Wednesday 11 June, 2014

व्यंजना के सफल प्रयोग / बलराम अग्रवाल



सुभाष नीरव

विषय की एकतानता एवं प्रभावान्विति (यूनिटी आ इम्प्रेशन) समकालीन लघुकथा की ऐसी विशेषता है जिसे जाने-अनजाने अक्सर उसकी कमजोरी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। कहा जाता है कि ‘लघुकथा में आसपास के परिवेश का चित्रण नहीं हो सकता’ या ‘लघुकथा में चरित्र के व्यापक चित्रण की गुंजाइश नहीं होती है’ या ‘लघुकथा में मनोभावों का विस्तृत चित्रण असम्भव है’ आदि-आदि। लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में, ये या इस तरह के सभी वक्तव्य गलत हैं। वास्तविकता यह है कि लघुकथा में ‘यूनिटी आफ इम्प्रेशन’ को बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि बहुत-सी अवांछनीय चेष्टाएँ इस रचना-विधा में न की जायँ। उदाहरण के लिए, आसपास के परिवेश के चित्रण को लें। इसका प्रतिपादन कथा के प्राचीन आचार्यों ने आलंकारिक योजना की प्रस्तुति के माध्यम से कहानी के आकार को यथासंभव प्रभावी बनाने की दृष्टि से किया होगा। परन्तु इस शास्त्रीय गुर का प्रयोग अनेक कहानीकार रचना को बोझिल बना डालने की हद तक करके उसकी हत्या तक कर डालते हैं।  लघुकथा में परिवेश का आभासभर ही पाठक को उसके समूचेपन से परिचित करा देता है। उदाहरण के लिए, यहाँ प्रस्तुत सुभाष की लघुकथाओं में से एक ‘बारिश’ को ले सकते हैं। इसमें वह लिखते हैं—‘दूर तक कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नये बने हाई-वे के दोनों ओर दूर तक फैले खेत ही बचे थे, बस’ इन दो वाक्यों से ही वे बता देते हैं कि हाई-वे बनानेवाली मशीनरी वृक्षों के प्रति कितनी संवेदनहीन है। यही बात लघुकथा में पात्रों के व्यापक चरित्र-चित्रण तथा मनोभावों के विस्तृत चित्रण के संदर्भ में भी न्यायसंगत है।
रचनात्मक साहित्य की हर विधा की तरह समकालीन लघुकथा के केन्द्र में भी मनुष्य और उसकी बेहतरी की चिंताएँ हैं। मूल्यों को हम राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिकजिस फ्रंट पर भी रखकर परिभाषित करने की चेष्टा करें, यह तो ध्यान में रखना ही होगा कि कुछ मूल्य शाश्वत होते हैं और कुछ सामयिक। व्यक्ति न शाश्वत मूल्यों की अवहेलना करके चैन से बैठ सकता है, न सामयिक मूल्यों की अवहेलना करके। लेकिन मूल्यों की अवहेलना के इन दोनों ही पक्षों से उसे कभी न कभी गुजरना और इस द्वंद्व में फँसना पड़ ही जाता है कि वह इधर जाये या उधर। गलती उसकी नहीं, समय ही ऐसा विकट है कि अच्छे-भले आदमी की विवेकशक्ति को डावाँडोल कर देता है। समकालीन लघुकथा आदमी की इस भ्रमशील स्थिति से बिना किसी नारेबाजी के उसको परिचित कराती है। सुभाष कीकमराइस सहज उद्बोधन का उत्कृष्ट उदाहरण बनकर सामने आती है।कमरादो खण्डों में सम्पन्न होती हैपहले खण्ड में पिता को उनके कमरे से हटाकर ऊपरी मंजिल पर शिफ्ट कर देने की क्रिया घटती है; तथा दूसरे खण्ड में, बच्चों की पढ़ाई के लिए खाली कराया हुआ कमरा तीन हजार रुपए मासिक की आमदनी के लालच में किराए पर चढ़ा देने की क्रिया घटती है। कथाकार ने किसी आदर्शवादी या आक्रोशपरक मंतव्य को इसमें अपनी ओर से कहीं भी व्यक्त नहीं किया है; और न ही वैसी शब्दावली या भाषा का प्रयोग कहीं किया है। बहू-बेटा का अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर बुजुर्ग पिता की सुख-सुविधा के प्रति असंवेदशील होना जिस विशेष तरह के दबाव का परिचायक है, वह तीन हजार रुपए मासिक की आय के सामने बच्चों के शान्तिपूर्वक पढ़ पाने की बलि चढ़ा देने के रूप में सामने आता है। आर्थिक विपन्नता किस तरह संस्कारहीनता और दायित्वहीनता दोनों को जन्म दे रही है, यह लघुकथा इस ओर संकेत करके अपना काम पूरा कर जाती है।
