के खतरों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया था। फेसबुक पर इसी विषय पर एक अस्तरीय प्रस्तुति देखकर लगा कि युवा पीढ़ी इसे गम्भीरता से नहीं ले रही है। वर्तमान पीढ़ी को चाहिए कि वह समकालीन लघुकथाओं का भली- भाँति अध्ययन करें तथा जहाँ तक सम्भव हो विषयों के दोहराव से बचे। कई विषय/समस्याएँ ऐसी होती हैं ,जो सदैव प्रासंगिक होती है। ऐसे विषयों पर कलम चलाते हुए लेखक को अधिक कुशल होना चाहिए। लघुकथा में सांकेतिकता एवं शब्दों की मितव्यतता के सन्दर्भ मेंदहेजजैसे विषय पर हंस, फरवरी 90 (लगभग 23 वर्ष पहले) में प्रकाशितस्कूटरलघुकथा के प्रथम दो अवतरणों की ओर युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगाएक बहुत बड़ा कमरा है-उसमें अनगिनत स्कूटर खड़े चमचमा रहे हैं। उनके बीच वह फटी जेबों में हाथ डाले खड़ा कुछ सोच रहा है। कमरे के तापमान के साथ ही उस पर एक विचित्र दबाव भी बढ़ता जा रहा है। तभी उसे लगा कि वह अपने शरीर पर नियंत्रण खोता जा रहा है। पैरों की तरफ से उसका शरीर एक स्कूटर में तबदील होने लगता है। पहले पिछला पहिया, बॉडी,सीट....फिर उसके हाथ हैण्डिल के रूप में और सिर माइलोमीटर में बदल जाता है। माइलोमीटर वाले भाग से वह अपने चारों ओर देख सकता है।
सुनील ने उसे अपने घर के बाहर सड़क पर खड़ा कर रखा है। नया स्कूटर पाकर वह बहुत खुश है। वह मस्ती में गुनगुनाता हुआ किकमारता है। उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं है कि स्कूटर के रूप में ससुर महोदय सामने खड़े हैं। सुनील से थोड़ा हटकर सरोज भी खड़ी है। वह अत्यन्त उदास है। सुनील उसे गेयर में डालता है और वह उन दोनों को बिठाए सड़कों पर दौड़ने लगता है। रिज़र्व का संकेत देने के बावजूद सुनील उसे दौड़ाता रहता है, पर चाहे स्कूटर हो या आदमी, बिना पेट्रोल या खून के कौन कितना दौड़ सकता है।
‘‘तुम्हारे बाप ने स्कूटर के नाम पर ये खटारा मेरे पल्ले बाँध दिया है....’’सुनील पत्नी पर चिंघाड़ रहा है-‘‘अपने बाप से कहो, इसे दुरुस्त कराए। छह महीने से पेट्रोल के पैसे भी नहीं भेजे, साले धोखेबाज!’’
‘‘इसे दौड़ना ही होगा!!’’ सुनील ज़ोर से स्कूटर पर लात जमाता है-‘‘वरना...मैं....’’ वह कोने में रखी मिट्टी के तेल की केन की ओर देखता है।
‘‘नहीं!!’’ वह बेबसी से अपने बूढ़े जर्जर शरीर को देखता है-‘‘उसे मत मारना....’’
वह जाग गया। शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। दिल की धड़कन अनियंत्रित होकर कनपटियों पर हथौड़े-सी चोट कर रही थी।
‘‘क्या हुआ जी?कोई बुरा सपना देखा है क्या?’’ पत्नी घबराई-सी उसकी ओर देख रही थी।
सपने के प्रभाव से वह अभी तक मुक्त नहीं हुआ था। उसने दीवार घड़ी की ओर देखते हुए सोचा....सुबह के पाँच बज गए....दिल्ली से आने वाली सभी गाड़ियाँ निकल गई होंगी।
‘‘सुनील आज भी नहीं आया!’’ काँपती कमज़ोर आवाज़ में उसने कहा।
‘‘लगता है तुम्हारी गिड़गिड़ाती चिट्ठियों का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ है।’’ दीर्घ निःश्वास के साथ वृद्धा ने कहा-‘‘आज पूरे छह महीने हो गए सरोज को यहाँ आए।....अब तो उसकी सूरत देखकर कलेजा फटने लगता है...’’
कमरे में विचित्र-सा सन्नाटा पसर गया। दोनों ने एक-दूसरे से नज़र चुराते हुए अपने आँसू पोंछ लिये।
कथादेश द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता के फलस्वरूप बहुत सी प्रतिभाओं ने इस विधा में प्रवेश किया है। कुछ यादगार रचनाएँ लघुकथा-जगत् को प्राप्त हुई हैं। आषा है आगामी प्रतियोगिता में युवा पीढ़ी और भी उत्साह से इसमें प्रतिभागिता कर इस विधा को समृद्ध करने में अपना योगदान करेगी। 
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