जनगाथा के इस अंक के माध्यम से एकदम नए रचनाकार आशीष रस्तौगी का पदार्पण कथा-साहित्य की दुनिया में हो रहा है। इससे पहले आशीष ने कहीं भी अपनी रचनाओं को प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। अपनी रचनाओं की उत्कृष्टता का उन्हें जैसे पता ही नहीं है। मुझे मेरे बेटे और उसके मित्र आकाश के जरिए ये रचनाएँ प्राप्त हुईं—गड़े हुए खजाने की तरह। सौभाग्य से आज आशीष का जन्मदिन भी है। जन्मदिन पर ईश्वर से उनके लेखन को और उत्कृष्टता प्रदान करने की प्रार्थना और जीवन-संग्राम में उनकी सफलता हेतु हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आइए पढ़ते हैं इस जवान कलम से उतरी ये लघुकथाएँ :
-बलराम अग्रवाल
॥1॥ मानसून आया
जून का महीना। आसमान से शोले बरस रहे थे। हर व्यक्ति ऊपर की ओर देखता और इन्द्रदेव से प्रार्थना करता; लेकिन लग रहा था कि वह भी पृथ्वीवासियों पर कुपित हो गये हैं, पानी की जगह आग बरसा रहे हैं।
समय कुछ और आगे खिसका। मौसम का मिजाज बदलने-सा लगा। आसमान में बादल छाने लगे। हालाँकि वे अभी बरसे नहीं थे, लेकिन लोगों के दिलों में कुछ ठंडक पहुँचने लगी। बादलों ने गड़गड़ाना शुरू किया तो लोगों की जैसे जिन्दगी ही बदलनी शुरू हो गई।
‘जो गरजते हैं बरसते नहीं’ का अपना ही नियम तोड़ बादलों ने पानी छिड़कना शुरू किया तो घाम की चोटों से हाँफ गये लोगों की जान में जान आनी शुरू हुई। रसोईघरों में बरतन खनकने लगे। चाय और पकौड़ियों का…समोसों का दौर शुरू हो गया। कॉपियों से पन्ने फाड़-फाड़कर बच्चे नावें बनाने और नालियों में तैराने की तैयारी करने लगे। सभी के मन में सिर्फ एक ही बात थी—‘बरसो रे…ऽ…बैरी बदरवा बरसो रे…ऽ…!’
एकाएक बूँदें थमने-सी लगीं। सभी की निगाहें सूने होते जा रहे आसमान की ओर उठ गयीं। सड़क किनारे की एक छप्परनुमा दुकान से आवाज आई—“अरे इन्द्र देवता, अभी तो चाय की प्याली को होठों से लगाया ही था…और पकौड़ियाँ तो अभी कड़ाही में छनन-छनन नाच ही रही हैं, बाहर निकली तक नहीं। कम से कम एक राउंड तो इनका चला लेने देते!”
इसे सुनकर आसपास बैठे हालाँकि सभी लोग हँसने लगे, लेकिन बड़ी हसरत के साथ भागते बादलों की ओर ताकने लगे।
॥2॥ रहम कर
अभी दो दिन पहले की ही बात है। मैं रोज की तरह अखबार पर सरसरी नजर दौड़ा रहा था। एकाएक दो सुर्खियों पर मेरी निगाह टिक गई।
पहली थी—
एक उद्योगपति ने अपनी पत्नी के जन्मदिन पर 400 करोड़ का जेट विमान उपहार में दिया।
दूसरी थी—
एक किसान ने कर्ज न चुका पाने की वजह से आत्महत्या की। उस पर पूरे 18000 रुपए का कर्ज था।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि देश में यह हो क्या रहा है? इतनी असमानता! आजादी के बाद अमीर जहाँ और-अमीर हो रहा है, वहीं गरीब गरीबी के गर्त में और-ज्यादा धँसता जा रहा है।
