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घर-परिवार के बीच से कथानक चुनने और उन्हें सार्थक ऊँचाई प्रदान करने में पवन शर्मा सिद्धहस्त हैं। घर-परिवार से जुड़ी उनकी हर लघुकथा सामने घटित होती जान पड़ती है। अभी, हाल में उनकी 100 लघुकथाओं का संग्रह ‘हम जहाँ हैं’ आया है। प्रस्तुत हैं उक्त संग्रह से तीन लघुकथाएँ:
॥1॥ आग
उसने दो रुपए का नोट निकालकर मोंटू के हाथ में थमाया और कहा,“जल्दी में कोई चीज़ नहीं ला पाया…ले लेना।”
फिर भाभी के पाँव छुए और बाहर निकल आया।
बाहर निकलते हुए भैया बोले,“चल, तुझे बस-स्टैंड तक पहुँचा दूँ।”
“मैं निकल जाऊँगा। आपके ऑफिस का समय हो रहा है।”
“चल तो।”
भैया ने सड़क पर चलते-चलते पूछा,“तेरा पोस्ट-ग्रेजुएशन पूरा हो गया?”
“हाँ।” उत्तर देते हुए वह विस्मित हो गया।
“अब आगे?”
“कुछ नहीं…पूरी तरह घर पर बैठा हूँ।” कहते-कहते वह भीतर तक सिकुड़ गया।
“अम्मा और बाबू कैसे हैं रे?” भैया ने पूछा।
उसके भीतर भक्क-से आग लगती है। पूरे तीन दिन से इनके यहाँ हूँ—अब चलते वक़्त पूछ रहे है!
“ठीक हैं।” उसने अपने भीतर की आग दबाई।
बस-स्टैंड में घुसते हुए वह कहता है,“बाबूजी कह रहे थे कि अब तीन सौ से घर का खर्चा नहीं चल पाता है। कुछ-और भेज दिया करें।”
सामने खड़ी बस का नम्बर देख भैया कहते हैं,“यही बस जाएगी। तू यहीं रुक, मैं टिकट लेकर आता हूँ।”
उसे लगा कि भैया ने उसकी बात सुनी ही नहीं है। उसके भीतर की आग फिर से सुलगती है।
थोड़ी देर बाद भैया हाथ में टिकट लिए लौटे और बोले,“तू बस में बैठ, मैं चलता हूँ।”
उसे टिकट थमाते हुए भैया ने जेब में से पचास रुपए का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाया,“ले…रख ले…काम आयेंगे।”
भैया थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले,“बाबूजी से कहना कि शहर में तो पानी भी खरीदकर पीना पड़ता है।”
उसके भीतर की आग न जाने क्यों एकदम ठंडी पड़ गयी।
॥2॥ बाप, बेटे और माँ
बूढ़ा बाप दर्द के मारे दुहरा हो गया और पेट पकड़कर बिस्तर पर बैठ गया। तीनों बेटे पलंग के आसपास खड़े अपने बाप को देख रहे थे। तीन दिन से यही हाल है। बड़ा बेटा डॉक्टर की सलाह पर जो भी दवा-गोली दे देता, बाप खा लेता, पर दर्द खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
“आज बड़े अस्पताल ले चलते हैं पिताजी को—इलाज करवा लें।” बड़ा बेटा बोला।
“और नहीं तो क्या—कहीं कुछ हो गया तो दुनिया कुछ की कुछ बोलेगी।” छोटे बेटे ने कहा।
बाप का दर्द जरा कम हुआ। वह सीधा होकर पलंग पर बैठ गया। उसने पीने के लिए पानी माँगा। छोटा बेटा दौड़कर एक गिलास पानी ले आया। बाप ने गट-गट करते पूरा गिलास खाली कर दिया।
“तू चले जाना पिताजी के साथ अस्पताल। आज मुझे ऑफिस जल्दी जाना है।” बड़े बेटे ने छोटे से कहा।
“मैं!” छोटा बेटा चौंका।
“और नहीं तो क्या…तू ही चला जा। आज मुझे भी काम है, नहीं तो मैं ही चला जाता।” मँझले बेटे ने बड़े का समर्थन किया।
“पर मैं तो आज तक अस्पताल नहीं गया—और फिर मैं अकेला कैसे सँभाल पाऊँगा पिताजी को?” छोटे बेटे ने कहा।
“तो फिर पिताजी को कौन ले जाएगा?” मँझले बेटे ने प्रश्न किया।
तीनों बेटों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
“तुम लोग परेशान मत होओ…मैं तुम्हारी माँ के साथ चला जाऊँगा।” बाप ने धीमे स्वर में कहा।
तीनों बेटों के सिर पर से जैसे रखा मनों वज़न हट गया हो!
॥3॥ उतरा हुआ कोट
“देखो, दिनेश ने कितना बढ़िया कोट दिया है। अच्छा लग रहा है न?” पिताजी कोट पहने हुए कह रहे हैं माँ से। आज सुबह ही लौटे हैं।
“हाँ-हाँ…क्यों न लगेगा अच्छा, जब बेटे का उतरा हुआ कोट बाप पहनेगा तो। तुम्हें तो उसने अपने उतरे हुए कपड़े ही दिये हैं पहनने को। नौकरी के इतने साल हो गये…नये सिलवाये हैं कभी?” माँ सहज रूप से कहती हैं।
इतनी सहजता से कही गई बात निश्चित रूप से सत्य है—यह तो पिताजी भी जानते हैं।
पिताजी पहने हुए कोट पर हाथ फिराते जाते हैं और खुश होते जाते हैं।
वह जानते हैं कि अपने ऑफीसर बेटे को नाराज करके वह कहीं के नहीं रहेंगे।
पवन शर्मा : संक्षिप्त परिचय