      धूपदो बातों की तरफ इशारा करती हैपहली यह कि महानगरों की ऊँची-ऊँची इमारतों में, वे चाहे कार्यालय की दृष्टि से खड़ी की गयी हों चाहे निवास की दृष्टि से, नैसर्गिक धूप में नहा पाने का सुख दुर्लभ हो गया है। दूसरी यह कि धूप का सुख पाने के लिए व्यक्ति को अफसर होने के खोल से बाहर निकलकर आम लोगों के बीच बैठना पड़ता है। इस बिन्दु पर यह लघुकथा अशोक भाटिया कीरंगजैसा आनन्द प्रदान करती है।धूपयहाँ रिश्तों की गरमाहट का भी प्रतीक है। बीमारबाल-सुलभ जिज्ञासा और आकांक्षा को अत्यंत सहजता से प्रकट करती है। बाल-मनोविज्ञान को व्यक्त करने वाली सफल लघुकथाओं में इसे उतनी ही आसानी से रखा जा सकता है, जितनी आसानी से बलराम कीगंदी बातको। आर्थिक मोर्चे पर निम्न और निम्न-मध्य वर्ग की त्रासद स्थिति को यह लघुकथा बाल-जिज्ञासा और बाल-आकांक्षा के माध्यम से पाठक के समक्ष रखती हैसफ़र में आदमीमें दिखाया गया है कि विवशता के मात्र स्थूल रूप ही नहीं होते, सूक्ष्म रूप भी होते हैं। जीवन में दैहिक विश्राम एक आवश्यक क्रिया है। देह को सामान्यत: निश्चित समय-अंतराल में विश्राम मिले तो मानसिक अभिजात्यता के पूर्वग्रहित सभी बंधन एक-एक कर टूटने-बिखरने लगते हैं। यह सिद्धांत विश्राम ही नहीं, देह की समस्त क्रियापरक आवश्यकताओं पर समयानुरूप लागू होता है।सफ़र में आदमीमनुष्य की इस जटिल मानसिकता को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करती लघुकथा है। इस मानसिक अभिजात्यता अकेले कथानायक में ही नहीं है, यह दर्शाने के लिए सुभाष ने किसी स्टेशन पर वैसे-ही एक अन्य यात्री की प्रविष्टि लघुकथा में कराई है जिससे यह कथानक गतिमान हो उठा है। अभिजात्यता के खण्डित होने का इसमें प्रभावशाली चित्रण देखने को मिलता है।
‘बर्फी’ आमजन से कुछ ऊपर, समाज में विलास-वृत्ति के भोगवादी वर्ग की कथा है। आर्थिक रूप से तुष्ट यह भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबा हुआ वर्ग है। इसकी सुबह दिल्ली में, दोपहर मुंबई में और रात न्यूयॉर्क में बीतती है। भोक्ता और भोग्या की, शोषक और शोषित की, नैतिक जीवन-मूल्यों की यहाँ हर बहस बेमानी है। यहाँ कब, कौन परिचित-अपरिचित महिला ‘बर्फी’ बनकर सामने आ खड़ी होगी, ऑर्डर देने वाला नहीं जानता। स्वयं ‘बर्फी’ भी नहीं कि उसे किसके गले में उतरने के लिए भेजा जा रहा है। यह व्यवसाय बिचौलियों के जरिए दुनियाभर में फल-फूल-फैल रहा है, निर्बाध। एक पुरानी कहावत है कि—परदेश गये पति की स्त्री को दृष्ट या अदृष्ट, क्रूर और कृत्रिम वचनमुद्राओं द्वारा धूर्त पुरुष हर लेते हैं। सुभाष की  ‘सेंध’ सीधी-सादी लघुकथा है और इस बात की ओर इशारा करती है कि महिलाओं को विशेषकर निकट के लोगों से कितना सावधान रहना पड़ता है।