मन बहुत अशांत हो उठा था। रह-रहकर बस एक ही आवाज भीतर से सुनाई दे रही थी—हे ईश्वर! तू और चाहे जो कर, लेकिन इस देश के किसान को आत्महत्या के लिए मजबूर मत कर।
॥3॥ कुत्ता
शाम का समय था। ठेकेदार साहब अपने घर पर बैठकर चाय का मजा ले रहे थे। तभी गेट पर घंटी बजी। दुबला-पतला एक व्यक्ति गेट पर खड़ा था। गेट खुला हुआ ही था।
“साहब, मुझे गुप्ताजी ने आपके पास भेजा है।” पूछने पर उसने बताया।
ठेकेदार ने उसे अन्दर बुला लिया। अन्दर पहुँचकर वह ठेकेदार से कुछ दूरी बनाते हुए जमीन पर बैठ गया।
“घरेलू कामकाज के लिए हम लोगों को एक नौकर की तलाश है। घर में सिर्फ तीन प्राणी हैं—मैं, मेरी पत्नी और विदेशी नस्ल का हमारा रूमी।”
जमीन पर बैठे आदमी की समझ में वह तीसरा प्राणी एकाएक ही नहीं आया कि कौन है। वह ठेकेदार से उसके बारे में पूछने ही वाला था कि सुती-सी कमर वाला एक कुत्ता वहाँ आया और उसे घूरता हुआ ठेकेदार के समीप सोफे पर बैठ गया।
“साहब, मेरे को घर का सारा काम आता है।” सारी बात समझकर व्यक्ति बोला।
“नाम क्या है तुम्हारा?” ठेकेदार ने उससे पूछा।
“जी, गरीबू।” वह बोला।
“तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं?”
“पाँच लोग हैं साहब—मैं, मेरी बीवी और तीन बच्चे…।”
ये बातें चल ही रही थीं कि गेट की घंटी पुन: बजी। देखा—ठेकेदार का एक अन्य मित्र सोहन सिंह घर में घुस रहा था। वह आया और उसी सोफे पर बैठकर कुत्ते से खेलने लगा।
“घर और बाजार का सारा काम करना होगा।” ठेकेदार गरीबू से बोला,“पगार तीन हजार रुपए महीना यानी कि सौ रुपए रोज। जिस दिन भी छुट्टी करोगे—सौ रुपया काट लिया जाएगा।”
“जी।” गरीबू ने गरदन हिलाई।
“आने-जाने वालों का भी पूरा ध्यान रखना होगा—मंजूर है?” ठेकेदार ने पकाया।
“जी।” उसने पुन: गरदन हिलाई।
“यार ऐसा ही एक पीस मैं भी घर में रखना चाहता हूँ।” बातचीत के बीच में ही सोहन सिंह ठेकेदार से बोला,“माहवार कितना खर्चा आ जाता होगा?”
“ठीक-ठाक चलता रहे तो यही करीब दस हजार…।” ठेकेदार बोला।
गरीबू की हसरत भरी नजरें ठेकेदार का जवाब सुनते ही रूमी पर जा टिकीं।
॥4॥ आत्मनिर्भर
“बहुत भूख लगी है…दो दिनों से कुछ खाया नहीं है…रुपया-दो रुपया दे दो साहब।” मंदिर-प्रांगण के बाहर घूम रहे भिखारीनुमा नौजवान ने नंदू के निकट आकर कहा। उसने देखा कि भीख माँगने के लिए हाथ फैलाए खड़ा लड़का हट्टा-कट्टा और मझोली कद-काठी का था।
“हट्टा-कट्टा होकर भीख माँगता है? मेहनत-मजदूरी कर, कमाकर खा।” नंदू गुस्से में बोला।
“अनजान आदमी को शहर में कौन काम पर रखता है साहब?” भिखारी बोला।
“मैं रखूँगा तुझे, चल।” कहते हुए नंदू ने उसको कलाई पर से पकड़ लिया। भिखारी झेंप-सा गया। हाथ छुड़ाता हुआ बोला,“एक दिन का कितना पैसा दोगे साहब?”
“एक दिन का नहीं, महीना-भर काम करने का पैसा मिलेगा—चार हजार…।” उसकी कलाई पर पकड़ को बरकरार रखते हुए नंदू उससे बोला।
“चार हजार!” भिखारी उपहास-भरे अंदाज में चौंका। बोला,“पाँच हजार की नौकरी छोड़े बैठा हूँ साहब। बंदा समझने लगता है जैसे वही हमारा पेट पाल रहा है और हम उसके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं! उस जलालत से यह भीख माँगकर पेट भर लेने का धंधा भला। वैसे भी, यहाँ बैठकर डेढ़-दो सौ रुपया रोज तो बना ही लेता हूँ मैं। कभी-कभी खाना-कपड़ा-फल-मिठाई वगैरा भी मिल जाता है सो अलग। न किसी की चें-चें न चिख-चिख, न गुलामी। अपने काम का खुद मुख्तार हूँ।” कहते-कहते नंदू की पकड़ से अपनी कलाई को छुड़ाकर वह वापस अपनी जगह पर जा बैठा।
॥5॥ श्यामपट
यह उन दिनों की बात है जब विजय-चाचा ने काले रंग की नई होंडा सिटी खरीदी थी। उसके प्रति उसके जुनून को देखकर लगता था कि उसे वे चाची से भी ज्यादा प्यार करते थे।
अपनी उस नई प्रियतमा को एक दिन घर की चारदीवारी से निकालकर चाचा ने घर के सामने खुली हवा में खड़ा कर दिया। उनका मंशा उसे शायद पड़ोसियों को दिखाने का भी रहा हो। उसे वहाँ खड़ी करके वे घर के कामकाज में लग गए। अभी कुछ ही मिनट बीते होंगे कि बाहर से आती चाची की तेज पुकारों ने उनका ध्यान आकृष्ट किया।
“अरे, मनु के पापा, जल्दी से बाहर आओ…।” वे चिल्ला रही थीं।
हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़-छाड़कर चाचा बाहर की ओर भागे।
“क्या हुआ?” उन्होंने चाची से पूछा।
“वो देखो…।” चाची ने कार की ओर इशारा करते हुए कहा।
चाचा ने कार की ओर देखा। पड़ोस के एक छोटे बच्चे ने पत्थर की नोक से कार की पूरी बॉडी पर अंग्रेजी अल्फाबेट ए से जैड तक लिख मारा था। जगह बचती तो उस पर वह गिनतियाँ भी जरूर लिखता। चाचा के गुस्से का न ओर था न छोर। कार के पास ही खड़े उस बच्चे के दोनों कंधों को पकड़कर उन्होंने कहा—“ये क्या किया तूने!”
बच्चा उनकी मुख-मुद्रा को देखकर सहम गया। बड़े भोलेपन के साथ बोला—“मम्मी ने मुझे एबीसी याद कराई थी और बोला था कि एक घंटे बाद फिर पूछेंगी। मैंने सोचा कि लिखकर याद करूँगा तो पता चल जाएगा कि कोई लैटर छूटता तो नहीं है। मैंने इसीलिए…।”
उसकी बात सुनकर चाचा का गुस्सा काफूर हो गया। बच्चा जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।
॥6॥ आण्टी का ढाबा
मैं उन दिनों मेरठ में रहा करता था। यों खाने-पीने की कोई परेशानी वहाँ पर नहीं थी, लेकिन घर के भोजन की याद फिर भी बहुत आया करती थी। दोस्तों के बीच भी इस बात का जिक्र हो जाया करता था।
इसी तरह की बात चली तो एक दोस्त ने एक दिन आण्टी के ढाबे के बारे में बताया। कहा कि वह एकदम घर जैसा भोजन बनाती है और माँ की तरह ही स्नेह के साथ खिलाती है। तारीफ सुनी तो दोस्त के साथ मैं भी उस दिन आण्टी के हाथ के खाने का स्वाद चखने उसके ढाबे पर पहुँच गया। खाने वालों की जैसे लाइन लगी हुई थी।