‘लाजवंती’ जीवन में आ पसरी वैयक्तिकता के बीच स्नेह और सौहार्द के दो पलों को सुरक्षित रख लेने की कोशिश की सफल प्रस्तुति है। इस रचना में भी समकालीन जीवन में केंसर के जीवाणुओं की तरह आ घुसे द्वैत को बड़ी सहजता से सुभाष ने पिरोया है। बाज़ार किस तरह विवेकपूर्ण और निष्पक्ष लेखन को प्रभावित करता है, इसका उल्लेख ‘बाज़ार’ शीर्षक लघुकथा में हुआ है तो ‘मकड़ी’ अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए यह स्थापित करती है कि उपभोक्ता के प्रति बाज़ार की सहृदयता उसके लिए कितनी घातक है।
‘बारिश’ नाटकीयता से परिपूर्ण मनोवैज्ञानिक कथा है। बारिश के इसमें अनेक रूप हैं—पहला वह, जिसमें भीगने से बचने के लिए बाइक पर कहीं जा रहे लड़का-लड़की हाई-वे के दोनों ओर एक छतनार पेड़ तक नहीं देख पाते हैं। यहाँ सुभाष ने धीरे-से यह बता दिया है कि हाई-वे बनाने के क्रम में पेड़ों की अवहेलना किस कद्र की जाती है। बारिश का दूसरा रूप वह है, जब झोंपड़ी के भीतर खाट पर लेटा बूढ़ा उन्हें एकान्त देने की गरज से स्वयं बारिश में जा बैठता है। तीसरा वह है, जब लड़के की शरारत से बचने के लिए लड़की बारिश में भीगने को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है; तथा चौथा वह, जो इस कथा को क्लाइमेक्स पर पहुँचाता है—बारिश में भीगते लड़का-लड़की के साथ बूढ़े का स्वयं अपने बचपन में उतर जाना और उस युवा जोड़े की तरह बारिश की बूँदों को चेहरे पर लपकने का खेल खेलना शुरू कर देना। ऐसी दृश्यात्मकता के साथ हिन्दी में कम ही लघुकथाएँ आ पाई हैं। यह दरअसल, इक्कीसवीं सदी की लघुकथा का शिल्प है जो उसे ‘कौंध’ से बहुत आगे की विधा सिद्ध करता है।
‘समकालीन लघुकथा का जागरूक हस्ताक्षर’ शीर्षक से मैंने सुभाष के लघुकथा संग्रह ‘सफ़र में आदमी’ की भूमिका लिखी थी; परन्तु प्रस्तुत लघुकथाओं में से कई उस संग्रह के बाद लिखी जाने के कारण उसमें संग्रहीत नहीं हैं। उनमें से ‘जानवर’ एक व्यंजनापरक प्रभावपूर्ण लघुकथा है जिसमें दिखाया गया है कि कुछ लोग अपने भीतर के जानवर की क्षुधा को शांत करने के लिए ही प्यार का नाटक करते हैं। ‘सेंध’ हो, ‘जानवर’ हो या ‘बारिश’; सुभाष की लघुकथाओं के स्त्री-पात्र अपने चारित्रिक कुशल-क्षेम के प्रति सजग हैं। समकालीन लघुकथा की यह विशेषता है कि कथाकार किसी आदर्शपरक, उपदेशपरक अथवा विद्रोहपरक वाक्य या संवाद का प्रयोग किये बिना पाठक में अपने संदेश को संचरित कर देता है। सुभाष ने विशेषत: अपनी इन ताज़ा लघुकथाओं में इस युक्ति का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है।
‘सफ़र में आदमी’ के बाद वाली लघुकथाओं के शीर्षकों में (और कथा-निर्वाह में भी) सुभाष ने कुछ व्यंजनापरक प्रयोग किए हैं। ‘बर्फी’, ‘जानवर’, ‘सेंध’ जैसे शीर्षक पाठक की जिज्ञासा को जगाते हैं और कथा के अंत में उसकी सुप्त-चेतना को चौकस-सा करते हैं। इस चौकस करने को कोई झकझोरना न समझे और न ही इसे ‘चौंक’ तत्व (?) से जोड़ ले। ‘चौंक’ विट का धर्म है, कथा का नहीं। कथा का धर्म पाठक में मानवीय संवेदनशीलता को बरकरार रखना है जोकि मनुष्य होने की इकलौती शर्त है। प्रत्येक कथाकार धरती पर मनुष्यता को बरकरार रखने के मानवीय दायित्व को निभाता है। समकालीन लघुकथा लेखक के रूप में सुभाष नीरव भी नि:संदेह इस मुहिम में शामिल है।
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