दो छोटी दुकानों को मिलाकर आण्टी ने एक ढाबे का रूप दे रखा था। साफ-सफाई भी ज्यादा नहीं थी। करीब दस मिनट इंतजार के बाद हमें दो सीटें खाली मिलीं और उसके बीस मिनट बाद खाने की थाली हमारे सामने आई। इतना समय बरबाद हो जाने पर बड़ी कोफ्त हुई, लेकिन जब खाना खाया तो…इंतजार करने का सारा अफसोस जाता रहा। खाना वाकई एकदम घर जैसा, स्वादिष्ट था। खाना खाने के बाद पैसे दिये तो वह भी वाजिब। उस दिन से सुबह-शाम हर रोज वहीं पर जाना शुरू कर दिया।
आण्टी का व्यवहार, जैसा कि दोस्त ने बताया था, माँ जैसा ही था; लेकिन उसका पति, जिसे सब लोग ‘अंकल’ संबोधित करते थे—बड़ा ही खड़ूस किस्म का इंसान था। वह रोजाना ही किसी न किसी ग्राहक से किसी न किसी बात पर उलझता ही रहता। ग्राहकों से नोक-झोक करना उसके लिए आम बात थी लेकिन ग्राहकों के लिए नहीं। उसके व्यवहार से परेशान कई लोगों ने ढाबे पर आना छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद मेरा मन भी उसकी बेमतलब चूँ-चपड़ से ऊब गया, मैंने भी जाना छोड़ दिया।
दो या तीन महीने बाद पता चला कि आण्टी का ढाबा बंद हो गया है।
॥7॥ कार या प्यार
सुबह का समय था। परिवार रविवार की छुट्टी का मजा ले रहा था। पिता अपनी नई चमचमाती कार को बाहर सड़क पर निकालकर बहुत प्यार से साफ कर रहा था। माता रसोईघर में सुबह के नाश्ते की तैयारी में व्यस्त थी। बेटा अपने खिलौनों से खेल रहा था।
खेलते-खेलते बेटे को अचानक कुछ सूझा। खिलौनों को एक ओर सरकाकर वह उठ खड़ा हुआ और बाहर आ गया। बाहर आकर सड़क पर से उसने एक नुकीला पत्थर उठाया और कार पर ‘आइ लव यू पापा’ लिख दिया।
पिता ने देखा तो आगबबूला हो गया। पत्थर के उसी टुकड़े से चोटें मार-मारकर उसने बालक की उँगलियाँ कुचल दीं। वह दर्द से बिलबिला उठा। माता ने पिता का चीखना-चिल्लाना और बच्चे का रोना-बिलबिलाना सुना तो सब-कुछ छोड़-छाड़कर बाहर की ओर भागी। हालात पर बहस करने में समय बरबाद करने की बजाय उसने बच्चे को गोद में उठाया और क्लीनिक जा पहुँची।
“कई उँगलियों की हड्डियाँ टूट गई हैं…” डॉक्टर ने देखकर बताया,“तीन-चार महीने तो लग ही जाएँगे।”
इसी बीच पिता भी वहाँ पहुँच गया। अपने किये पर वह बहुत दुखी था और मन ही मन खुद को कोस रहा था। वह लगातार यही सोच रहा था कि बेटे ने तो उसके प्रति अपना प्यार प्रकट किया था लेकिन उस प्यार के बदला उसने क्या दिया!
अफसोस के उन्हीं क्षणों में उसकी नजर क्लीनिक की दीवार पर लिखे इस स्लोगन पर पड़ गई—मनुष्य प्यार करने के लिए बना है और वस्तु इस्तेमाल के लिए। मगर दुर्भाग्य! हम आज वस्तु को प्यार करने लगे हैं और मनुष्य को इस्तेमाल!
7 सितम्बर, 1984 को जन्मे आशीष ने ‘यूपीटेक’ के माध्यम से गाजियाबाद के आई एम एस से बी टेक तत्पश्चात एम बी ए किया है और संप्रति एच सी एल की नोएडा स्थित इकाई में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। लेखन के बारे में उनका कहना है कि—मेरा लेखन मेरे अनुभवों की देन है। मेरी रचनाओं में से कुछ का संबंध मुझसे है तो कुछ का देश की सामाजिक समस्याओं से। कुल मिलाकर मैं महसूस करता हूँ कि लिखना आपको उस दुनिया से जोड़ देता है जहाँ इस दुनिया के दुख आपको नहीं सता सकते।
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